गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था की ओर लौटते विश्वविद्यालय

-डॉ. मयंक चतुर्वेदी-

gurukulगुरुकुल का आशय है वह स्थान या क्षेत्र, जहां गुरु का कुल यानि परिवार निवास करता है। प्राचीन भारत में शिक्षक ही गुरु माना जाता था और उसका परिवार उसके यहां शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों से ही पूर्ण माना जाता था। जब किसी बालक के पहले गुरु का प्रश्न आया तो यहां की परंपरा ने कहा कि मां किसी भी नवजात की पहली शिक्षक है, उसके बाद पिता का स्थान तथा तीसरे स्थान पर उस स्त्री या पुरुष को रखा गया, जो कि बालक को उसके संपूर्ण जीवन को जीने के लिए मार्गदर्शन देता तथा उसे भावी जीवन की कठिनाइयों से संघर्ष करने व जीवन की संपूर्ण जटिलताओं से मुक्त रहते हुए आनंदमय जीवन जीने की शिक्षा देता है। इसीलिए उपनिषदों में लिखा गया कि मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव:, आचार्य देवो भव:।
यही कारण है कि सम्पूर्ण प्राचीन भारत के वांग्मय से लेकर अधुनातन तक में हमें इस गुरुकुल व्यवस्था के दिग्दर्शन होते हैं। गुरु की महत्ता को प्रतिपादित करने के लिए यहां तक कह दिया गया है कि गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वर, गुरु साक्षात् परमं ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम:। अर्थात- गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है, गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं। गुरु की महिमा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिसे इस ब्रह्माण्ड का कारण और नियंता माना जाता है उसके समकक्ष गुरु को स्थान दिया गया है। इस गुरुकुल व्यवस्था की परंपरा हमें बताती है कि देश में शिक्षा प्रणाली की यह व्यवस्था कितनी अधिक श्रेष्ठ थी, जिसमें कि शिक्षा के स्तर पर अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं। श्री कृष्ण और बलराम गुरुकुल में उस ब्राह्मण बालक सुदामा के साथ शिक्षा ग्रहण करते हैं, जिसके पास कोई पारिवारिक संपत्ति नहीं होती। ऐसे एक नहीं, अनेक अनुपम उदाहरण गुरुकुल शिक्षा पद्धति के दिखाई देते हैं।

स्त्री और पुरुषों की समान शिक्षा को लेकर यह गुरुकुल कितने अधिक सक्रिय थे, इसके भी कई उदाहरण हैं। उत्तररामचरित में वाल्मीकि के आश्रम में लव-कुश के साथ पढ़ने वाली आत्रेयी नामक स्त्री का उल्लेख हुआ है। जो इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि सह-शिक्षा का प्रचार भारत में प्राचीनकाल से रहा है। इसी प्रकार मालती-माधव में भी भवभूति ने भूरिवसु एवं देवराट के साथ कामन्दकी नामक स्त्री के एक ही पाठशाला में शिक्षा प्राप्त करने का वर्णन किया है। भवभूति आठवीं शताब्दी के कवि हैं। भवभूति के समय भी बालक-बालिकाओं की सह-शिक्षा का प्रचलन अवश्य था। इसी प्रकार पुराणों में कहोद और सुजाता, रूहु और प्रमदवरा की कथाएं वर्णित हैं। इनसे ज्ञात होता है कि कन्याएं बालकों के साथ-साथ पाठशालाओं में पढ़ती थीं तथा उनका विवाह युवती हो जाने पर होता था। यह प्रमाण इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि प्राचीन काल में स्त्रियाँ बिना पर्दे के पुरुषों के बीच रहकर ज्ञान की प्राप्ति कर सकती थीं। उस युग में सहशिक्षा-प्रणाली का अस्तित्व भी इनसे सिद्ध होता है। गुरुकुलों में सहशिक्षा का प्रचार था, इस धारणा का समर्थन आश्वलायन गृह ससूत्र में वर्णित समावर्तन संस्कार की विधि से भी मिलता है। इस विधि में स्नातक के अनुलेपन क्रिया के वर्णन में बालक एवं बालिका का समार्वतन संस्कार साथ-साथ सम्पन्न होना पाया जाता है।

ऋग्वेद में एक मंत्र है, जो कि यजुर्वेद में कर्मकाण्ड विषय के अंतर्गत पुरुष सूक्त में भी आया है, ब्राह्मणस्य मुखमासीद, बाहु राजन्य कृत:। उरु तदस्य यद्वैश्य:, पदभ्याम् शूद्रो अजायत। इस मंत्र के दो अर्थ बताए जाते हैं। पहला यह कि ब्राह्मण यज्ञ करने के लिए , क्षत्रिय युद्ध के लिए, वैश्य व्यापार के लिए और शुद्र सेवा कार्य के लिए हैं। किंतु वहीं ऋग्वेद में एक स्थान पर एक व्यक्ति कहता है कि मैं एक कवि हूं, मेरे पिता वैद्य हैं, मेरी माता चक्की चलाती है। भिन्न-भिन्न व्यवसायों से जीविकोपार्जन करते हुए हम साथ-साथ रहते हैं, जैसे पशु अपने बाड़े में। यहां तात्पर्य यह है कि भले ही एक परिवार में रहने वाले सदस्यों की रुची अलग हो सकती है, फिर भी वह एक साथ रहते हैं। अर्थात, यही बात किसी समाज पर लागू होती है।

