गुरूकुल शिक्षा का उद्देश्य वेद प्रचारक वैदिक विद्वान बनाना है

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सृष्टि के आरम्भ से जो गुरूकुल वा विद्यालयीय शिक्षा आरम्भ हुई और महाभारत काल व उसके अनेक वर्षों बाद तक सफलतापूर्वक चली, वह निश्चित ही गुरूकुलीय शिक्षा प्रणाली थी। आजकल की विद्यालयीय शिक्षा में विद्यार्थी अपने परिवार और विद्यालय के बीच में फंसा रहता है। उसकी सर्वांगीण शारीरिक व आत्मिक उन्नति नहीं हो पाती। उसका मन व ध्यान अपनी शिक्षा के साथ घर व समाज की समस्याओं में उलझा रहता है जो कि उसके आध्यात्मिक व इतर विषयों के ज्ञान की प्राप्ति में जटिलतायें उत्पन्न करता है। सृष्टि के आदि में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न सभी मानवों के जीवन निर्वाह के लिए चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद का ज्ञान चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को सृष्टिकत्र्ता-नियन्ता ईश्वर से प्राप्त हुआ। यह अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा चार मनुष्यों वा ऋषियों के नाम हैं न कि आग, हवा, सूर्य और अग्नि आदि पदार्थों या उनके किसी अवयव के। यह वेद सभी सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं। यह वेद ईश्वर प्रदत्त इस कल्प का पहला आखिरी ज्ञान है। इसके बाद ईश्वर ने किसी को वेद से भिन्न कोई ज्ञान नही दिया। यदि कोई मानता है तो यह उनका अज्ञान, अविद्या स्वार्थ है। वेदों के अध्ययन से मनुष्य सभी आघ्यात्मिक एवं लौकिक विद्याओं को जानने में समर्थ होता है। कुछ शेष बचता ही नहीं है। सृष्टि के आदि से महाभारत काल तक की अवधि 19,60,848 हजार वर्ष होती है। महाभारत काल के बाद शिक्षा की समुचित व्यवस्था न होने के कारण वैदिक मत अनेक प्रकार की विकृतियों को प्राप्त हुआ। विगत लगभग 5,115 वर्षों में समय-समय पर मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, यज्ञों में पशु हिंसा, मांसाहार, जन्मना जातिवाद, छुआछूत, स़्त्री-शूद्रों के वेद एवं अन्य विषयों के अध्ययन पर प्रतिबन्ध, सतीप्रथा, बाल विधवाओं सहित सभी विधवाओं के पुनर्विवाह पर प्रतिबन्ध, गुरूडम आदि अवैदिक परम्पराओं एवं अनेक मत-मतान्तरों का प्रचलन हुआ। शिक्षा की गुरूकुलीय व्यवस्था धीरे-धीरे समाप्त हो गई। उसके स्थान पर कुछ पठित ब्राह्मणों द्वारा आजीविका के लिए ब्राह्मण बच्चों सहित कुछ क्षत्रिय तथा वैश्यों के बच्चों को वेदेतर ग्रन्थों का अध्ययन कराया जाता था। इस अध्ययन में मुख्यतः संस्कृत भाषा का ज्ञान कराना ही लक्ष्य था। ब्राह्मणेतर विद्यार्थियों को धर्म शास्त्र का अध्ययन करने की सुविधा नहीं थी। क्षत्रिय व वैश्य परम्परा से अपने पारिवारिक जनों से शस्त्र विद्या, कृषि कार्य, व्यापार आदि का कार्य सीखते रहे और ब्राह्मण लोग अपने पठित अग्रजों से संस्कृत व पुराणों आदि का अध्ययन कर अवैदिक पौराणिक विद्वान बनने लगे।

 

