‘गीता’ बने राष्ट्रीय ग्रंथ

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प्रमोद भार्गव
दुनिया के अनेक देशों में राष्ट्रीय झंडा, चिन्ह, पक्षी और पशु की तरह राष्ट्रीय ग्रंथ भी हैं। अलबत्ता हमारे यहां ‘धर्मनिरपेक्ष’ एक ऐसा विचित्र शब्द है, जो राष्ट्र-बोध की भावना पैदा करने में अक्सर रोड़ा अटकाने का काम करता है। गोया गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बना देने की घोषणाएं जरूर होती रही हैं लेकिन ऐसा करना आसान नहीं है। हालांकि नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद उन मुद्दों का हल होना शुरू हो गया है, जो भाजपा और संघ के मूल अजेंडे में शामिल रहे हैं। इनमें धारा 370 एवं 35-ए, तीन तलाक, राममंदिर और राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर अमल हो गया है, लेकिन समान नागरिक संहिता, समान शिक्षा, राष्ट्रभाषा और संस्कृत पढ़ाए जाने के मुद्दे अभी हल नहीं हो पाए हैं। उम्मीद है कि इन मुद्दों के समाधान भी हो जाएंगे।
गीता जीवन जीने का तरीका सिखाती है, बावजूद संविधान में दर्ज ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द ऐसा आडंबर है, जो गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने और इसे शालेय शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल करने में सबसे बड़ी बाधा है। गीता को जब भी राष्ट्रीय महत्व देने की बात उठती है तो तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी सेक्युलरिज्म की ओट में गीता का विरोध करने लगते हैं, क्योंकि यह बहुसंख्यक किंतु उदारवादी हिंदू धर्मवलंबियों का ग्रंथ है। दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों के शिक्षा संस्थान में कुरान की आयतें, बाईबिल के संदेश अथवा अन्य मध्ययुगीन मजहबी किताबें पढ़ाई जाती रहें, तो मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों और तथाकथित सेक्युलर राजनीतिज्ञों को कोई आपत्ति नहीं होती? जबकि श्रीमद्भगवत गीता दुनिया का एकमात्र ऐसा ग्रंथ है, जिसकी रचना महाभारत युद्ध के दौरान एक विशेष कालखंड में राष्ट्रीयता, नैतिकता और मानवता के चरम तत्वों की प्राप्ति के लिए हुई थी। गोया यह मानव संघर्ष के बीच रचा गया संघर्ष का शास्त्र है। आज दुनिया आतंकवाद के संक्रमण काल से गुजर रही है, ऐसे में गीता का संदेश कर्म और उदात्त तत्वों को ग्रहण करने का एक श्रेष्ठ माध्यम बन सकता है।
प्रत्यक्षतः दुनिया शांति और स्थिरता की बात करती है। लेकिन शासकों के पूर्वाग्रह, अंतर्द्वंद्व आधुनिक विकास और सत्ता की प्रतिस्पर्धा ऐसी महत्वाकांक्षाएं जगाते हैं कि दुनिया कहीं ठहर न जाए? इसलिए भीतर ही भीतर धर्म, संप्रदाय, जाति और नस्ल के भेद के आधार पर दुनिया को सुलगाए रखने का काम भी यही शासक करते हैं। परिणामस्वरूप दुनिया में संघर्ष और टकराव उभरते रहे हैं। टकराव के एक ऐसे ही कालखंड में कर्मयोगी श्रीकृष्ण के मुख से अर्जुन को कर्तव्यपालन के प्रति आगाह करने के लिए गीता का सृजन हुआ। इसीलिए इसे संघर्ष-शास्त्र भी कहा गया है। गीता का संदेश है, उठो और चुनौतियों के विरुद्ध लड़ो। क्योंकि अर्जुन अपने परिजनों, गुरुजनों और मित्रों का संहार नहीं करना चाहते थे। वे युद्ध से विमुख हो रहे थे। यदि इस मानव-संघर्ष में अर्जुन धनुष-बाण धरा पर धर देते तो सत्ताधारी कौरव जिस अनैतिकता व अराजकता के चरम पर थे, वह जड़ता टूटती नहीं। यथास्थिति बनी रहती है। परंपरा में चले आ रहे तमाम ऐसे तत्व शामिल होते हैं, जो वाकई अप्रासंगिक हो चुके होते हैं। मूल्य-परिवर्तनशील शाश्वत बने रहें, इसलिए परंपरा में परिवर्तन जरूरी है। गीता में बदलाव के आवश्यक कर्म की ही व्याख्या की गई है। इसीलिए यह युगांतरकारी ग्रंथ है।
