सरकारी बैंकों के बढ़ते एनपीए की जमीनी हकीकत

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सतीश सिंह

वार्षिक लेखाबंदी के निकट आते ही खासकर के मार्च के महीने में सरकारी बैंकों में गैर निष्पादित परिसंपतित (एनपीए) के स्तर को कम करने की कवायद शुरू हो जाती है। अधिकारी गली, मोहल्ले व गांव की धूल फांकने लगते हैं। प्रशासनिक व प्रधान कार्यालयों में मीटिंगों का दौर आरंभ हो जाता है। एनपीए के स्तर को कम करने के लिए रोज नर्इ-नर्इ योजनाएँ बनार्इ जाती हैं, फिर भी परिणाम सिफर रहता है। साल में एक बार रस्म अदायगी करने से सकारात्मक परिणाम की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है?

पहले तो निजी बैंक सिर्फ बिजनेस और कारपोरेट कल्चर के मामले में ही सरकारी बैंकों से बाजी मार रहे थे, अब उन्होंने एनपीए के प्रबंधन के फ्रंट पर भी सरकारी बैंकों को पटखनी दे दी है।

गौरतलब है कि यह तथ्य बैंकों के कुल एनपीए की समीक्षा के दौरान उभर कर सामने आया। समीक्षा करने वालों में भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर के.सी.चक्रवर्ती (बैंकिंग क्षेत्र की समीक्षा के प्रभारी) और आनंद सिन्हा (बैंकिंग परिचालन और विकास के प्रभारी) शामिल थे।

जानकारों का मानना है कि 2008 के वित्तीय संकट के बाद से निजी और विदेशी बैंक ऋण वितरित करने में लगातार सावधानी बरत रहे हैं और साथ ही एनपीए प्रबंधन भी कुशलतापूर्वक कर रहे हैं।

उदाहरण के तौर पर सिटी बैंक का शुद्ध गैर निष्पादित ऋण अनुपात 2008-09 के 2.6 फीसदी से घटकर 2010-11 में 1.2 फीसदी हो गया, वहीं स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक का 2010-11 के तीन तिमाहियों में शुद्ध गैर निष्पादित ऋण 514 करोड़ से कम होकर 132 करोड़ हो गया।

गौरतलब है कि देश के चोटी के तीन निजी बैंकों मसलन, एक्सिस बैंक, एचडीएफसी बैंक एवं आर्इसीआर्इसीआर्इ बैंक ने भी 2008-09 के मुकाबले 2010-11 में अपना एनपीए प्रबंधन सरकारी बैंकों से बेहतर किया है।

सरकारी बैंक, जैसे, भारतीय स्टेट बैंक, पंजाब नेशनल बैंक और बैंक आफ बड़ौदा की सिथति एनपीए के मामले में 2008-09 के मुकाबले 2010-11 में बदतर हुर्इ है।

सिर्फ भारतीय स्टेट बैंक का एनपीए का स्तर बढ़कर तीसरे तिमाही में 40000 हजार करोड़ रुपया हो गया है, जो अब तक का अधिकतम स्तर है। इस खतरनाक सिथति के बावजूद भारतीय स्टेट बैंक के अध्यक्ष श्री प्रतीप चौधरी का मानना है कि अभी भी पानी सिर के ऊपर से नहीं गुजरा है, जबकि यहाँ उलटबांसी यह कि अपने बयान के ठीक विपरीत श्री चौधरी अंदर से काफी डरे हुए हैं।

श्री चौधरी के बयान के बरक्स में मजेदार बात यह कि 2011 की दूसरी तिमाही में आनन-फानन भारतीय स्टेट बैंक के सभी स्थानीय प्रधान कार्यालयों में सहायक महाप्रबंधक की अगुआर्इ में लेखा अनुसरण केन्द्र (एटीसी) नामक एक नये विभाग का सृजन किया गया। इस विभाग का मूल कार्य संभावित एनपीए होने वाले या एनपीए हो चुके खातों पर सूक्ष्म निगाह रखना और टेलीफोन के माध्यम से रिकवरी के लिए सतत प्रयास करना है, जिसकी मानीटियरिंग सर्कल के मुख्य महाप्रबंधक व्यक्तिगत तौर पर करते हैं।

