पेरिस में हुआ हमला मज़हबी उन्माद न कहा जाए तो इसे और क्या कहा जाएगा? इस्लाम के नाम पर विश्व भर में इस प्रकार भय और आतंक के प्रसार की हर ऐसी घटना की हर बार ‘सीमित और स्थानीय स्तर पर कुछ बिगड़े दिमाग़ लोगों का कारनामा’ मान कर उपेक्षा नहीं की जा सकती. ऎसी घटनाओं की कड़ी का हर नया दौर कट्टरपंथी इस्लामवादियों के द्वारा इसके अमानवीय पक्ष को कहीं अधिक शक्ति के साथ सामने लाता जा रहा है.
पश्चिम के लोकतंत्रवादी देश व्यक्ति और उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देते रह जाते हैं. भारत के सेकुलरवादी ऎसी घटनाओं में मारे जाने वाले निरपराधों के परिजनों के लिए सहानुभूति के दो शब्द भी कहने से कतराने लगते हैं. दुर्भाग्य यह है कि जो लोग इस्लाम के नाम को बदनामी से बचाने की कोशिश में इस्लाम के शांतिप्रिय मज़हब होने की दुहाई देते सुनाई पड़ते हैं वे स्वयं उनके अपनों को ही इस विनाशकारी मार्ग पर आगे बढ़ने से रोकने में प्रकटत: इसलिए असमर्थ पाते हैं क्योंकि कहीं उन्हें भी काफिर करार न दे दिया जाए.
ऐसी घटनाएं निरंतर वृद्धि पर हैं. इनसे न पश्चिम सुरक्षित है और न ही पूर्व. यह मानवता पर दानवता के और प्रखर होते जाते घोर घातक प्रहारों की टंकार मात्र है. सभ्यता और संस्कृतियों के बीच जोर ज़बरदस्ती थोपे जाने वाले महासंघर्ष के ऐसे पूर्व संकेत हैं जिनकी इस समय किसी भी समाज के द्वारा की जाने वाली उपेक्षा उस पर ही नहीं अपितु समस्त विश्व पर भारी पड़ेगी. इसलिए सबको इस पर गम्भीरता के साथ ध्यान देना होगा कि इस समय की नितांत आवश्यकता क्या है. अपने अपने राजनीतिक, सामाजिक और मज़हबी पूर्वाग्रह एक तरफ करके सभी समर्थ राष्ट्र और विश्व भर के बुद्धिसम्पन्न लोग समस्त विश्व मानव समाज के हित और रक्षा के लिए एकजुट रणनीति बनाने की युक्ति करें. अन्यथा, विश्व को जिस विनाश की दिशा में बरबस धकेला जा रहा है उसे रोका जा सकना असम्भव हो जायगा. अंतत: इसका क्या परिणाम होगा उसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं है. हर बार मात्र मत, वक्तव्यों, भाषणों और बहसों से इस मंडराते ख़तरे से मुक्ति नहीं पाई जा सकेगी.
Vनरेशजी,आपकी चिंता स्वाभाविक है, हिटलर ,मुसोलिनी,रावण, सादात, और अन्यान्य तानाशाह या निरंकुश आखिर अपने ही जाल मैं नष्ट हो गए, किन्तु आजकल जो आतंकवाद पनप रहा है वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक है। नक्सलवादी,माओवादी, सोमालिया के समुद्री डाकू भी आतंकवादी है/मैं इनकी तरफदारी नहीं कर रहा हूँ किन्तु हम कही न कही इनसे जुड़े हैं या नही. ये भी किसी के पति/भाई/बेटे. पिता हैं या नही. क्या इन्हे भूख नहीं लगती?फिर ऐसी क्या मजबूरी है की ये ऐसे भयानक और क्रूर रस्ते पर चल पड़े हैं?इन्हे हथियारों के जरीखे कौन सा राष्ट्र मुहैय्या करा रहा है?अफगानिस्तान मैं रूस से लड़ने के लिए/सीरिया मैं बशर से लड़ने के लिए हथियार किसने दिए?पूरी दुनिया का चौधरी कौन बना हुआ है?एक बार एक बार शेष विष्व तै कर ले की हम इस चौधरी के भड़कावे मैं नहीं आएंगे /इस से कोई सहायता नहीं लेंगे तो आतंकवाद अपने आप समाप्त. यह आतंकवाद धार्मिक नहीं है। आसानी से हथियार मिलने के कारन है, वजीरिस्तान (पाक)मैं हथियार ऐसे मिलते हैं जैसे मेले ठेलों मैंखिलौने या मिठाइयां मिलती हैं. खरीदने के पाहिले आप इन्हे चलकर देख ले,इन हथियारों की पूर्ति कौन करता है/हम रोग की जड़ मैं जाएँ तो ठीक होगा,
सहमत हूँ लेकिन इस समय यह कोई त्वरित समाधान का मार्ग नहीं मानता. वस्तुत: जड़ में तो एक ऐसी जड़ सोच है जिसे जब तक बदल सकने वाले स्वयम नहीं बदलेंगे इस भयंकर रोग का कोई समाधान सम्भव नहीं है. तदर्थ कौन प्रयास कर रहा है? कोई भी नहीं. हथियार बेचने वाळूं की कमी नहीं इसलिए क्योंकि हथियार खरीदने वालों के पास खरीदने के लिए धन की कमी है और न मज़हबी उन्माद से सतत-जनित सिद्ध संकल्प की.