दुनिया के प्रमुख ग्रंथों में गीता ही एक ऐसा ग्रंथ है, जिसका अध्ययन व्यक्ति में सकारात्मक सोच के विस्तार के साथ उसका बौद्धिक दायरा भी बढ़ाती है। इसीलिए गीता के अबतक विभिन्न लोग एक सौ से भी ज्यादा भाष्य लिख चुके हैं। अन्य धर्मग्रंथों की तो व्याख्या ही निषेध है। हालांकि कोई धर्मग्रंथ चाहे वह किसी भी धार्मिक समुदाय का हो, दुनिया के सभी देशों के बीच उनका सम्मान करने की एक अघोषित सहमति होती है। गीता विलक्षण इसलिए है, क्योंकि यह सनातन धर्मावलंबियों का आध्यात्मिक ग्रंथ होने के साथ दार्शनिक ग्रंथ भी है। इसमें मानवीय प्रबंधन के साथ समस्त जीव-जगत व जड़-चेतन को एक कुटुंब के रूप में देखा गया है और उनकी सुरक्षा की पैरवी की गई है। इसीलिए भारतीय प्रबंधकीय शिक्षा में भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश और गीता के सार को स्वीकार किया गया है। जब प्रबंधन की शिक्षा गीता के अध्ययन से दिलाई जा सकती है तो शिक्षा में गीता का पाठ क्यों शामिल नहीं किया जा सकता? जबकि ईसाई मिशनरियों और इस्लामी मदरसों में धर्म के पाठ, धार्मिक प्रतीक चिन्हों के साथ खूब पढ़ाए जाते हैं।
गीता ज्ञान की जिज्ञासा जगाने वाला ग्रंथ है। इसीलिए प्राचीन दर्शन परंपरा के विकास में इसकी अहम् भूमिका रही है। आदि शंकराचार्य से लेकर संत ज्ञानेश्वर, महर्षि अरविंद, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, विनोवा भावे, डॉ. राधाकृष्णन, ओशो और प्रभुपाद जैसे अनेक मनीषी-चिंतकों ने गीता की युगानुरूप मीमांसा करते हुए, नई चिंतन परंपराओं के बीच नए तत्वों की खोजें की हैं। यही नहीं मुगल बादशाह दारा शिकोह और महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन तक को एकेश्वरवाद पर आधारित इस ग्रंथ ने भीतर तक प्रभावित किया है। दारा शिकोह ने गीता का फारसी भाषा में अनुवाद भी किया था। तय है, व्यक्ति और समाज की रचनात्मकता में गीता का अतुलनीय योगदान रहा है। कालजयी नायकों में गीता के स्वाध्याय से उदात्त गुणों की स्थापना हुई है। इसीलिए ये महापुरुष कर्म की श्रेष्ठता को प्राप्त हुए।
हमारे यहां विडंबना बौद्धिक दयनीयता व विपन्नता की है। जब भी प्राचीन भारतीय साहित्य, ज्ञान परंपरा या रामायण, महाभारत, उपनिषद व पुराणों में दर्ज शाश्वत मूल्यों को राष्ट्रीयता से जोड़ने की बात आती है तो कथित बौद्धिकों की एक जमात इन जीवन-मूल्यों को आधारहीन व अवैज्ञानिक ठहराने में जुट जाती है। ग्रंथों में चित्रित पात्र और घटनाओं को मिथक कहकर अस्वीकारने लगते हैं। जबकि भारतीय ज्ञान परंपराएं स्थानीयता से जुड़ी होने के कारण व्यावहारिक हैं। हां, बदलते समय के अनुसार थोड़ा उन्हें परिष्कृत करके युगानुरूप ढालने की जरूरत है। गीता तो वैसे भी वेद, वेदांत से भी आगे के विकास की कड़ी है। क्योंकि वह यथास्थिति यानी जड़ता को तोड़ने का संदेश देती है। गीता के उपदेश में बदलाव के महत्व की समझ है। उसमें परिस्थितियों से जुड़ने का संदेश है, जो चरित्र में कर्म की प्रधानता निरूपित करती है। गीता युद्ध- ग्रंथ है, इसलिए उसमें कर्मकाण्ड कहीं नहीं है। कालांतर में सनातन धर्म में कर्मकांड की उपस्थिति ने व्यक्ति को धर्मभीरू बनाने का काम किया और धर्मभीरूता व कर्मकाण्डी पाखंड के विस्तार ने ही हिंदुओं के पराजय का मार्ग खोला। नतीजतन विदेशी हमलावरों की तो छोड़िए अंग्रेज व्यापारियों ने भी हिंदुओं को सरलता से गुलाम बना लिया।
भारतीय समाज की धर्मभीरूता दूर करने में गीता अहम् भूमिका का निर्वाह कर सकती है। क्योंकि धर्मनिरपेक्षता तो एक छद्म विवादित व विरोधाभासी सिद्धांत है, जो चरित्र में मूल्यों का सृजन करने की बजाय, धर्म समुदायों को सांप्रदायिक आधार पर कट्टर बनाकर दूरियां बढ़ाने का काम कर रहा है। ऐसे में देश को राष्ट्रबोध और स्वाभिमानी बनाने के लिए गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ की श्रेणी में लाना जरूरी है।

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