सत्तालोभी दलबदलुओं से भी होशियार

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निर्मल रानी

मंत्रीपद हासिल करने की लालच में अथवा किसी अन्य तरीके से सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से या फिर किसी पार्टी का टिकट पाने के आश्वासन पर राजनैतिक नेताओं द्वारा दलबदल किए जाने की प्रवृति अब हमारे देश में लगभग आम होती जा रही है। ज़ाहिर है ऐसे दलबदलू नेताओं में सिद्धांत या विचारधारा नाम की कोई चीज़ नहीं होती। थाली के बैगन की तरह ऐसे नेता जब चाहते हैं और जिधर चाहते हैं ढुलक जाते हैं। वे केवल अपना निजी स्वार्थ व निजी हितों को ध्यान में रखकर ऐसे निर्णय लेते रहते हैं। ज़ाहिर है ऐसे दलबदलू नेताओं के निर्वाचन क्षेत्र की जनता चुनाव के बाद इनके दलबदल लेने पर स्वयं को ठगा हुआ ही महसूस करती है। हालांकि स्वर्गीय राजीव गांधी अपने शासनकाल में दलबदल विरोधी विधेयक इसी मकसद से लाए थे ताकि दलबदलू प्रवृति के नेताओं पर लगाम कसी जा सके। परंतु सत्तालोभी व स्वार्थी नेताओं ने इस कानून से बचने के भी तमाम उपाय तलाश कर लिए। इतना ही नहीं बल्कि इस $कानून के बनने के बाद ‘फुटकर’ दलबदल होने के बजाए बड़े पैमाने पर पार्टी विभाजन को भी बढ़ावा मिला।

बहरहाल पिछले दिनों हरियाणा जनहित कांग्रेस से जुड़े उन पांच दलबदलू विधायकों के विरुद्ध पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने सख्त कार्रवाई करते हुए अपना निर्णय सुनाया। अपने फैसले में माननीय उच्च न्यायालय ने हरियाणा विधानसभा अध्यक्ष को यह आदेश दिया कि वह आगामी 30 अप्रैल तक उन पांचों विधायकों की अयोग्यता से संबंधित याचिका के आधार पर कार्रवाई करें। गौरतलब है कि 2009 में राज्य में हुए विधानसभा चुनावों में विधायकगण सर्वश्री सतपाल सांगवान, विनोद भयाना, धर्मसिंह छोकर, जि़लेराम शर्मा व नरेंद्र सिंह अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों से हरियाणा जनहित कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में अपने-अपने चुनाव जीते थे। परंतु चुनाव परिणाम आते ही यह पांचों विधायक कांग्रेस पार्टी से जा मिले। और कांग्रेस के लिए बहुमत का रास्ता सा$फ कर दिया। इस संबंध में हजकां प्रमुख कुलदीप बिश्रोई ने हरियाणा विधानसभा स्पीकर के समक्ष एक याचिका दायर करते हुए इन दलबदलुओं के विरुद्ध कार्रवाई किए जाने की मांग की थी। जब कुलदीप बिश्रोई ने यह देखा कि विधानसभा अध्यक्ष द्वारा उनकी याचिका पर त्वरित कार्रवाई किए जाने के बजाए मामले को टालने व लटकाने का प्रयास किया जा रहा है तब बिश्रोई ने उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाते हुए अपनी याचिका दायर की थी।

माननीय उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में यह भी कहा है कि यह पांचों विधायक अब न तो कांग्रेस पार्टी में गिने जाएंगे न ही हरियाणा जनहित कांग्रेस में। बजाए इसके सदन में बैठने हेतु इनकी अलग व्यवस्था की जाएगी। यही नहीं बल्कि वे सदन की कार्रवाई में उपस्थित तो रह सकेंगे परंतु सदन की कार्रवाई में कोई हिस्सा नहीं ले सकेंगे। इसके अतिरिक्त उन पांचों विधायकों से सभी सरकारी पद व कार्यालय भी वापस ले लिए गए हैं। उच्च न्यायालय के इस आदेश के बाद हरियाणा सरकार पर संकट गहरा गया है। अब 90 विधायकों की विधानसभा सदन में कांग्रेस पार्टी के 46 से घटकर 41 सदस्य रह गए हैं। यहां एक बात यह भी याद करने लायक है कि हरियाणा जनहित कांग्रेस का गठन चौधरी भजनलाल द्वारा कांग्रेस पार्टी छोड़े जाने के बाद किया गया था। और चौधरी भजनलाल हरियाणा की राजनीति में उस महान राजनैतिक शख्शियत का नाम है जिन्होंने दलबदल का एक ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया था जिसकी दूसरी मिसाल फिलहाल देश में कहीं देखने को नहीं मिली। देश यह कभी नहीं भूलेगा जबकि चौधरी भजनलाल के नेतृत्व में चलने वाली जनता पार्टी की पूरी की पूरी सरकार रातों-रात कांग्रेस पार्टी की सरकार के रूप में परिवर्तित हो गई थी। गोया सरकार के पूरे मंत्रिमंडल ने ही ‘राजनैतिक’ धर्म परिवर्तन कर लिया था। दुर्भाग्यवश 2009 में चौधरी भजनलाल को स्वयं वह दु:खद दिन देखने पड़े जबकि उनकी अपनी बनाई हुई पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस के कुल 6 निर्वाचित विधायकों में से एक कुलदीप बिश्रोई को छोडक़र शेष सभी पांचों विधायक कांग्रेस पार्टी में जा मिले।

