‘सेकंड ऑर्डर ऑफ मेरिट ऑफ दी राइजिंग सन’ रास बिहारी बोस

-शैलेन्द्र चौहान-

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यूरोप में युद्ध आरंभ हो चुका था। भारत की अधिकतर सेना युद्ध भूमि पर भेजी गई थी। ३०,००० लोग , जो घर पर थे, ऐसे कई भारतीय थे, जिनकी निष्ठा आसानी से जीती जा सकती थी। ऐसी स्थिति में, विशेषकर लॉर्ड हार्डिंग बम घटना के पश्चात, एकमात्र नेता के रूप में रास बिहारी बोस को देखा गया। अलग अलग स्थानों पर कई लोगों की नियुक्ति की गई । क्रांति का संदेश दूर -दूरतक पहुंचाने हेतु लोग इधर उधर भेजे गए। कुछ विश्वासी गदरों को छावनियों में घुसपैठ हेतु भेजा गया। रासबिहारी बोस आनेवाली क्रांति के मस्तिष्क एवं धड़ थे। ठंडे दिमाग से सुस्पष्ट विचार करना उनकी विशेषता थी, साथ ही उनमें प्रचुर शारीरिक शक्ति थी जिसके कारण वे इतनी बड़ी क्रांति कि योजना बनाने की, जगह-जगह पर घूमने तथा चतुर पुलिस से बचने जैसे अनेक श्रमसाध्य कार्य कुशलतापूर्वक कर सकते थे। १९०५ के बंगाल विभाजनके पश्चात जो घटनाएं घटीं, उनसे प्रभावित होकर रासबिहारी पूरी तरह से क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न हो गए। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जब तक कोई क्रांतिकारी कार्यवाही नहीं होती, सरकार झुकेगी नहीं। जतिन बनर्जी के मार्गनिर्देर्शन में उनकी क्रांतिकारी गतिविधियां बढ़ चलीं। २३ दिसंबर १९१२ के पश्चात रास बिहारी बोस अचानक प्रसिदि्ध में आए, जब भारत के तत्कालीन वाइसराय लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंके गए। उसकी योजना बडी चतुराई से बनाई गई थी। चंदननगर की एक गुप्त बैठक में रास बिहारी बोस के साहसी मित्र श्रीष घोष ने हार्डिंगपर आक्रमण का सुझाव दिया। किंतु कुछ सदस्यों को वह अव्यवहारिक लगा। लेकिन रासबिहारी एकदम तैयार तथा दृढ थे, किंतु उन्होंने दो शर्तें रखीं- एक तो उन्हें शक्तिशाली बम दिए जाएं तथा दूसरा यह कि क्रांतिकारी विचारों का एक दृढ युवक उनके साथ दिया जाए। उनकी दोनों बातें मानी गर्इ तथा पहला अभ्यास १९११ में दिवाली पर किया गया, जब चारों ओर से पटाखों की आवाजें आ रही थी । बमविस्फोट से रासबिहारी को संतोष हुआ। किंतु उन्हें एक साल रुकना पड़ा, जिसका उपयोग उन्होंने २३ दिसंबर की बडी घटना का अभ्यास करके किया। वह साहसी युवक चंदननगर का बसंत बिस्वास नामक १६ वर्ष का एक सुंदर सा लडका था। वह आराम से लडकी की पोशाक पहनकर लडकियों में सम्मिलित होकर चांदनी चौक के एक भवन की छत पर बैठा था। सब लोग बड़ी उत्सुकता से वाईसराय के जुलूस की प्रतीक्षा कर रहे थे । बसंत को लक्ष्य पर बम फेंकने थे। उसने राजा टैगोर के देहरादून स्थित बगीचे में कई माह तक इसका अभ्यास किया था। रासबिहारी तो वहां ‘फॉरेस्ट रिसर्च इस्टीट्यूट’ में कार्य कर रहे थे, तथा बसंत उनका नौकर बनकर रह रहा था। अभ्यास के दौरान सिगरेट के बक्से में पत्थर के टुकडे भरकर, हार्डिंग की ऊंचाईकी/लम्बाई की कल्पना कर उस पर फेंके जाते थे। एक दिन पूर्व रासबिहारी बसंत को बग्घी में बिठाकर चांदनी चौक की सैर करा लाए थे, जो अगले दिन के लिए निश्चित किया गया स्थान था।

