हरित न्यायालय और बढ़ते पर्यावरण मामले

प्रमोद भार्गव

हमारे देश में पर्यावरण विनाश और उसकी पृष्ठभूमि में मानव स्वास्थ पर पड़ने वाले असर से संबधित मामलों में लगातार इजाफा हो रहा हैं। जलवायु परिर्वतन, उधोगों से निकलने वाली क्लोरो फलोरो काँर्बन गैसें, जीएम बीज, कीटनाशक दवाएँ व आधुनिक विकास से उपजे संकट जैव विविधता को खत्म करते हुए पर्यावरण संकट को बढ़ावा दे रहे हैं। इन मुदद्रो से जुड़े मामलों को निपाटने के लिए अब देश में हरित न्यायालय खोले जाने की तैयारी शुरू हो गई हैं। इस हेतु अलग से कायदे कानूनों के तहत मुकादमों को निपटाने और दण्ड तय करने के प्रावधान सामने आएंगे। अभी आस्ट्र्रलिया और न्यूजीलैंड में हरित न्यायालय वजूद में हैं। इस नजरिये से दुनिया में भारत अब तीसरा ऐसा देश होगा जहां हरित न्यायाधिकरण गठित होंगे। इन न्यायाल्यों के परिणाम पर्यावरण और मूल रूप से दोषियों के विरूध्द दाण्डिक कार्यवाई करने में कितने सक्षम साबित होंगे फिलहाल यह तो काल के गर्भ में है। क्योंकि अब पर्यावरण हानियां व्यक्तिगत न रहकर देशी विदेशी बड़ी कंपनियों के हित साधन के रूप में देखने में आ रही हैं। जो देश के कायदे कानूनों की परवाह नहीं करती। दुसरी तरफ कानूनों में ऐसे पेंच डाले जा रहे हैं कि नुकसान की भरपाई के लिए अपीलकर्ता को सोचने को मजबूर होना पड़े। ऐसे में इन न्यायालयों की कोई निर्विवाद व कारगर भूमिका सामने आएगी, ऐसा फिलहाल लगता नहीं हैं।

हरित न्यायालय के चार खण्डपीठ देश के अलग अलग हिस्सों में हांगे। इन्हें वन एवं पर्यावरण मंत्रालय स्थापित करेगा। इन अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों को लेकर उठे सवाल पर मद्रास उच्च न्यायालय ने स्थगन दे दिया था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने रोक हटाकर इन अदालतों को खोले जाने का मार्ग प्रशस्त करते हुए फौरान न्यायाधिकरणों को वजूद में लाने की हिदायत दी है। फिलहाल पर्यावरण से जुड़े 5 हजार से भी ज्यादा मामले विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। निचली अदालत से प्रकारण का निराकरण होने पर इसकी अपील उच्च न्यायाल्य में ही की जा सकेगी। लेकिन अब इस दायरे में आने वाले सभी मामले हरित न्यायालयों को स्थानांतरित हो जाएंगे और नए मामलों की अर्ज्ाियां भी इन्हीं अदालतों में सुनवाई के लिए पेश होंगी। यह स्थिति उन लोगों के लिए कठिन हो जाएगी जो पर्यावरण संबंधी मुददों को पर्यावरण सरंक्षण और जनहित की टृष्टि को सामने रखकर लड़ रहे हैं। क्योकि फिलहाल सिर्फ 4 हरित अदालतों का गठन देश भर के लिए होना हैं। ऐसे में उन लोगों को तो सुविधा रहेगी जिन राज्यों में यह खण्डपीठ अस्तित्व में आएंगे। लेकिन दूसरे राज्य के लोगों को अपनी अर्जी इतनी दूर जाकर लगाना मुश्किल होगा। यह एक व्यवहारिक पहलू है, जिसे नजरंअदाज नहीं किया जा सकता। इस समस्या का हल भी तब तक निकलने वाला नहीं है, जब तक खण्डपीठों की स्थापना हरेक राज्य में न हो जाए।