इसी प्रकार भारतीय राजनीति में एक नाम है चौधरी अजीत सिंह का। लगभग 70 वर्षीय अजीत सिंह देश के सुप्रसिद्ध किसान नेता तथा अपने समय के प्रभावी जाट नेता व स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चौधरी चरण सिंह के चश्मे-चिराग़ हैं। चौधरी चरण सिंह के जीवनकाल में अजीत सिंह ने कंप्यूटर इंजीनियर के रूप में विदेशों में पढ़ाई कर वहीं अपना समय गुज़ारा। परंतु चरणसिंह के देहांत के बाद अपने पिता की बहुमूल्य राजनैतिक विरासत को संभालने के लिए आप स्वदेश वापस आ गए। मुझे याद है कि जब चौधरी अजीत सिंह शुरु-शुरु में देश की राजनीति में सक्रिय हो रहे थे उस समय उनकी पहचान एक कंप्यूटर इंजीनियर होने के साथ-साथ एक तेज़ रफ्तार कार चलाने वाले नेता के रूप में भी बन रही थी। कहा जाता था कि दिल्ली की सडक़ों पर सबसे तेज़ रफ्तार चलने वाली कार अजीत सिंह की ही हो सकती है। आज चौधरी अजीतसिंह की वह शुरुआती पहचान तो अब धुंधली हो चुकी है जबकि अब वे एक सदाबहार केंद्रीय मंत्री के रूप में अधिक प्रचारित हो चुके हैं। चाहे दलबदल करने के कीर्तिमान स्थापित करने का मामला हो या अपना राजनैतिक संगठन यानी राष्ट्रीय लोकदल का गठन कर किसी भी विचारधारा के दल को अपने दल का समर्थन दिए जाने की बात हो। यदि अजीत सिंह के समक्ष केंद्रीय मंंत्रिमंडल में किसी अच्छे विभाग का प्रस्ताव आता है तो ‘छोटे चौधरी’ से मुश्किल से ही इंकार हो पाता है। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, विश्वनाथ प्रतापसिंह की गठबंधन सरकार अथवा नरसिम्हाराव की सरकार या वर्तमान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार या फिर इसके पूर्व राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार, छोटे चौधरी को आप हमेशा केंद्रीय मंत्री पद पर सुशोभित होता हुआ ही पाएंगे।

इसी प्रकार देश में जब भी विधानसभा या लोकसभा के चुनाव नज़दीक आते हैं उस समय ऐसे नेतागण दलबदल करने लग जाते हैं जिन्हें उनकी इच्छा व आकांक्षा के अनुरूप उनकी अपनी पार्टी ने अपना प्रत्याशी बनाने से इंकार कर दिया हो। ऐसे लोग मात्र पार्टी टिकट की खातिर अन्य दलों में झांकने लगते हैं तथा दूसरे दलों में पार्टी प्रत्याशी बनाए जाने की जुगत भिड़ाने लगते हैं। गोया ऐसे लोगों का भी कोई राजनैतिक सिद्धांत या ईमान-धर्म नहीं होता। ऐसे विचारहीन व सिद्धांतहीन नेताओं से कहीं बेहतर तो वे लोग हैं जोकि अपनी पार्टी से टिकट न मिल पाने की स्थिति में या तो खामोश घर बैठ जाते हैं अथवा पार्टी द्वारा दिए गए दूसरे संगठनात्मक कार्यों में लग जाते हैं। और यदि ऐसा भी नहीं कर पाते तो अपनी लोकप्रियता व क्षमता को देखते हुए स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ते हुए अपनी पूर्व पार्टी को अपनी हैसियत का परिचय कराने का प्रयास करते हैं। और यदि इससे भी अधिक बलशाली होते हैं तथा उन्हें अपने भारी जनाधार का एहसास रहता है तो ऐसे नेता अपना राजनैतिक संगठन खड़ा कर लेते हैं।

गठबंधन सरकारों के प्रचलन के वर्तमान दौर में विभिन्न राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनैतिक संगठनों द्वारा किसी संयुक्त घोषणापत्र के आधार पर किया जाने वाला चुनाव पूर्व गठबंधन भी का$फी हद तक स्वीकार किया जा सकता है। हालांकि चुनाव परिणाम आने के बाद इस स्थिति में भी मलाईदार मंत्रालय के बटवारे को लेकर का$फी खींचातानी व ब्लैकमेलिंग तक होती देखी जाती है। मगर हमारे देश की संवैधानिक व्यवस्था हमें गठबंधन सरकारों का दौर स्वीकार करने को मजबूर करती है। परंतु जो नेतागण चुनाव तो किसी अन्य पार्टी के प्रत्याशी के रूप में लड़ते हैं तथा चुनाव जीतने के पश्चात मात्र मंत्री बनने या किसी अन्य प्रतिष्ठित सरकारी पद को हथियाने के लिए किसी अन्य दल का दामन थाम लेते हैं, यह तो मतदाताओं के साथ सरासर धोखा व उनके साथ किया गया छल व अविश्वास है। चुनाव पूर्व टिकट हासिल करने के लिए किया जाने वाला दलबदल भी नैतिकपूर्ण व सिद्धांतवादी नेताओं को शोभा नहीं देता। लिहाज़ा देश की जनता को आगामी चुनावों में जहां भ्रष्टाचारी नेताओं से दूर व सचेत रहने की ज़रूरत है, वहीं सिद्धान्तहीन, सत्तालोभी व स्वार्थी प्रवृत्ति के दल बदलू नेताओं को भी सब$क सिखाने व उनसे खबरदार रहने की आवश्यकता है।

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