दीपावली पर ग्‍वालिन की पूजा, क्‍यों करता है ग्‍वाला समाज ?  

आत्‍माराम  यादव पीव

कार्तिक अमावस्‍या को दीपावली मनाने के लिये सभी यथायोग्‍य तैयारी करते है वहीं होशंगाबाद सहित आसपास के अनेक गॉवों में बसे ग्‍वाला दिये के साथ मिटटी की बनी ग्‍वालिनों को लाकर पूजते है। पिछले 40-45 सालों से मेरे मन में एक सवाल उठता रहा है कि आखिर दीपावली पर मिट़टी की सुन्‍दर प्रतिमाओं के साथ घोड़े पर सवार युवक को सभी पूजते क्‍यों है, पर कोई जबाव नहीं मिलता था। नर्मदापार ग्राम बगवाड़ा में मेरी ननिहाल है बचपन में तीन चार दशक पहले वहॉ के सभी घरों से महिलायें टोकरी में दूध कन्‍डे  बेचने होशंगाबाद आते। गॉव से नर्मदानदी तट तक दो ढाई किलोमीटर पैदल  चलने  के बाद नाव से आते और दूध-दही आदि बेचकर घर के जरूरी सामान ले जाते जिसमें हर त्‍यौहार की पूजा सामग्री होती। दीपावली पर बाजार से लौटते समय हरेक व्‍यक्ति या महिला सभी मिटटी की रंग रोगन की हुई ग्‍वालिन,घुडसवार युवक के साथ गायों को सजाने के लिये रंग बिरंगिया घन्टिया,झालरे कोडिया,मोरपंख आदि के साथ रंग लेकर आते यह सिलसिला अब भी जारी है पर साधन आ जाने के बाद सब अलग अलग होकर इस परम्‍परा का निर्वहन कर रहे है। कच्‍ची मिटटी से बनी इन ग्‍वालिन के हाथों पर चार दिये और सिर पर एक दिया कुल पॉच  दिये बने होते है, जिसपर दीप जलाने की परम्‍परा भी है। यह दीप ग्‍वालिन को भगवती शारदा मानकर ऋद्धि सिद्धि की कामना कर उनके सम्‍मुख प्रार्थना करने से मनोरथ सिद्ध करने का सरल उपाय बताया है।

दीपावली पर ग्‍वालिन की पूजा की लोकमान्‍यता ग्‍वाला समाज को छोड और कहीं देखने को नहीं मिली लेकिन उत्‍तर भारत में बुन्‍देलखण्‍ड,मध्‍य में मालवांचल सहित गुजरात राजस्‍थान में अनेक जगह ग्‍वालिनों को पूजने की परम्‍परा है।प्राचीन भारत के साहित्‍य में कालिदास,बाणभटट और अश्‍वघोष ने अपनी रचनाओं में मिटटी से बनी मूर्ति के लिये हर्षचरित्र में अंजलिकारिका शब्‍द प्रयोग किया है वही कादंबरी में मृदंग और पुत्रिका शब्‍द प्रयोग किया है। दोनों हाथों और सिर के ऊपर मिटटी  का दीया लिये इन सुन्‍दरतम ग्‍वालिनी की प्रतिमाओं में अगर नीचे की बनावट पर नजर डाले तो वृन्‍दावन की प्रगट लीला में घाघरानुमा परिधान से लवरेज है जिन्‍हें भगवान श्रीकृष्‍ण की आल्‍हादित करने वाली गुह़ विद़धा की प्रर्वतक माना है। ये ग्‍वालिनी नित्‍य सिद्धा है इन्‍हें कन्‍या रूप में और परोढ़ा रूप में श्रीकृष्‍ण ने स्‍वीकारा है। जिनका विवाह नहीं हुआ है वे कन्‍याये है तथा जो ग्‍वालिनी विवाहित है वे परोढ़ा है। प्रेमभक्ति में परोढ़ाओं को श्रेष्‍ठतम मानकर इन्‍हें नित्‍यप्रिया,साधनपरा और देवी माना गया है। राधाजी के स्‍वरूप को सर्वश्रेष्‍ठ महाभाव स्‍वरूपा कहा गया है जिनकी आठ परमश्रेष्‍ठ सखिया ललिता,विशाखा,चंपककला,ललिता,विशाखा,चंपककला,चित्रा सुदेवी, तुंगविद़या, इन्‍दुलेखा, रंगदेवी जो गोपियों व ग्‍वालिनों  में अग्रग्रण्‍य है। दीपावली के पूर्व शरदपूर्णिमा की झिलमिलाती रोशनी में महारास में  राधाकृष्‍ण अपनी समस्‍त कलाओं के साथ महारास करते है  और आकाश में  चन्‍द्रमा अपनी चांदनी की छटा से धरा को स्‍नान करता है।  इस रात हर व्‍यक्ति लक्ष्‍मी की अगवानी में घर की देहरी पर दीप रखता है और अपने घरों की छतों-मचान पर श्री का प्रतीक खीर रखकर चांदनी से अमृत बरसने की प्रतीक्षाकरता है ऐसे ही अवसर पर माता लक्ष्‍मी धरा पर विचरण को निकलती  है।