इस मंत्र का दूसरा अर्थ लगाया जाता है कि ब्रह्म का मुख है ब्राह्मण, भुजायें क्षत्रिय हैं, उदर भाग वैश्य तथा ईश्वर के पैर शुद्र हैं यानि कि इन वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्म के उक्त शरीर के स्थानों से हुई है। एक बार को यह बात मान भी लें, तो स्पष्ट हो जाता है कि भारत की प्राचीन परंपरा तथा ज्ञान का चिंतन कितना अधिक श्रेष्ठ है, क्यों कि भारतीय ज्ञान परंपरा में समाज के सेवक को सबसे ऊंचा स्थान दिया गया है। हिन्दू परंपरा में हमारे यहां जिन्हें सम्मान दिया जाता है, उनके पैर छूने का विधान है। जिस मस्तक को ब्राह्मण कहा गया है, वह पैरों में यानि शरीर की सेवा करने वाले शुद्र के लिए सदा झुका रहता है। इसीलिए प्राचीन गुरुकुल में वनों में रहने वाले, राजा के पुत्र या धनिक वर्ग अथवा समान्य व गरीब के बच्चे एक समान, एक पद्धति से बिना किसी भेद-भाव के शिक्षा ग्रहण करते हुए दिखाई देते हैं।

किंतु जब देश में अंग्रेजी राज आया और लॉर्ड मैकाले ने बाबू बनाने वाली तथा अंग्रेज भक्त भारतीयों के निर्माण के लिए आधुनिक शिक्षा के नाम पर अपनी वैचारिकी परोसने का काम किया, साथ में योजनाबद्ध गुरुकुलों का नाश किया। उस समय गुरुकुल शिक्षा पद्धति का मखौल उड़ाते हुए अंग्रेज परस्त और कम्युनिष्ट मित्र बढ़-चढ़ कर आगे आए थे। लेकिन अब उन्होंने भी जान लिया कि आधुनिकता कि नाम पर दी जाने वाली सिर्फ अंग्रेजी शिक्षा से योग्य और उत्तम पीढ़ियां नहीं बनाई जा सकती हैं। बिना संस्कार जोड़े श्रेष्ठ संततियों का निर्माण नहीं होता है। चलो देर से ही सही देश के अंग्रेजी बौद्धिक वर्ग को यह बात समझ में तो आई। भारतीय चिंतन से प्रेरित बौद्धिक वर्ग तो कब से यह मांग कर रहा है कि विद्यालयीन और महाविद्यालयों में गुरुकुल जैसी श्रेष्ठ परंपरा को जोड़ने के प्रयास शुरू किए जाएं।

अच्छा है कि कम से कम उच्च शिक्षण संस्थानों में विद्यार्थियों के मन में घर कर रहे तनाव, चिंता, गृह विरह और उम्दा अकादमिक प्रदर्शन के दबाव में आत्महत्या की प्रवृत्ति पर काबू पाने की ठोस कोशिशें आरंभ कर दी गई हैं। निश्चित ही जब विश्वविद्यालयों के छात्रों पर पुरातन गुरुकुल व्यवस्था की तर्ज पर शिक्षक की नजर रहेगी तथा कक्षा से बाहर विद्यार्थी की शैक्षणिक -गैर शैक्षणिक समस्याओं के निदान के लिए एक शिक्षक मार्गदर्शक के रूप में उपलब्ध होगा, तब अवश्य ही देश में शिक्षा के वातावरण में आमूलचूक सुधार आएगा, ऐसी आशा की जा सकती है।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की ने सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों को उच्चतर शैक्षिक संस्थानों के परिसरों में तथा दूरस्थ परिसरों में छात्रों की सुरक्षा संबंधी जो दिशा-निर्देश दिए गए हैं, उन्हें हम इस रूप में देख सकते हैं। फिलहाल इसके अंतर्गत पच्चीस विद्यार्थियों के एक दल की जिम्मेदारी एक शिक्षक को दी जा रही है। शिक्षक छात्रों की चिंता, असफलता, गृह विरह तथा अकादमिक चिंताओं से उबारेंगे।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की ओर से विश्वविद्यालय व उच्च शिक्षण संस्थानों में लागू की जा रही इस व्यवस्था के तहत छात्रों को उपलब्ध कराए जाने वाले शिक्षक परामर्शदाता को संरक्षक के तौर पर भी सक्रिय बने रहने का प्रशिक्षण दिया जाने वाला है। शिक्षक न सिर्फ विद्यार्थियों की हरसंभव मदद के लिए तत्पर रहेगा, बल्कि अभिभावकों से भी विद्यार्थियों से जुड़े विभिन्न विषयों पर चर्चा करेंगे। वस्तुत: आज विश्वविद्यालय स्तर पर इस तरह की प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था की आशिंक ही सही, जरूरत इसलिए भी पड़ी है, क्योंकि बेहतर प्रदर्शन के दबाव व अन्य समस्याओं के कारण पिछले कई वर्षों में विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएं तेजी से घट रही हैं। निश्चित ही जिसे देखकर हम कह सकते हैं कि बदलते वक्त की मांग है गुरुकुल व्यवस्था।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने जो यह पहल की है, आज उसके इस कदम को हर दृष्टिकोण से सराहनीय माना जायेगा। यूजीसी की ओर से लागू की जा रही व्यवस्था में एक शिक्षक पर पच्चीस छात्रों की जिम्मेदारी रहेगी। शिक्षक मार्गदर्शक की भूमिका अदा करेगा और इसका सीधा असर विद्यार्थी के प्रदर्शन पर पड़ेगा। वस्तुत: होना तो यह बहुत पहले ही जाना था, लेकिन कोई बात नहीं, चलो देर से ही सही शिक्षा के भटकाव के मार्ग में सुधार आना तो शुरू हुआ। आशा की जाए कि आने वाले दिनों मेें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार शिक्षा क्षेत्र से जुड़े मसलों पर और अच्छे दिन दिखलाएगी।

 

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