२१ फरवरी १९१५ को क्रांति का संकेत दिया जानेवाला था । आरंभ में ब्रिटिश अधिकारियों को घेरकर पुलिस थानों को नियंत्रण में लेना था। जब यह सीमांत प्रांत तक पहुंच जाएगा, आदिवासी शहर में आकर सरकारी अधिष्ठानों पर नियंत्रण करेंगे। सेनाधिकारी की पोशाक में रास बिहारी एक छावनी से दूसरी छावनी जाएंगे। १५ फरवरीको एक सैनिक कृपाल सिंह तथा क्रांति में सहभागी एक नया सैनिक लाहौर स्टेशन के निकट उसे दी गई सूचनाओंके विरुद्ध संशयास्पद स्थिति में घूमता हुआ पाया गया । उसे सेना के लिए रासबिहारी का संदेश लेकर म्यान मीर होना चाहिए था । २१ की क्रांतिके लिए बनाई गई योजना पूरी तरहसे असफल हो गई। रास बिहारी बोस ने १२ मई १९१५ को कोलकाता छोडा। वे राजा पी.एन.टी.टैगोर, रवींद्रनाथ टैगोर के दूर के रिश्तेदार बनकर जापान गए। कुछ इतिहासकारों के अनुसार रवींद्रनाथ टैगोर इस छद्मरूप को जानते थे। रास बिहारी २२ मई, १९१५ को सिंगापुर तथा १९१५ से १९१८ के बीच जून में टोकियो पहुंचे। वे एक भगोड़े के समान रहे, तथा अपना निवास १७ बार बदला। इसी कालावधि में वे गदर पार्टी के हेरंबलाल गुप्ता एवं भगवान सिंह से मिले। पहले महायुद्ध में जापान ब्रिटेन का मित्रराष्ट्र था, तथा उसने रासबिहारी एवं हेरंबलाल को अपराधी घोषित करने का प्रयास किया । हेरंबलाल अमेरिका भाग गए तथा रासबिहारी ने जापान का नागरिक बनकर अपनी आंखमिचौली समाप्त की। उसने सोमा परिवार की बेटी, टोसिको से विवाह किया। यह परिवार रासबिहारी के प्रयासों को सहानुभूति से देखता था । इस दंपति की दो संतानें थी, लड़का, मासाहिद एवं लड़की, टोसिको। मार्च १९२८ में २८ वर्षकी आयु में टोसिको की मृत्यु हो गई ।