सहमत हूँ लेकिन इस समय यह कोई त्वरित समाधान का मार्ग नहीं मानता. वस्तुत: जड़ में तो एक ऐसी जड़ सोच है जिसे जब तक बदल सकने वाले स्वयम नहीं बदलेंगे इस भयंकर रोग का कोई समाधान सम्भव नहीं है. तदर्थ कौन प्रयास कर रहा है? कोई भी नहीं. हथियार बेचने वालों कोई कमी नहीं इसलिए क्योंकि हथियार खरीदने वालों के पास खरीदने के लिए न तो धन की कमी है और न मज़हबी उन्माद से सतत-जनित सिद्ध संकल्प की.
विद्वान श्री आर.सिंह जैसे बुद्धिजीवियों के लीपापोती वाले वक्तव्यों के कारण ही इन आतंकियों के होंसले बढ़ते हैं. pk का विरोध बमों और विस्फोटकों से नहीं किया जा रहा है.पूरी तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत शांतिपूर्ण ढंग से विरोध हो रहा है.कहीं कहीं बहुत हुआ तो उसके पोस्टर फाड़ दिए या सिनेमा हाल पर हल्ला गुल्ला कर दिया.बस!इसकी तुलना पेरिस हमले से करके सिंह साहब क्या साबित करना चाहते हैं?
इस्लामिक कट्टरवादिता उसके अनुयाइयों को ही बर्बाद कर देगी आखिर कब तक कोई देश या विश्व इसे सहन करेगा ,कट्टरवादी अन्य धर्मों में भी हैं पर इनकी कट्टरवादिता इनके विनाश का कारण बन जाएगी। बहुत पहले कहीं भविष्वाणी के रूप पढ़ा था कि अगला विश्वयुद्ध इस्लाम क्रिश्चिनयत के बीच लड़ा जायेगा। कभी विश्वास न की जाने वाली इस बात पर अब फिर यह सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि क्या सचमुच ऐसा हो सकता है ?हमारे सेकुलरवादी तो अभी मुहं डकए बैठे हैं ,उनकी क्या प्रतिक्रिया है वह संवेदना के रूप में भी अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे कि कहीं उनका वोटबैंक न खिसक जाये
कट्टर पंथी इंसान नहीं होते.न उनका कोई धर्म होता है और न मजहब. अगर वास्तविक रूप में देखा जाये,तो कट्टरपंथ का जन्म प्रतिक्रिया स्वरूप होता है,पर आखिर यह प्रतिक्रिया होती क्यों है?आम इंसान इनके सामने इतना निर्बल क्यों सिद्ध होता है? जब तक एक कट्टर पंथी और दूसरे कट्टरपंथी में अंतर समझा जाता रहेगा,आतंकवादियों को अच्छे और बुरे की श्रेणी में बाँटा जाता रहेगा,तब तक इसको समाप्त नहीं किया जा सकता. हमारे देश में जो कुछ फिल्म पीके के विरुद्ध किया जा रहा है, क्या उसी की परिणति या भयानक रूप पेरिस में हुआ हमला नहीं है?
आप कहना क्या चाहते हैं आर सिंह जी ? “पी के” का पेरिस से क्या कनेक्सन है ? पेरिस में क्या हुआ ये दुनिया ने देखा है। और ये क्या शिगूफा आप सरीखे सो काल्ड सेकुलर छोड़ते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता है। पूरी दुनिया ने और अपने भी देखा होगा कट्टरपंथ का क्या धर्म होता है। क्या कारण है कि पूरी दुनिया में सिर्फ एक ही समुदाय को हर धर्म और मजहब से परेशानी है। शुतुरमुर्गी प्रवृति सभी के लिए खतरनाक होती है।
दुनिया कट्टर पंथियों से परेशान है.मैं मानता हूँ कि मुसलमानों में कट्टर पंथ अभी चरम सीमा पर है,,पर मैं किसी तरह के कट्टर पंथ को मानवता के लिए. इंसानियत के लिए खतरनाक समझता हूँ मेरी यह टिप्पणी इससे ज्यादा कुछ नहीं कहती.पीके के विरोध को पूर्ण रूप से नाजायज नहीं ठहराया जा सकता,क्योंकि सब एक ही.तरह का विचार रखे यह संभव नहीं.पर उसके लिए कुछ लोगों को यह हक़ नहीं दिया जा सकता कि वे तोड़ फोड़ ,मारपीट और दंगा फसाद करें. इन भावनाओं की परिकाष्ठा ही पेरिस के ,या अन्य जगहों पर किये गए घातक हमलों में दिखती है.