इन अदालतों में मामला दायर करते वक्त फरियादी या समूह को होने वाली संभावित पर्यावरणीय हानि की 1 प्रतिशत धन राशि शुल्क के रुप में अदालत में जमा करनी होगी। तभी हर्जाने की अपील मंजूर होगी। इस बाव्त यदि यूनियन कार्बाहाइड से हर्जाना प्राप्त करने का मामला हरित न्यायाधिकरण में दायर किया जाए तो, लड़ाई लड़ रहे संगठन को दस करोड़ रूपय बतौर शुल्क जमा करने होंगे। इस तरह की विसंगति या जटिलिता किसी अन्य कानून में नहीं हैं। जाहिर है शुल्क की यह शर्त बहुराष्ट्र्रीय कंपनियों के हितों को ध्यान में रख कर नीति नियंताओं ने कुटिल चतुराई से गढ़ी है। वैसे भी मौजूदा दौर में केंद्र और राज्य सरकारें गरीब और लाचारों के हित पर सीधा कुठाराधात कर कही हैं। पाँस्को स्पात कंपनी को हाल ही में पर्यावरण व वन मंत्रालय ने लौह अयस्क उत्खनन की मंजूरी दी हैं। यह मंजूरी 4 हजार गरीबों की रोजी रोटी से वंचित करके दी गई हैं। खुद जयराम रमेश ने कुछ समय पहले पाँस्को के औचित्य पर सवाल खड़ा करते हुए कहा था कि कंपनी ने प्रभावित आदिवासियों के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की है। लेकिन अब जयराम पाँस्को के सुर में सुर मिलाते हुए पाँस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के सचिव श्िशिर महापत्र के खिलाफ कानूनी करवाई करने की वकालत कर रहे हैं।

कमोवेश ऐसा ही हश्र जैतापुर परमाणु बिजली परियोजना का विरोध करने वाले लोगों के साथ हो रहा है। जिसमें कि पर्यावरण हानि के चलते लोगों को बेघर व बेरोजगार कर देने के हालात साफ दिखाई दे रहे हैं। राज्य सरकार की शह पर पुलिस, आंदोलनकारियों के दमन पर उतर आई है। उनकी गिरफ्तारी कर उन्हें झूठे मुकदमों में फंसाने का सिलसिला शुरू हो गया है। राज्स सरकार यह भी झूठा दावा कर रही है कि अधिग्रहण के लिए प्रस्तावित जमीन बंजर है। जबकि यह इलाका धान उत्पादक क्षेत्रों में गिना जाता है। यहां के अलफांसो आम की किस्म तो देश विदेश में प्रसिध्द है। आम बगीचों के माली इन्हीं आमों को बेचकर पूरे साल की रोजी रोटी कमाते हैं। राज्य सरकार भी इस परमाणु परियोजना के सामने आने से पहले पूरे अमराई क्षेत्र को बागों का दर्जा दे वुकी है। ये लोग यदि अपने पर्यावरणीय नुकसान के मुआवजे की मांग रखने हरित अदालत जाएंगे तो शायद अदालत की फीस जमा करने लायक धन राश्ी भी नहीं जुटा पाएंगे। जबकि ये लाचार लोग न तो पर्यावरण बिगाड़ने वाले लोगों की कतार में शामिल हैं, न ही प्रदूषण फैलाने वालों में और न ही प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध देहन कर उसका उपभोग करने वाले लोग हैं जबकि आजीविका इनकी छीनी जा रही है। इनका स्वास्थ्य बिगाड़ने के भी भरपूर इतंजाम किए जा रहे हैं।

जीएम बीजों और कीटनाशकों के फसलों पर छिड़काव से भी बड़ी मात्रा में इनसे जुड़े लोगों की आजीविका को हानि और खेतों को क्षति पहुंच रही है। दुनिया के पर्यावरण विदो और कृषि वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है की जीएम बीजों से उत्पादित फसलों को आहार बनाने से मानव समुदायों में विकलागंता व कैंसर के लक्षण सामने आ रहे हैं। खेतों को बंजर बना देने वाले खरपतवार खेत व नदी नालों का वजूद खत्म करने पर उतारू हो गए हैं। बाजार में पहुंच बनाकर मोंसेटों जीएम बीज कंपनी ने 28 देशों के खेतों को बेकाबू हो जाने वाले खरपतवारों में बदल दिया हैं। यही नहीं जीएम बीज जैव विविधता को भी खत्म करने का करण बन रहे हैं। भारत की अनूठी, भौगोलिक व जलवायु की स्थिति के चलते हमारे यहां फलों की करीब 375 किस्में हैं धान की 60 हजार किस्में, सब्जियों की लगभग 280 किस्में, कंदमूल की 80 किस्में और मेवों व फूल बीजों की ऐसी 60 किस्में हैं जो स्वास्थ लाभ हेतु दवा के रूप में इस्तेमाल होते हैं। इन पर्यावणीय हानियों के मुकदमें एक प्रतिशत फीस की शर्त के चलते एक तो हरित अदालतों में दायर होना ही मुश्किल हैं और यदि दायर हो भी जाते हैं तो अदालतें वास्तविक हानि का मुआवजा फरीक को दिला भी पाएगीं अथवा नहीं यह कहना फिलहाल जल्दबाजी होगा।

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