गुलाम कश्मीर में पाकिस्तान के विरुद्ध तेज होता जनविद्रोह

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प्रमोद भार्गव
सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पाक अधिकृत कश्मीर में फिर जनविद्रोह भड़का है। उसे दबाने के लिए पाकिस्तानी सुरक्षा बल और आईएसआई बर्बरता पर उतरे हुए हैं। दरअसल भारत का मुखर समर्थन मिलने के बाद गुलाम कश्मीर के लोगों का हौसला बुलंदी पर हैं। वे पाकिस्तानी ज्यादतियों के खिलाफ हजारों की संख्या में रोजाना सड़कों पर उतर रहे हैं। गुलाम कश्मीर में इसके पहले सेना और आईएसआई के खिलाफ इतनी बड़ी संख्या में न तो लोगों ने शिरकत की और न ही कभी यह विद्रोह ब्लूचिस्तान के व्यापक हिस्से में देखने में आया है। सेना और आईएसआई के जुल्मों से आजिज आ चुके कश्मीरियों ने ‘कश्मीर का कसाई, पाकिस्तान आर्मी‘ और ‘आईएसआई से ज्यादा वफादार कुत्ता‘ जैसे नारे विद्रोही लगा रहे हैं। प्रदर्शनकारी गुलाम कश्मीर के राष्ट्रवादी के नेता आरिफ शाहिद की हत्या की निष्पक्ष मांग भी कर रहे हैं। शाहिद जम्मू-कश्मीर नेशनल लिबरेशन कांफ्रेस के अध्यक्ष और आॅल पार्टी नेशनभाषाल एलांइस के भी अध्यक्ष थे। शाहिद की 14 मई 2013 को रावलपिंडी में उनके घर के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। विद्रोही इस हत्या का आरोप आईएसआई पर लगा रहे हैं।
भारत का मुखर समर्थन मिलने के बाद ब्लूचिस्तान में पाक अधिकृत कश्मीर और गिलगिट-बल्टिस्तान में न केवल पाकिस्तान के विरुद्ध आंदोलन तेज हुए हैं, बल्कि आजादी की बात भी करने लगे हैं। बांग्लादेश और अफगानिस्तान ने ब्लूचिस्तान के मुद्दे पर प्रधानमंत्री भारत के रुख का समर्थन किया है। कनाडा और जर्मनी में बलूचों द्वारा पाक के खिलाफ प्रदर्शनों की सख्यंा बढ़ गई है। रूस और संयुक्त अरब अमीरात भी इस आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। दूसरी तरफ वैश्विक मानवाअधिकारवादी सरंक्षण संस्थाओं का कहना है कि इन क्षेत्रों में मानवाधिकारों का हनन इतने बड़े पैमाने पर हो रहा है कि उनको रेखांकित किया जाना मुश्किल है। इसी बीच पाक के सिंध प्रांत में हिंदूओं पर हो रहे अत्याचार के विरोध में भी लोग सड़कों में उतरे हैं।
अंग्रेजों ने भारत व पाकिस्तान के साथ ब्लूचिस्तान को भी एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया था। साढ़े सात महीने तक यहां स्वतंत्र शासन रहा। किंतु, गिलगित और ब्लूचिस्तान पर मोहम्मद अली जिन्ना ने 17 मार्च 1947 को सेना के बूते अवैध कब्जा कर लिया था। तभी से यहां राजनीतिक अधिकारों के लिए लोकतांत्रिक आवाज उठाने वाले लोगों पर दमन और अत्याचार आज तक जारी है। बलूचों की मात्र भाषा ब्राहुई का विकास उर्दु भाषा थोप कर ठप कर दिया। जबकि यह बेहद प्राचीन भाषा मानी जाती है। बलूच अपनी भाषा को लेकर बेहद संजिदा हैं। पाक के विरुद्ध ब्लूचिस्तान के संघर्ष में भाषा अहम् मुद्रदा है। पाक से बांग्लादेश के अलग होने का प्रमुख कारण बांग्ला भाषा रही है। इस नाते पाक बलूच में ब्राहुई भाषा के दमन में कब्जा करने के समय से ही लगा हुआ है। पाक की कुल भूमि का 40 फीसदी हिस्सा यहीं है। लेकिन इसका विकास नहीं हुआ है। करीब 1 करोड़ 30 लाख की आबादी वाले इस हिस्से में सर्वाधिक बलूच है। पाक और ब्लूचिस्तान के बीच संघर्ष 1945, 1958, 1962-63, 1973-77 में होता रहा है। 