उन्नसवीं शताब्दी में वेदों के अपूर्व विद्वान महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) का प्रादुर्भाव होता है। वह देखते हैं कि भारत सहित संसार में सर्वत्र अविद्या, अशिक्षा, अज्ञान, अन्धविश्वास व पाखण्डों आदि का बोलबाला है। यह सब बातें इस शाश्वत् नियम कि अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिेये, को भूलने और उसका समाज में व्यवहार न होने के कारण हुई थी। महर्षि दयानन्द देशवासियों का वेद और वेद विद्या की ओर लौटो का नारा देते हैं। वेद विद्या के पुनरूद्धार और अज्ञान व अन्ध विश्वासों को नष्ट करने के लिए वह संस्कृत पाठशालायें व गुरूकुल खोलने की प्रेरणा करते हैं। वह स्वयं भी कई संस्कृत पाठशालायें खोलते हैं जो उस अवैदिक वातावरण में योजना के उद्देश्य व महत्व को न समझने के कारण सफल नहीं हो सकीं। सन् 1883 में उनकी मृत्यु के बाद उनके प्रमुख शिष्य महात्मा मुंशीराम जो बाद स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए, मार्च 1902 में हरिद्वार के कांगड़ी ग्राम में एक गुरूकुल खोलते है। जहां वेदों एवं वैदिक शास्त्रों के अनेक प्रख्यात विद्वान तैयार होते हैं और उससे विश्व में वेद विद्या और योग आदि का प्रचार होता है।

 

महर्षि दयानन्द की प्ररेणा से आर्य समाज व स्वामी श्रद्धानन्द जी का गुरूकुल खोलने के पीछे क्या कारण था? वह कारण था देश व समाज से अविद्या व अज्ञान को मिटाना। अज्ञान मिटेगा तो ज्ञान का प्रकाश होगा। हर व्यक्ति की योग्यता का विकास होगा और वह देश व समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभायेगा। ज्ञानी होने से रोजगार तो उसे स्वतः मिलेगा। ज्ञानी व्यक्ति अकर्मण्य नहीं होता और शिक्षित व कर्मण्य व्यक्ति के पीछे रोजगार स्वतः ही आयेंगे, विचार व चिन्तन करने पर यह तर्क संगत उत्तर मिलता है बशर्ते कि समाज में अविद्या, पक्षपात, हठ, दुराग्रह आदि दुर्गुण न हो। इन दुगुर्णों का निराकरण भी ज्ञान के प्रचार व प्रसार तथा व्यवस्था की खामियों को दूर करने से होगा जिसे गुरूकुलों के आचार्यों के स्नातक विद्वान ब्रह्मचारी ही कर सकते हैं। हमारा यह भी मानना है कि गुरूकुल के संस्कृत व्याकरण सहित वेद व वैदिक साहित्य पढ़े हुए स्नातक अच्छे शिक्षक बन सकते हैं तथा यथार्थ धर्माचार्य, पुरोहित व पत्रकार आदि भी। शिक्षक समाज में सबसे अधिक सम्मानित व वरेण्य होता है। वह दूसरे अज्ञानियों को शिक्षित करेगें तो उन आचार्यों के शिष्यों द्वारा उनकी श्रद्धापूर्वक सेवा तो की ही जायेगी। जो स्नातक ब्रह्मचारी किसी कारण पूर्णकालिक वेद सेवा व शिक्षा आदि का कार्य न कर सरकारी नौकरी आदि करना चाहें तो वह अध्ययन समाप्ति के बार कुछ समय तक लौकिक ज्ञान का अध्ययन कर अपेक्षित नौकरी प्राप्त कर लें परन्तु आचार्य ऋण से उऋण होने के लिए उन्हें भी वेदोपदेशक व शिक्षक आदि बनना ही चाहिये अन्यथा वह अपने गुरू के प्रयासों, शिक्षण, तप व पुरूर्षाथ के अनुरूप कार्य न करने के दोषी होंगे।

 