श्री चौधरी के अलावा इंडियन ओवरसीज बैंक के अध्यक्ष एम.नरेन्द्र भी सरकारी बैंकों का बचाव करते हुए कहते हैं कि बढ़ते हुए एनपीए का मूल कारण बढ़ता हुआ ब्याज दर और सिस्टम में गलत तरीके से ऋण खातों को खोला जाना है। श्री नरेन्द्र के कथन को कुछ हद तक सही माना जा सकता है, क्योंकि 19 महीनों में भारतीय रिजर्व बैंक ने 13 बार ब्याज दरों को बढ़ाया है।

बढ़ते एनपीए के कारण, जिस तरह से बैंकों के शुद्ध लाभ पर दबाव पड़ रहा है, के संदर्भ में यूनियन बैंक आफ इंडिया के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक श्री एम.वी.नायर का मानना है कि सरकारी बैंकों ने संभावित एनपीए को ध्यान में रखते हुए विगत दो तिमाही में सावधानी के तौर पर ज्यादा प्रोविजन किया है, जिसकी वजह से उनके लाभ में गुणात्मक कमी आर्इ है।

ज्ञातव्य है कि सरकारी बैंकों का कर्ज टेक्सटार्इल, स्टील, एयरलाइन्स, टेलीकाम और मार्इनिंग जैसे क्षेत्रों में एनपीए में तब्दील ज्यादा मात्रा में हो रहा है। मसलन, एयरलाइन्स क्षेत्र में ही 77000 हजार करोड़रुपये के कर्ज एनपीए हुए हैं। इसमें 67000 करोड़ रुपया एयर इंडिया का है और 10000 करोड़ रुपया किंगफिशर का। टेलीकाम क्षेत्र में केवल जीटीएल का ही 17000 करोड़ रुपये का कर्ज एनपीए हुआ है।

हालात पर काबू पाने के लिए इन क्षेत्रों में अप्रैल, 2011से लेकर दिसबंर, 2011 तक कुल 50250 करोड़ रुपये का ऋण कारपोरेट डेट रिस्ट्रक्चरिंग (सीडीआर) के लिए अनुशंसित किया गया। वर्तमान में सीडीआर को अनुशंसित की गर्इ कुल ऋण राशि एक लाख तैतालीस हजार करोड़ रुपया है। उल्लेखनीय है कि सीडीआर में जाने के बाद कारपोरेटस के ऋण खातों पर रियायती दर पर ब्याज प्रभारित किया जाता है और ऋण की समयावधि भी बढ़ा दी जाती है, ताकि आसानी से किस्त चुकाया जा सके। इस प्रकि्रया को प्रत्यक्ष रुप से बेल आऊट तो नहीं कह सकते हैं, लेकिन इसका स्वरुप काफी हद तक उससे मिलता-जुलता है।

अब तक एनपीए से अछूता रहने वाला कृषि क्षेत्र भी अब एनपीए के भंवर में बुरी तरीके से फंस चुका है। भारतीय रिजर्व बैंक और वित मंत्रालय के पास उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार सरकारी बैंकों के एनपीए में कृषि ऋण का योगदान लगातार बढ़ता जा रहा है।

भारतीय स्टेट बैंक के दिसबंर तिमाही के अंत में उनके कुल एनपीए यानि 40000 करोड़ रुपये में से कृषि क्षेत्र का हिस्सा 7500 हजार करोड़ रुपये का था।

सभी सरकारी बैंकों की बात करें तो वित वर्ष 2010-11 में बढ़े हुए एनपीए में 44 फीसदी हिस्सा केवल कृषि क्षेत्र का है।

नि:संदेह कृषि ऋण राहतमाफी योजना, 2008 ने सरकारी बैंकों की कमर तोड़ने में अपनी महत्ती भूमिका निभार्इ है, किंतु केवल इसे ही बढ़ते हुए एनपीए का कारण नहीं माना जा सकता है। कृषि ऋणों की स्वीकृति के लिए, जिस तरह से पूरे देश में खुलेआम 10-15 फीसदी रिश्वत गरीब किसानों से लिया जाता है। वह निश्चित रुप से बैंक अधिकारियों के नैतिक गिरावट का परिचायक है। हाल के दिनों में कृषि ऋण प्रपोजलों की गुणवत्ता में भी गिरावट देखने में आया है। 2008 की ऋण माफी योजना के लागु होने के बाद से किसान भी कर्ज चुकाने से परहेज करने लगे हैं। जानबूझकर चूक करने वाले किसानों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है।