77 में पाक द्वारा दमन के बाद करीब 2 दषक तक शांति रही। लेकिन 1999 में परवेज मुशर्रफ सत्ता में आए तो उन्होंने बलूच भूमि पर सैनिक अड्डे खोल दिए। इसे बलूचों ने अपने क्षेत्र पर कब्जे की कोशिश माना और फिर से संघर्ष तेज हो गया। इसके बाद यहां कई अलगाववादी आंदोलन वजूद में आ गए। इनमें सबसे प्रमुख ब्लूचिस्तान लिबरेशन आर्मी प्रमुख है।
पीओके और ब्लूचिस्तान पाक के लिए बहिस्कृत क्षेत्र हैं। पीओके की जमीन का इस्तेमाल वह, जहां भारत के खिलाफ शिविर लगाकर गरीब व लाचार मुस्लिम किषोरों को आतंकवादी बनाने का प्रशिक्षण दे रहा है, वहीं ब्लूचिस्तान की भूमि से खनिज व तेल का दोहन कर अपनी आर्थिक स्थिति बहाल किए हुए है। अकेले मुजफ्फराबाद में 62 आतंकी शिविर हैं। यहां के लोगों पर हमेशा पुलिसिया हथकंडे तारी रहते हैं। यहां महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं है। गरीब महिलाओं को जबरन वैष्यावृत्ति के धंधों में धकेल दिया जाता है। 50 फीसदी नौजवानों के पास रोजगार नहीं हैं। 40 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। 88 प्रतिशत क्षेत्र में पहुंच मार्ग नहीं हैं। बावजूद पाकिस्तान पिछले 70 साल से यहां के लोगों का बेरहमी से खून चूसने में लगा है। जो व्यक्ति अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाता है, उसे सेना, पुलिस या फिर आइएसआई उठा ले जाती है। पूरे पाक में शिया मस्जिदों पर हो रहे हमलों के कारण पीओके के लोग मानसिक रूप से आतंकित हैं। दूसरी तरफ पीओके के निकट खैबूर पख्तूनख्वा प्रांत और कबाइली इलाकों में पाक फौज और तालिबानियों के बीच अकसर संघर्ष जारी रहता है, इसका असर गुलाम कश्मीर को भोगना पड़ता है। नतीजतन यहां खेती-किसानी, उद्योग-धंधे, शिक्शा-रोजगार और स्वास्थ्य-सुविधाएं तथा पर्यटन सब चैपट है। गोया यहां के लोग भारत की ओर ताक रहे हैं।
ब्लूचिस्तान ने 70 साल पहले हुए पाक में विलय को कभी स्वीकार नहीं किया। लिहाजा वहां अलगाव की आग निरंतर बनी हुई है। नतीजतन 2001 में यहां 50 हजार लोगों की हत्या पाक सेना ने कर दी थी। इसके बाद 2006 में अत्याचार के विरुद्ध आवाज बुलंद करने वाले 20 हजार सामाजिक कार्यकर्ताओं को अगवा कर लिया गया था, जिनका आज तक पता नहीं है। 2015 में 157 लोगों के अंग-भंग किए गए। फिलहाल पुलिस ने जाने-माने एक्टिविस्ट बाबा जान को भी हिरासत में लिया हुआ है। पिछले 16 साल से जारी दमन की इस सूची का खुलासा एक अमेरिकी संस्था ने किया है। वाॅशिगटंन में कार्यरत संस्था गिलगिट-ब्लूचिस्तान नेशनल कांग्रेस के सेंग सिरिंग ने नरेंद्र मोदी द्वारा उठाए, इस सवाल का समर्थन किया है कि ‘पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर और ब्लूचिस्तान में लोगों पर होने वाले जुल्म एवं अत्याचार के बाबत पाक को दुनिया के समक्ष जवाब देना होगा।
केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने भी कहा था कि पीओके में कोई मानवाधिकार नहीं हैं। इसकी पुष्टि दुनिया के कई मानवाधिकार संगठनों ने की है। जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिशshद् में पेश रिपोर्ट में एक संगठन ने पीओके से जुड़े गिलगित बाल्टिस्तान में संवैधानिक अधिकारों एवं षैक्शिक व स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं की कमी का विस्तृत ब्यौरा पेश किया है। इसी तरह इंस्टीट्यूट फाॅर गिलगित बाल्टिस्तान अध्ययन ने भी संयुक्त राष्ट्र से इस क्षेत्र पर विषेश ध्यान देने की अपील की है। इन रिपोर्टों में कहा है कि व्यापार, पारगमन, जलसंसाधन और पर्यटन से यहां से पाकिस्तान सरकार को अरबों रुपए मिलते हैं, लेकिन इस राशि का कोई भी लाभ स्थानीय निवासियों को नहीं दिया जाता है। स्वास्थ्य, शिक्शा, रोजगार और पेयजल जैसी बुनियादी समस्याओं पर भी पाक सरकार ध्यान नहीं देती है। अमेरिकी मानवाधिकारी संगठन ह्यूमन राइटस वाॅच ने 2006 में पीओके के संबंध में एक रिपोर्ट जारी की थी। इसमें गुलाम कश्मीर में दी जाने वाली यतनाओं, पाक फौज के अत्याचार और अभिव्यक्ति की आजादी से लोगों को वंचित रखने का ब्यौरा दर्ज है। एक पाकिस्तानी गैरसरकारी संगठन ह्यूमन राइटस कमीशन आॅफ पाकिस्तान ने भी अपनी रपटों में पीओके में लोगों के बुनियादी अधिकार पर सेना के संपूर्ण नियंत्रण का ब्यौरा प्रस्तुत किया है। हैरानी है कि 68 साल पहले पीओके में अवैध कब्जा करने वाला पाकिस्तान यहां के लोगों का क्रूरतापूर्वक दमन करने में लगा है, वही पाक भारतीय कश्मीर में मानवाधिकारों के कथित उल्लंघनों का मुद्दा विश्व मंचों पर उठाने में भी संकोच नहीं करता है। जबकि जम्मू-कश्मीर में आजादी के बाद से ही संवैधानिक व्यवस्था है और लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकारें शासन व्यवस्था देखती हैं। इसलिए संयुक्त राष्ट्र का दायित्व बनता है कि वह गुलाम कश्मीर में इन रिपोर्टों के आधार पर वहां की जनता के आजादी के बुनियादी अधिकारों के बहाली की दिशा में उचित पहल करे। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणा-पत्र के प्रति वचनबद्ध होने के कारण भारत का भी यह कर्तव्य बनता है कि वह गुलाम कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन संबंधी मुद्दों को निरंतर अंतरराष्ट्रिय मंचों पर उठाता रहे। जिससे गुलाम कश्मीर में उभर रहे सशक्त जनविद्रोह को ताकत मिले।
हालांकि अब संघर्षरत बलूच नागरिकों को इतनी ताकत मिल गई है कि हाल ही में उन्होंने चीनी दूतावास के समक्ष एक सप्ताह तक प्रदर्शन करने की हिमाकत की ।इन जनविद्रोहियों ने इस मौके पर कहा कि वे चीन और पाकिस्तान के बीच बन रहे आर्थिक गलियारे के पक्ष में नहीं हैं। बीजिंग और इस्लामाबाद के बीच हुई इस संधि का एक मात्र मकसद ब्लूचिस्तान को लूटना है। इसलिए वे समझौते को नहीं मानते। भारत के ब्लूचिस्तान के साथ खड़े हो जाने से इतना तो तय हो गया है कि इस मुद्दे पर अब पाकिस्तान का हर वैश्विक दांव उल्टा पड़ने लगा है।

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