रास बिहारी बोस ने जापानी भाषा सीख ली तथा वार्ताकार एवं लेखक बन गए। उन्होंने कई सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लिया तथा भारत का दृष्टिकोण स्पष्ट करने हेतु जापानी में कई पुस्तकें लिखीं। रास बिहारीके प्रयासोंके कारण टोकियो में २८ से ३० मार्च १९४२ के बीच एक सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें राजनैतिक विषयों पर चर्चा हुई । टोकियोमें २८ मार्च १९४२ को आयोजित सम्मेलन के पश्चात भारतीय स्वतंत्रता संगठन की स्थापना करने का निश्चय किया गया । कुछ दिन पश्चात सुभाषचंद्र बोस को उसका अध्यक्ष बनाना निश्चित हुआ। जापानियों द्वारा मलाया एवं बर्मा में पकडे गए भारतीय कैदियों को भारतीय स्वतंत्रता संगठन में तथा भारतीय राष्ट्रीय सेना में भरती होने हेतु प्रोत्साहित किया गया। रास बिहारी तथा कप्तान मोहन सिंह एवं सरदार प्रीतम सिंह के प्रयासोंके कारण १ सितंबर १९४२ को भारतीय राष्ट्रीय सेना की स्थापना हुई। वह आजाद हिंद फौज के नाम से भी जानी जाती थी। रास बिहारी बोस का जन्म २५ मई , १८८६ को पलरा-बिघाती (हुगली) देहात में हुआ था । १८८९ में जब उनकी माताजी की मृत्यु हुई, उस समय वे बहुत ही छोटे थे । अत: उनकी मौसी वामा सुंदरी ने उनका पालन पोषण किया। रासबिहारी बोस की आरंभिक पढ़ाई सुबालदाह में उनके दादाजी, कालीचरण की निगरानी में तथा महाविद्यालयीन शिक्षा डुप्लेक्स महाविद्यालय, चंदननगर में हुई । उस समय चंदननगर फ्रेंच आधिपत्य में था, इस कारण रास बिहारी ब्रिटिश तथा फ्रेंच दोनों संस्कृतियों से प्रभावित हुए। १७८९ की फ्रेंच राज्यक्रांति ने रास बिहारी पर गहरा प्रभाव छोडा। रास बिहारी एकाग्रता से अध्ययन करनेवाले छात्र नहीं थे । वे दिन में सपने देखते थे, क्रांतिके विचारों से उनका दिमाग जूझता रहता  रहता था। पढाईसे अधिक वे अपनी शारीरिक क्षमता बढ़ाने में रुचि रखते थे। उन्हीं दिनों रास बिहारी बोस के हाथों में क्रांतिकारी उपन्यास, ‘आनंद मठ’ आया, जो बंगाली उपन्यासकार, कवि तथा विचारक बंकिम चंद्र चटर्जी ने लिखा था । रास बिहारी ने प्रसिद्ध बंगाली कवि नवीन सेन का ‘प्लासीर युद्ध’ नामक देशभक्तिपूर्ण कविता संग्रह भी पढ़ा। उन्होंने समय-समयपर क्रांति से सम्बंधित अन्य पुस्तकें भी पढीं। सुरेंद्रनाथ बॅनर्जी एवं स्वामी विवेकानंद तथा अन्य क्रांतिकारियों के राष्ट्रवाद से ओतप्रोत  भाषण पढे। चंदननगर में उनके गुरु चारुचंद मौलिक थे, जिन्होंने रास बिहारी को क्रांतिकारी विचारों की ओर प्रेरित किया।

रासबिहारी अपनी महाविद्यालयीन शिक्षा पूरी न कर सके, क्योंकि उनके चाचा ने उनके लिए फोर्ट विलियम में एक नौकरी ढूंढ ली थी। अपने पिताजी की इच्छानुसार रासबिहारी शिमला के सरकारी प्रेस में (छापाखानामें) पदस्थापित होकर चले गए। वहां ‘कॉपी होल्डर’ के पद पर उनकी नियुक्ति की गई, उन्होंने बहुत शीघ्र अंग्रेजी में टंकण सीख लिया। कुछ दिनों के पश्चात वे कसौली की पास्चर संस्था में चले गए । किंतु इनमें से किसी भी कार्य में उनका मन नहीं लगा। अपने एक मित्र के सुझाव पर रासबिहारी बोस, राजा प्रमंथा नाथ टैगोर के यहां ट्यूशन देने देहरादून चले गए जो रवीन्द्र नाथ टैगोर के सम्बन्धी थे। वहीँ देहरादून फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट में उन्होंने मुन्शी की नौकरी कर ली, तथा शीघ्र ही वे बड़े बाबू बन गए। दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त होनेसे पूर्व, २१ जनवरी १९४५ को टोकियो में रास बिहारी बोसकी मृत्यु हुई। इस महान  भारतीय क्रांतिकारी का मृत शरीर ले जाने हेतु शाही गाडी भेजी गई थी। जापानी सरकार ने ‘सेकंड ऑर्डर ऑफ मेरिट ऑफ दी राइजिंग सन’, एक विदेशी को दी जानेवाली सर्वोच्च उपाधि से उन्हें सम्मानित किया। जापान के सम्राट ने उनके निधन पर उन्हें जो सम्मान दिया वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण था लेकिन भारत में आजादी के दीवाने अब बेगाने हो चले हैं। उनकी विरासत का सम्मान आज हमारे शासकों की प्राथमिकता में नहीं है। आज तो क्रिकेटरों, सिनेमा अभिनेताओं और व्यवसायियों का बोलबाला है।

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