      शरदपूर्णिया अर्थात महासरस्‍वती व कार्तिक पूर्णिमा अर्थात महाकाली की बीच की कडी हर मनुष्‍य को एक दूसरे से जोड़कर रखने वाली कडी  है। जैसे शरद का सौन्‍दर्य श्री का सौन्‍दर्य है,सीता का सौन्‍दर्य है, राधा का सौन्‍दर्य है, शारदा का सौन्‍दर्य है,,वही अलौकिक सौन्‍दर्य नवदुर्गा की भक्ति पूजा अर्चना का भी सौन्‍दर्य बन जाता है। आश्‍विन की विजयादशमी को राम रावण का वध कर 20 दिन बाद अयोध्‍या लौटते है तब उनके राज्‍याभिषेक में परब्रम्‍ह के रूप में भगवान राम संपूर्ण ऐश्‍वर्य के साथ सिंहासन पर विराजते है,  अवध झूम उठता है, घरघर दीप प्रज्‍वल्वित होते है और यह आनन्‍द दीपावली के रूप में भारत की संस्‍कृति में रच बस जाता है। अपवादों के कारण राम सीता को निर्वासित करते है तब राम ब्रम्‍हहत्‍या के पश्‍चाताप कर दोषमुक्‍त करने हेतु गुरू वशिष्‍ट से कहते है तब गुरू वशिष्‍ट कहते है सीता के बिना यज्ञा पूरा नहीं हो सकेगा ओर वे सीता को जंगल से लाने की बात करते है तब मर्यादापुरूषोत्‍तम  रा का स्‍वाभिमानउ उन्‍हें  सीता को लाने से  रोकता है तब यज्ञ की पूर्ति  हेतु स्‍वर्ण की सीता बनवाकर यज्ञ संपादित कराते है। स्‍वर्ण से बनी सीता की प्रतिमा में प्राणप्रतिष्‍ठा के पश्‍चात यज्ञ पूर्ण होता है। कहा जाता है स्‍वर्ण प्रतिमा भगवान से प्रार्थना करती  है  कि आपका कार्य हो  गया  है  अब आप  मुझेपत्‍नी का सम्‍मान देकर राजमहल में रहने की  इजाजत दे। प्रभु आश्‍चर्यचकित होते है और कहते है वे एक पत्‍नी का व्रत रखे  है उन्‍हें पत्‍नी नहीं बना  सकते। स्‍वर्णप्रतिमा का हठ के समक्ष वे झुकते है और वचन देते है अगले श्रीकृष्‍ण अवतार में वे उन्‍हें अपनी सबसे श्रेष्‍ठ और प्रिय का स्‍थान देंगे और तब तुम राधा बनकर आयोगी। प्रतिमा हठ करती है तो राम उन्‍हें श्रोप देते है कि जब राधा के रूप में तुम मिलोगी तो हमारा वियोग होगा और तुम्‍हं मेरी प्रतीक्षा का वियोग झेलना  होगा।

      सीता की स्‍वर्णप्रतिमा राधा के रूप में अवतरित होती है और कृष्‍ण की आल्‍हादिनी शक्ति के रूप में राधा ही श्री कहाती है। जब सीता को निर्वासित किया गया तब वे अन्‍याय का शिकार हुई पर उन्‍होंने राम के खिलाफ एक शब्‍द भी नहीं कहा, राम सीता के इसी स्‍वाभिमान के कारण अपने अंदर टूटते गये,पर प्रकट में कहीं भी यह दिखने नहीं दिया। लेकिन कृष्‍ण अवतार में राधा से मिलने, बिछुडने का दर्द असीमित था जिसे राधा ने प्रगट नहीं किया। कृष्‍ण ने वियोगी राधा को ऑखों से आंसू  न लाने का वचन लिया और राधा के अंतर्मन का दर्द वे समझ सकती थी तभी वे कृष्‍ण की प्रतीक्षा में रोज अनगिनत दीप जलाकर अपनी स्‍वर्णदेह को गलाकर मिटटी बन गयी,उधर कृष्‍ण भी राधा से  अलग  होने के बाद दुबारा नहीं  मिल सके। कृष्‍ण विछोह के बाद राधा का पूरा जीवन ऐसा हो गया जैसे कोई माटी की मूरत हो। स्‍वर्ण सीता की मूरत से मूरत बनी राधा के जीवन में बिछोह है। इस विछोह को जन्‍म जन्‍मान्‍तर से बिदा करने के लिये राधा मिटटी की ग्‍वालिन के रूप में अपने देह पर दीये जलाकर अपने प्रिय की प्रतीक्षा में खडी है। यह ग्‍वालिनी अदृश्‍य रूप में चैतन्‍य शक्तिया है, श्री जगदम्‍बा सीता की और श्रीराधा की। दीपावली पर हर ग्‍वाला मिटटी की गढी हुई इस ग्‍वालिनी राधा को लक्ष्‍मी के स्‍वरूप में पूजता है। दिन बीते, बरस बीते और युग बीते पर आज भी ये ग्‍वालिनी राधा विरथ राम की राह को प्रशस्‍त करने तथा सारथी कृष्‍ण को आश्‍वस्‍त कर महामिलन की साक्षी बनने के लिये बार बार मिटटी में मिलने के लिये माटी से गढ़ीजातीहै और बार बार रांधी जाने वाली मिटटी से स्‍वरूप लेकर अपने तन पर दीये रखकर जलते हुये अनंत अंधकार को अपने प्रकाश से तिरोहित करती है।

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