गुजरात की आंधी में मारवाड़ का ‘गांधी’

निरंजन परिहार-

अशोक गहलोत एक बार फिर राजनीति की रपटीली राह पर मजबूत कदमों से आगे बढ़ते दिख रहे हैं। कांग्रेस में उन्हें महासचिव बनाया है। सहयोग के लिए चार सचिव देकर गुजरात कांग्रेस का प्रभारी भी बनाया गया है। गहलोत अनुभवी हैं, ताकतवर भी हैं और मजबूत जनाधारवाले भी। दो बार मुख्यमंत्री, तीन बार केंद्र में मंत्री, चार बार विधायक और पांच बार सांसद बने गहलोत की बराबरी का कोई और नेता राजस्थान कांग्रेस में तो नहीं है। वरिष्ठता के मामले में गहलोत इतने उंचे हैं कि राजस्थान में मुख्यमंत्री बनने का सपना पालनेवाले बाकी कांग्रेसी नेता अपने पंजों पर खड़े होकर भी अगर हाथ ऊपर कर लें, तो भी गहलोत के कद की बराबरी नहीं कर सकते। पता नहीं फिर भी, राजनीति में कल के जन्मे लोग तक गहलोत के मुकाबले खुद के ताकतवर होने का मुगालता कैसे पाल लेते हैं, यह अपनी राजनीतिक समझ से परे हैं।

गुजरात में तो गहलोत को खैर पहली बार अपनी ताकत दिखाने का अवसर मिला है। लेकिन सबसे पहले सन 1998 में, वे जब पहली बार मुख्यमंत्री बने थे, तो प्रदेश की राजनीति में प्रभावशाली ब्राह्मण नेताओं और ताकतवर जाटों का बहुत जोर था। पर, करीब एक दशक में ही अपनी ताकत,अपने तेवर और अपनी क्षमताओं के बूते पर सभी को दरकिनार करते हुए गहलोत शिखर के नेता बन गए। इस तथ्य को भी सभी जानते ही हैं कि उनके पिता बाबू लक्षमण सिंह पेशवर जादूगर थे, और जवानी में कदम रखने से पहले गहलोत ने भी पिता के इस पेशे में हाथ आजमाया। बाद में उन्होंने खाद – बीज का व्यापार भी किया और फिर बाकायदा, कानून की डिग्री लेकर वकील भी बने। लेकिन काला कोट पहनने के बजाय झक्क धवल कुर्ता पहनकर बिना खाद और बीज के ही राजनीति में जमकर फसलें और उन फसलों की कई कई नस्लें भी पैदा की। और, इसे किसी जादू से कम भी नहीं माना जा सकता कि ब्राह्मणों, राजपूतों और जाटों के जंजाल में फंसी राजस्थान की राजनीति को आजाद कराके गहलोत ने उसे ओबीसी के आंगन में खड़ा कर दिया। इसी के साथ राजस्थान में गहलोत ने प्रदेश में सर्वाधिक शक्तिशाली और सबसे बड़े जनाधारवाले नेता के रूप में में खुद को स्थापित भी कर लिया। जब वे पहली बार जोधपुर से सांसद बने थे, तो 1980 में मारवाड़ में परसराम मदेरणा, रामनिवास मिर्धा और नाथूराम मिर्धा बहुत बड़े जाट नेता थे। उधर, खेतसिंह राठौड़ और नरेंद्र सिंह भाटी राजपूतों का दमदार नेतृत्व कर रहे थे। और यह घोषित सत्य है कि ये सारे के सारे नेता हर पल गहलोत को निपटाने के सपने पालते रहते थे। लेकिन गहलोत को निपटाने वाले वक्त के साथ खुद ही निपट गए। और सबके सपनों के महलों को ध्वस्त करते हुए गहलोत सबसे पहले इंदिरा गांधी की सरकार में मंत्री बने। फिर राजीव गांधी के साथ भी मंत्री रहे और बाद में नरसिंह राव के नेतृत्व में बनी सरकार में भी मंत्री बने। तब से ही वे ताकतवर हैं। यह सर्वसामान्य सथ्य है कि राजस्थान की कांग्रेसी राजनीति में अशोक गहलोत ही अकेले सरदार भी हैं और असरदार भी।

कायदे से देखें, सन 1952 में जन्मे गहलोत का कुल पांच दशक का राजनीतिक जीवन है। छात्र राजनीति से शुरूआत करके वे शिखर तक पहुंचे हैं। जो नेता अपनी पार्टी के लिए समर्पित भाव के साथ इतने सारे सालों से, इतने सारे पदों पर, हमेशा मजबूती से डटा रहा हो, उसके लिए कोई भी जिम्मेदारी बड़ी नहीं होती। सो, राजनीतिक अनुभव और क्षमताओं के हिसाब से किसी प्रदेश का प्रभारी बनना गहलोत के लिए कोई बहुत चुनौतियों से भरा काम नहीं होता, अगर वे गुजरात के प्रभारी नहीं होते। क्योंकि बीते 15 सालों में गुजरात कांग्रेस के हाथ से हर बार फिसलता रहा है। और ज्यादा सही कहें, तो देश के किसी भी अन्य प्रदेश के मुकाबले गुजरात में चुनाव जीतना कांग्रेस के लिए सबसे लगभग असंभव सा है। क्योंकि एक तो गुजरात पहले से ही कांग्रेस के लिए कोई बहुत फायदेमंद नहीं रहा और ऊपर से गुजरात अब तक के सबसे क्षमतावान प्रधानमंत्रियों में से एक नरेंद्र मोदी और अब तक के सबसे पराक्रमी बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का गृह प्रदेश भी है।