सरकारी बैंकों के कृषि क्षेत्र में बढ़ते हुए एनपीए से वित मंत्रालय भी चिंतित है। हो सकता है कि जल्द ही कृषि से संबंधित ऋण देने के बैंकिंग नियमों व उसकी सरंचना में बदलाव लाया जाए।

वित मंत्रालय की मानें तो कृषि ऋण के एनपीए होने का एक महत्वपूर्ण कारण, कृषि कर्ज को डिमांड लोन माना जाना है। इस नियम के तहत, ऋण स्वीकृति और उसकी निकासी के पश्चात, ऋण राशि को, फसल बेचने के बाद ही उसे ब्याज सहित जमा किया जाता है। इस तरह इस पूरी कवायद में तकरीबन 6 महीने तक ऋण खाते में न तो ब्याज जमा हो पाता है और न ही किस्त। फलस्वरुप ऋण खाता सिस्टम में एनपीए हो जाता है।

इस कमी को दूर करने के लिए वित मंत्रालय का प्रस्ताव है कि किसानों को दिये जाने वाले ऋण को डिमांड लोन की बजाए कैश क्रेडिट माना जाए।

इस स्कीम के अंतगर्त किसान कभी भी ऋण खाते में पैसे जमा कर सकते हैं और जरुरत के मुताबिक लिमिट के अंदर उसका आहरण भी कर सकते हैं। जाहिर है, इस नियम की वजह से किसानों पर आहरित की गर्इ पूरी राशि को ब्याज सहित एकमुश्त ऋण खाता में जमा करने का दवाब नहीं रहेगा।

सरकार जिस तरह से कारपोरेटस और किसानों को कर्ज देने और कर्ज माफी के द्वारा लाभ पहुँचा रही है, उससे एनपीए के स्तर का बढ़ना लाजिमी ही है। लिहाजा, एनपीए के मुददे पर निजी और विदेशी बैंकों से सरकारी बैंकों की तुलना करना कुछ सीमा तक बेमानी है।

इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक ने जाँच में यह पाया कि ऐकिसस बैंक, एचडीएफसी बैंक और आर्इसीआर्इसीआर्इ बैंक के द्वारा बताया जा रहा, 5000 हजार करोड़ रुपये का कृषि ऋण, वास्तव में कृषि ऋण था ही नहीं। इस घटना से यह साबित होता है कि निजी बैंक फायदे के लिए किसी भी स्तर को पार कर सकते हैं।

इस में दो राय नहीं है कि सरकारी बैंकों का एनपीए स्तर लगातार बढ़ रहा है। इस संदर्भ में पड़ताल से यह भी स्पष्ट है कि सरकारी बैंकों के द्वारा घोषित किया गया एनपीए लेवल हाथी के दांत के समान है। विडम्बना ही है कि जानबूझकर छुपाये गये एनपीए के स्तर का आंकड़ा स्वयं सरकारी बैंकों के पास भी नहीं है।

भारत में लेखा अंकेक्षकों की प्रबंधन की प्रक्रिया बहुत ही सरल है। सभी को खरीदा एवं बेचा जा सकता है। दरअसल आज र्इमानदारी से सस्ता बेर्इमानी हो गया है। ऐसे में, एनपीए के सही स्तर का पता कैसे लग सकता है? दूसरा महत्वपूर्ण कारण, सरकारी बैंकों में ऋण खातों का प्रबंधन का, सिस्टम में कमजोर होना है। कर्मचारियों व अधिकारियों के बीच जाब नालेज की भारी कमी है। कारपोरेट ऋण प्रस्तावों को न तो सही तरीके से आकलित किया जाता है और न ही ऋण स्वीकृति के बाद उनका फालोअप। दूसरे शब्दों में कहें तो मानव संसाधन की गुणवत्ता के मामले में सरकारी बैंकों की हालत बहुत ही पतली है।

विगत कुछ वर्षों में ठेके पर काम करवाने का चलन भी सरकारी बैंकों में बढ़ा है। अनुबंध पर कर्मचारियों व अधिकारियों की नियुकित की जा रही है, जिनकी सामान्यत: कोर्इ जिम्मेदारी नहीं होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में पैसा का स्वाद लगते ही बिजनेस फेसिलिटेटर (बीएफ) को दलाल बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है।

इस तरह की अव्यवस्था व अराजकता युक्त माहौल में सरकारी बैंकों के लिए एनपीए से निजात पाना बेहद ही मुश्किल है।

 

 

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