नानाजी देशमुख और युवा शक्ति

डॉ. मनोज चतुर्वेदी

नानाजी ने युवाओं को संबोधित करते हुए लिखा है कि स्वतंत्रता संग्राम में युवाओं के अंदर शौर्य तथा पराक्रम निर्माण के लिए रचनात्मक, बौध्दिक तथा आंदोलनात्मक माध्यमों के द्वारा क्रांति की ज्वाला ने राष्ट्रभाव के विकास में महती भूमिका का संचार किया था। लेकिन ज्योंहि भारत आजाद हुआ। राजनीतिज्ञों का लक्ष्य भावी भारत का निर्माण न होकर सत्ताप्राप्ति मात्र रह गया जिसके कारण लालूवाद, मुलायमवाद, मायावतीवाद, जातिवाद तथा क्षेत्रीयतावाद रूपी सर्पों ने भारतीय जीवन-दर्शन द्वारा निर्धारित मूल्यों पर प्रहार किया है। मुस्लिम तुष्टीकरण के विरूध्द निक ाले जाने वाली रथ यात्राओं ने मुस्लिम वोटबैंक को और अधिक कीमती बना दिया है।

 

‘अतुल्य भारत’ के द्वारा बार-बार यह प्रचारित किया जा रहा है कि भारत समृध्द हो रहा है परंतु यहां का कम आदमी दुखी है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में कृषकों द्वारा आत्महत्या की प्रवृत्ति ने यह साबित कर दिया है कि भारत की प्रगति पर कहीं न कहीं खोट है। पर हां, कुछ भारतीय जरूर प्रगति कर रहे हैं।

 

विकास के पाश्चात्य मॉडल को हमने स्वीकार किया। हरेक देश की अपनी आबो हवा है। हर एक देश की अपनी सभ्यता-संस्कृति है। जिसके द्वारा वह देश उस आधार पर चलता है। अमेरिका में पूंजी आधारित अर्थव्यवस्था तो भारत में पर्याप्त मानव संसाधन। लेकिन इन संसाधनों का कुशल प्रबंधन न होना। उस बात की ओर इंगित करता है कि हमने ग्राम केंद्रित अर्थव्यवस्था को पूर्णरूपेण आत्मसात नही किया है। जब सत्ता व धन पर कुछ व्यक्तियों का एवं संस्थानों का कब्जा हो जाता है तो यह पूर्णरूपेण भारतीय राजनीति में व्यक्तिवाद को दर्शाता है। संघ जनसंघ ने व्यक्ति नहीं तत्व को महत्व दिया है।

 

नानाजी के उक्त पत्र में देखा जा सकता है कि अमेरिका द्वारा यह प्रचारित किया जाता है कि भारत विश्व में एक उभरती हुई महाशक्ति है। बेशक, भारत एक महाशक्ति, विश्वगुरू और आध्यात्मिक राष्ट्र था, है और रहेगा। लेकिन इसके वर्तमान स्वरूप देखकर हरेक देशभक्त चिंतित हो जाएगा।

 

उदारीकृत तथा भूमंडलीकृत भारत में पूंजीपतियों में वृध्दि पर ध्यान केंद्रित करते हुए कहते हैं कि 2004 में 12 पूंजीपतियों के स्थान पर 23 हो गए। अर्थात् दो गुना वृध्दि इस बात का प्रमाण है कि भारत में पूंजी का केंद्रीकरण होना भारतीय राष्ट्र के लिए अभिशाप है।

 

2010 तक भारत में पूंजीपतियों की संख्या 1 हजार से उपर है। आज नानाजी यदि होते तो क्या कहते? नानाजी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के ”एकात्म मानवदर्शन” पर जोर देते हुए कहा है कि मनुष्य मन शरीर, आत्मा एवं बुध्दि का समुच्चय हैं अतः समग्र विकास को केंद्र मानकर ही भारतीय जनता के सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में परिवर्तन किया जा सकता है। नानाजी ने बहुत दुःख के साथ लिखा है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पाश्चात् दीनदयाल उपाध्याय के दर्शन को उनके राजनीतिक साथियों एवं गैर राजनीतिक साथियों ने नहीं समझा अन्यथा वर्तमान भारत का कुछ अलग स्वरूप ही होता।