जब हम शिक्षा और रोजगार विषय पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि हमारे बड़े-बड़े विद्वानों ने अच्छी नौकरियां मिलने पर भी उनका त्याग कर दिया था। इस श्रृंखला में हम महात्मा मुंशीराम जो सन्यास लेकर स्वामी श्रद्धानन्द बनें, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज (डी.ए.वी. स्कूल के संस्थापकों में प्रमुख), पं. लेखराम व ऐसे अनेक नाम हैं। हमारे यहां ऐसे भी अनेक लोग हो गये हैं जो बहुत अधिक व्यवसायिक शिक्षा पढ़े लोग नहीं थे परन्तु उन्होंने व्यवसाय में बहुत ऊंचाईयों को छुआ है और लाखों शिक्षितों को रोजगार दिया है। स्वामी रामदेव, आचार्य बालकृष्ण (पंतजलि योगपीठ वाले), महाशय धर्मपाल (एम.डी.एच. मसाले वाले), श्री सत्यानन्द मुंजाल (हीरो मोटरसाईकिल्स वाले), श्री घीरूभाई अंबानी आदि। इसका अर्थ यह हुआ कि धनवान बनने के लिए किसी विशेष प्रकार की पढ़ाई की ही आवश्यकता नहीं है। इसमें प्रारब्ध और इस जन्म के पुरूषार्थ के साथ अर्जित ज्ञान का महत्व होता है। अतः गुरूकुल में वेद और वैदिक साहित्य जिसमें आर्ष व्याकरण भी सम्मिलित है, का अध्ययन करने वाला भी अपने पुरूषार्थ व इच्छा शक्ति से शिक्षा, धर्म, राजनीति, उद्योग, व्यापार, कृषि, प्रशासन आदि में अपने ज्ञान व अन्य क्षमताओं के आधार पर सुदृण व सुस्थिर स्थान बना सकता है। हमें इस बात पर ध्यान देकर कि शिक्षा रोजगारपरक हो, यह ध्यान देना है कि शिक्षा से मनुष्य की समुचित शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक, आत्मिक उन्नति हो। जब यह सब उन्नतियां होगीं तो हमारा अनुमान है कि प्रारब्ध और पुरूषार्थ का संयोग होने पर आर्थिक और सामाजिक उन्नति भी अवश्य ही होगी। गुरूकुल मे वेद संबंधी अध्ययन करने के बाद व्यक्ति शिक्षक, पुरोहित, उपदेशक, नाना प्रकार के व्यवसाय आसानी से कर सकता है। आजकल कक्षा 10 pass ]व्यक्ति ही हिन्दी और साधारण अंग्रेजी व कम्प्यूटर आदि के ज्ञान से एक क्लर्क की नौकरी प्राप्त कर लेता है और लगभग बीस हजार या इससे अधिक रूपये मासिक धन कमाता है। क्या गुरूकुल का विद्वान इतनी योग्यता अर्जित नहीं कर सकता कि वह अपने अध्ययन के बाद कुछ माह व वर्ष अंग्रेजी व कम्प्यूटर आदि का प्रशिक्षण प्राप्त कर ले और वेद प्रचार और अन्य रोजगार भी करे? हमें तो यह लगता है कि गुरूकुल का सुयोग्य स्नातक वह सभी कार्य कर सकता है जिसकी वह इच्छा करे, आवश्यकता केवल दृण इच्छा शक्ति व संकल्प की है। अतः गुरूकुल में अध्ययन के दौरान उसे व्याकरण और वेद विषयों का अधिक से अधिक ज्ञान अर्जित करने का प्रयास करना चाहिये। शिक्षा पूरी करने के बाद वह आचार्य ऋण से उऋण होने के कार्य के साथ जिस प्रकार का कार्य या सेवा करना चाहता है उसका निर्धारण कर उसके लिए आवश्यक ज्ञान व प्रशिक्षण कुछ माह, एक वर्ष या कुछ अधिक में प्राप्त कर ले।

 