दिसंबर से पहले गुजरात में चुनाव होने हैं। लेकिन समय बहुत कम है। थोड़ा सा जमीनी स्तर पर जाकर देखें, तो गहलोत के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि गुजरात के कई कई गांवों में न तो कांग्रेस का कोई नाम लेनेवाला है और न ही कोई शुभचिंतक। फिर, प्रदेश में कांग्रेस का कोई भी ऐसा नेता नहीं है, जिसके नाम से कहीं पर भी एक हजार लोग भी इकट्ठे किए जा सकें। गुजरात मं तो राहुल गांधी को भी रोड़ शो के जरिए लोगों की संख्या ज्यादा दिखाने का नुस्खा अपनाना पड़ता है। हालांकि गुजरात के सारे कांग्रेसी नेता थोड़े बहुत जनाधारवाले जरूर हैं, लेकिन पूरे प्रदेश में कांग्रेस के पक्ष में माहौल खड़ा कर दे, यह क्षमता किसी में नहीं है। जिस गुजरात में कांग्रेस मरणासन्न अवस्था में हैं, वहां गहलोत के लिए अपनी पार्टी को चुनाव जितवाना तो दूर बल्कि कांग्रेस संगठन को फिर से खड़ा करना भी जिस एक अलग किस्म की चुनौती है, उस पर विस्तार से बात कभी और करेंगे।

फिलहाल, वैसे तो देश में अहमद पटेल कांग्रेस के बहुत बड़े नेता हैं, लेकिन उनके अपने प्रदेश गुजरात में ही उनकी कोई बहुत ताकतवर राजनीतिक अहमियत नहीं है। फिर पचेल का मुसलमान होना भी सामाजिक संवेदनशीलता के लिहाज से गुजरात में उनको सिर्फ मुसलमानों तक ही सीमित कर देता है। अहमद पटेल को कांग्रेस का बाकी हिंदू मतदाता गुजरात में ज्यादा गंभीरता से नहीं लेता। बचे शंकर सिंह वाघेला और शक्तिसिंह गोहिल, तो वे ऐसे क्षत्रप हैं, जो सिमट चुके माने जाते हैं। और बात अगर भरतसिंह सोलंकी या अर्जुन मोढ़वाडिया की करें, तो ये दोनों बिना बारूद की तोप माने जाते हैं। जिनकी गुजरात में कोई पराक्रमी नेता की छवि नहीं है। इसी सूची में एक सागर रायका भी हैं, जो कभी पिछड़ी जाति के बहुत आदरणीय किस्म के नेता हुआ करते थे। लेकिन कांग्रेस की अवस्था और संगठन की खराब व्यवस्था की वजह से उनकी राजनीति भी अंतिम अवस्था की ओर अग्रसर है। और, एक वो नरेंद्र मोदी के खिलाफ बड़ोदा से चुनाव लड़कर अपनी जमानत गंवाकर कांग्रेस की भद्द पिटवानेवाले मधुसुदन मिस्त्री की तो गुजरात में कोई राजनीतिक औकात ही नहीं है। पता नहीं मधुसुदन मिस्त्री नामक इस लगभग अज्ञात राजनीतिक जीव को, राहुल गांधी ने क्या सोचकर कांग्रेस का महासचिव बनाया था, यह कोई नहीं जानता। इस रहस्य का कभी आपको पता लगे, तो आप हमें भी बताना।

सो, राजस्थान में तो गहलोत ने शून्य से शुरू कर, शिखर को भी फतह करके यह साबित कर दिया कि वे राजनीति के ताकतवर खिलाड़ी हैं। लेकिन असल बात यह है कि गुजरात में भी गहलोत को शून्य से ही शुरू करके सांसत में फंसे संगठन की सांसों को ताकत देनी है। राजनीति में बहुत सारे लोग अशोक गहलोत की सादगी की मिसाल देते है और उनके अपने प्रदेश राजस्थान में तो उन्हें इस सादगी के कारण मारवाड़ का गांधी कहा जाता है। लेकिन अब मारवाड़ का गांधी, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रदेश गुजरात में अपनी पार्टी के प्रभारी हैं। कांग्रेस ने उन पर भरोसा करके गुजरात भेजा है। हालांकि, गहलोत मेहनती भी हैं, वफादार भी हैं और चुनाव लड़ने निकलते हैं, तो कोई कसर भी नहीं छोड़ते। लेकिन देश में कांग्रेस के भीतरी हालात जिस तरह के हैं, और गुजरात में उसका जो हाल है, उसके हिसाब से गांधी के प्रदेश में मारवाड़ के गांधी के लिए राह कोई बहुत आसान नहीं है। गुजरात में बीजेपी की आंधी है और उसके विपरित कांग्रेस का जनाधार ही खोखला हो चुका है। कांग्रेस में बिखराव बहुत ज्यादा है और सामने बीजेपी बहुत आक्रामक अंदाज में है। फिर, गुजरात में गहलोत की टक्कर बीजेपी से नहीं, बल्कि सीधे सीधे अमित शाह और नरेंद्र मोदी से है। अपनी रणनीतिक कौशल और कलाबाजियों से रेतीले राजस्थान की रणभूमि में हर बार जंग में फतह हासिल करनेवाले गहलोत के लिए गुजरात में मामला मुश्किल जरूर लगता है। लेकिन राजनीति के बादल पता नहीं कब मौसम के बदलने के संकेत दे दे और कब जो संभावित है, वहीं संभावनाओं की समाप्ति का संदेश लेकर खड़ा हो जाए, कोई नहीं जानता है। सो, देखते रहिए, आगे क्या होता है!

 

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