 

नानाजी ने अपने 7वें पत्र में लिखा है कि लोकतांत्रिक जीवन भारतीय जीवन का अविभाज्य अंग रहा है। भारतीय गांवों में ”पंच परमेश्वर”का विचार कोई आज का विचार नहीं है। यह तो युगों से चलते आया है। पर स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था की व्याख्या पाश्चात्य चश्में से देखने-लिखने की प्रवृत्ति ने बेड़ा गर्क किया है। आज कृषि को उद्योग का दर्जा देकर, भारतीय कृषि तथा कृषकों के साथ अत्याचार किया जा रहा है।

 

बड़े पैमाने पर कृषि उपकरणों का उत्पादन करके तथा वितरण द्वारा भारतीय कृषि पर कब्जा करने की प्रवृत्ति ने ग्रामीण संस्कृति को नष्ट किया है। नानाजी भारतीय कृषि के विकास के चरण को एक प्राकृतिक चरण मानते है तथा आपका कहना है कि रासायनिक आधार पर कृषि कार्य करना अप्राकृतिक है। नानाजी कहना है कि रासायनिक रूप से कृषि करने के कारण हमें निम्नांकित समस्याओं से गुजरना पड़ता है। * इससे पूंजीपतियों का विकास होता है। * यह कृषक स्वावलंबन के प्रतिकू ल है। * रासायनिक खाद, बीज व कीटनाशक कृषि की उर्वरा शक्ति को एकाएक बढ़ाकर नष्ट कर देते हैं। * यह मानव जाति के स्वास्थ्य के प्रतिकूल है। * रासायनिक तत्व भूमि के साथ-भूगर्भ जल को भी प्रभावित करते हैं। जिससे पेयजल दुषित होता है।

 

भारतीय सभ्यता-संस्कृति प्रकृति के शोषण दोहन तथा भोग का स्थान नहीं देती है। उसके लिए धरती माता, हिमालय देवता, गंगा माता तथा गाय माता है। यानि की समस्त प्रकृति को मातृस्वरूप मानने के विचारों ने भोग के स्थान पर त्याग को रखा। हम प्रकृति माता से उतना ही लेना चाहते है जितनी हमें आवश्यकता है।

 

भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार स्तंभ पशुधन है। पशुधन एवं कृषि का अन्योन्याश्रय संबंध है। गाय मात्र दुध ही नहीं देती, वह गोबर, गोमूत्र तथा दुध भी देती है। गाय के गोबर का धार्मिक महत्व के साथ अपना आर्थिक महत्व भी है। जिसे आज के नवशिक्षितों को ज्ञात नहीं है। गोमूत्र से बनाए गए किटनाशकों का अलग महत्व है। यह सस्ता, टिकाऊ व स्वदेशी है। यह कृत्रिम कीटनाशकों की तुलना में श्रेष्ठ होता है।

 

नानाजी ने ‘भारतमाता ग्राम वासिनी’ को चरितार्थ करते हुए लिखा है कि गोपालन भारतीय जीवन का अति आवश्यक एवं अविभाज्य अंग रहा है। गोपालक श्रीकृष्ण तथा भारतीय कृषि के प्रतीक बलराम का उदाहरण हर भारतीय के मन में बसा हुआ है। देश के युवाओं के लिए गोपालन, जैविक खाद एवं स्वावलंबन हेतु विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था ही आधार हो सकता है।

3 COMMENTS

  1. वह मनोज जी गुड क्या लिखा है मई आप की तारीफ करता हु. सुधाकर कुमार चौबे.

  2. मनोज जी बहुत गंभीर विषय को उठाया है बधाई परन्तु आप अपने इस आलेख में लगातार भटकते रहे है आप लालूवाद जातीवाद क्षेत्रवाद इत्यादि की सही व्याख्या नही कर पाये । प्रतीत होता है कि आप नाना का नाम लेकर अपनी व्यकिगत बातों रख रहे है उम्मीद है आप इतिहास का निष्पक्ष अध्ययन करे

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