उपसंहार में हम कहना चाहते हैं कि गुरूकुल का उद्देश्य आदर्श वेद प्रचारक वा वेदोपदेशक बनाना है जो संसार की विभिन्न भाषाओं में उपयोगी व प्रासंगिक वैदिक साहित्य तैयार करें और सारी दुनियां वेदों की क्रान्ति कर दें। यदि गुरूकुलों के विद्यार्थी सरकारी नौकरी ही करने के लिए गुरूकुल में पढ़ेगें तो आर्य समाज को प्रचारक, उपदेशक, शास्त्रार्थ महारथी, विद्वान, पुरोहित, धर्माचार्य, वेदज्ञ विद्वान नहीं मिलेंगे जिससे महर्षि दयानन्द का वेद प्रचार का आन्दोलन स्वतः समाप्त व अप्रासंगिक हो जायेगा। हमारा यह भी मानना हैं कि गुरूकुलों में ब्रह्मचारियों की संख्या सीमित होनी चाहिये। आजकल के गुरूकुलों में ब्रह्मचारियों की भरमार है जिससे उनकी शारीरिक आत्मिक उन्नति अपेक्षानुसार नहीं हो पा रही है। स्वामी श्रद्धानन्द भी गुरूकुल में ब्रह्मचारियों की सीमित संख्या के पक्षधर थे परन्तु गुरूकुल कांगड़ी में उनकी इस विषय में इच्छा चल सकी। गुरूकुल में उन बच्चों को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिये जिनका उद्देश्य अध्ययन के बाद नौकरी करना न होकर आर्य समाज व वेद की सेवा करना हो। गुरूकुल कांगड़ी के प्रसिद्ध स्नातक व वेदभाष्यकार विद्वान आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार ने अपनी छोटी उम्र में स्वामी श्रद्धानन्द जी को पत्र लिखकर उनसे परामर्श मांगा था जिसके उत्तर में स्वामीजी ने उन्हें लिखा था कि खूब दूध पीओ फल खाओ, शारीरिक उन्नति कर बलवान बनों, खूब पढ़ों और हो सके तो स्नातक बन कर कुलमाता की सेवा करना। आचार्य रामनाथ जी ने स्वामीजी का यह आदेश शिरोधार्य कर आजीवन गुरूकुल माता की सेवा की और विशिष्ट सामवेद भाष्य सहित प्रभूत वैदिक साहित्य का प्रणयन किया। गुरूकुल में यदि वेद सेवा करने वाले बच्चों को ही पढ़ाया जायेगा तो इससे यह लाभ भी होगा कि दान से मिलने वाले साधनों का उन बच्चों पर अपव्यय नहीं होगा जो धर्म सेवा न कर अपना सारा जीवन धन कमाने में लगाना चाहते हैं। दान का सदुपयोग तभी हो सकता है जब गुरूकुल शिक्षा में दीक्षित विद्वान सरकारी नौकरी आदि न कर आर्य समाज और वेदों की सेवा करे। ऐसे लोगों के लिए तो सरकारी स्कूल व डीएवी कालेज व निजी विद्यालय हैं हीं। हमारे गुरूकुलों को मदरसों से भी शिक्षा लेनी चाहिये जहां बच्चे रोजगार के लिए अध्ययन नहीं करते।

 

हम समझते हैं कि गुरूकुलों का उद्देश्य आर्य समाज के वेद प्रचार आन्दोलन में सहायक होना है। इसके लिए वेद एवं वैदिक साहित्य के विद्वानों की आवश्यकता है जिन्हें संसार की लगभग 7 अरब से अधिक जनता में वेदों का सन्देश पहुंचा है। यदि गुरूकुलों में अध्ययनरत ब्रह्मचारी अध्ययनोपरान्त वेद प्रचार का कार्य छोड़कर सरकार या निजी क्षेत्र में रोजगार ढूंढते हैं तो हमे लगता है कि गुरूकुल का उद्देश्य विफल हो जाता है। हमारा ध्यान श्रेष्ठ वैदिक विद्वान, मधुभाषी वक्ता वा उपदेशक तथा अनेक भाषाओं के ज्ञाता, वेद भाष्यकार आदि बनाने पर केन्द्रित होना चाहिये। यदि इसमें हम सफल होते हैं तो गुरूकुल और आर्य समाज दोनों सफल कहे जायेंगे और यदि ऐसा नहीं होता तो फिर गुरूकुलों की प्रासंगिकता पर पुनः विचार करना होगा।

2 COMMENTS

  1. परम आदरणीय। आपका लेख आर्य समाज के गुरुकुल से निकले शिष्यों के अगले जीवन के बारे मैं है,तथा आर्य समाज ने जिस तार्किक और ठोस तरीके से शिक्षा संस्थाओं और गुरुकुलों का विकास किया उसके बारे मैं है. अतीत मैं हमारे समाज मैं जो कुरीतियां उत्पन्न हो गयी उनका भी क्रम दिया है. इनमे एक अवतारवाद तो बहुत ही खतरनाक अवधारणा है. और दूसरे ”भगवान”. शब्द की उत्पत्ति और अधिक खतरनाक। भारत के हर संभाग या प्रान्त मैं आपको एक अवतार मिलही जाएगा. और अवतार बतानेवाले कोई देहात या गाओं के लोग नहीं बल्कि पढ़े लिखे और अधिकारी वर्ग के लोग. नागपुर मैं एक शंकर के अवतार हैं /महाराष्ट्र मैं दो या तीन हैं/मध्यप्रदेश मैं ”भगवान दत्त के दो या तीन अवतार हैं. /एक और अवधरणा ”भाव ” की हैं. इन सब बातों की सत्यता और असत्यता का तार्किक उत्तर मिलाना चाहिए.in पर बहस होनी चाहिए. ऐसी बहसों के लिए उच्च शिक्षित,सफल ,युवकों की आवश्यकता है, कर्मठ,उच्च पदों पर आसीन लोग जब समाज मैं होंगे तो वे अंततः आर्य समाज के ठोस तर्कों और ईशवर की सत्यताओं को ही बतायेंगे. प्राचार्य पद पर रहते हुए मुझे एक बार एक आर्य समज की संस्था का निरिक्षण करने का अवसर मिला. प्रशस्त भवन। बड़ा मैदान ,पर्याप्त शिक्षक. कोई कमी नहीं, विद्यार्थी भी गरीउद्देश. ब वर्ग से. यानि लूटपाट का नाम निशान नही. सेवा उद्देश. मैंने उनसे निवेदन किया की आप इस विधालय को अंग्रेजी माध्यम का बना दें या काम से काम अंग्रेजी माध्यम की एक एक कक्षा ही खोल दें थे,वे असहमत थे,यदि हमारे समाज मैं कुरीतियों से तार्किक लड़ाई लड़ना है तो गुरुकुलों मैं रोजगार की सब विधाएँ सीखकर निकले शिष्य ही यह लड़ाई लड़ पायेङ्गेक़ेवल आर्य समाज के प्रचार से उद्देश सफल नहीं होगा, स्वामी दयानंद ने कितना महत कार्य किया है?इसकी कल्पना करना कठिन है

  2. ‘गुरुकुल शिक्षा का उद्देश्य वेद प्रचारक वैदिक विद्वान बनाना’ यह लेख बहुत ही उपयुक्त है। वैसे सत्य यही है कि गुरुकुल की शिक्षा को पाकर मनुष्य वैदिक विद्वान बनें। किन्तु बहुत बड़ी बिडम्बना है कि हमारा समाज इनको सम्मान नहीं देता। वैदिक प्रचारक बनने पर प्राप्त ही क्या होता है? उनको जो दक्षिणा मिलती है। उससे उनके परिवार का अच्छी प्रकार से गुजारा नहीं चल पाता। पहले ऐसा था लोग उन वैदिक प्रचारकों तथा विद्वानों का सम्मान करते थे, किन्तु आज कल ऐसा कहीं-कहीं ही देखने को मिलता है।
    शायद इसीलिए गुरुकुल के छात्रों का उद्देश्य केवल मात्र वैदिक प्रचारक बनना नहीं रह जा प्रत्युत अन्य विकल्पों को देखते हैं। जिससे उनको आर्थिक दशा में ज्यादा मद्द मिले।
    ये मेरे व्यक्तिगत मानना है, अन्यों का मत भिन्न भी हो सकता है।

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