आधे-अधूरे सच के मायने

-वीरेन्द्र सिंह परिहार-

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16 फरवरी 2011 को प्रधानमंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने कहा था -‘गठबंधन सरकारों की गई मजबूरियां होती है, जिसके कारण कई समझौते भी करने पडते है। क्योंकि गठबंधन धर्म का पालन करता होता है। वस्तुतः जब मनमोहन सिंह यह बात कह रहे थे, तो प्रकारांतर से वह अपने राज मंे हुए घोटालों को युक्तियुक्त बताने का प्रयास कर रहे थे। पर मनमोहन सिंह इस तरह से दो तरह की गलतबयानी कर रहे थे। एक तो गठबंधन धर्म को राजधर्म से ऊपर रख रहे थे, दूसरे यह बात तथ्यतः भी गलत थी, क्योकि अधिकांश घोटालों में कांग्रेस पार्टी के लोगों का ही हाथ था। कुल मिलाकर कहने का आशय यह कि गठबंधन धर्म के नाम पर आधा-अधूरा सच बोलकर देश की जनता को गुमराह करने का प्रयास कर रहे थे।

अब 27 मई को मनमोहन सिंह ने फिर एक बार आधा-अधूरा सच बोलते हुए उन्होंने कहा कि मोदी सरकार लोगों का ध्यान गैर जरूरी मुद्दों की ओर बांटने के लिए भ्रष्ट्राचार का राग अलाप रही है। साथ ही उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया-उन्होंने अपने परिवार या मित्रों के फायदे के लिए कभी पद का दुरूपयोग नहीं किया। मनमोहन सिंह ने मोदी सरकार पर यह भी आरोप लगाया कि लोकतांत्रिक संस्थाएं खतरे में हैं और कल्याणकारी राज्य की संपूर्ण अवधारणा को तीव्र आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के नाम पर ध्वस्त किया जा रहा है। उन्होंने यह भी दावा किया कि जब उनकी सरकार सत्ता से हटी उस समय भारत दुनिया में दूसरी सबसे तेज गति से वृद्धि दर्ज करने वाली अर्थव्यवस्था थी।

अब सर्वप्रथम मनमोहन सिंह की इस बात के परीक्षण की आवश्यकता है कि उन्होंने अपने, अपने परिवार या मित्रों के फायदे के लिए कभी पद का दुरूपयोग नहीं किया। यदि मनमोहन सिंह की इस बात पर सौ फीसदी भी भरोसा कर लिया जाए तो लाख टके की बात यह कि मनमोहन सिंह साफ-साफ यह कहने का साहस क्यों नहीं करते कि उन्होंने अपने पद का दुरूपयोग कतई नहीं किया। क्या देश के प्रधानमंत्री का यही दायित्व है कि वह अपने आपके लिए, रिश्तेदारो के लिए, भ्रष्टाचार या पद का दुरूपयोग न करें, अथवा उसका दायित्व यह है कि किसी भी स्तर पर भ्रष्ट्राचार एवं पद का दुरूपयोग न होने पाए। जैसा कि कहा गया- ‘सवाल यह नहीं कि डोला क्यों लुटा? सवाल रहजनी का नहीं, तेरी रहबरी का है।’ ऐसी स्थिति में प्रकारांतर से मनमोहन सिंह यह तो स्वीकार कर रहे है कि भले उन्होने अपनो के लिए पद का दुरूपयोग नहीं किया, पर उनके पद का दुरूपयोंग हुआ। शायद मनमोहन सिंह यह कहना चाह रहे हो कि जब उन्हांेने पद का दुरूपयोग अपने और अपनों के लिए नहीं किया तो भला दूसरों के लिए करने का सवाल ही नहीं पैदा होता। पर सबको पता है कि मनमोहन सिंह एक मजबूर प्रधानमंत्री थे। जैसा कि उनके कार्यकाल के दो अधिकारी संजय बारू और पी0सी0 पारेख अपनी पुस्तकों में बता चुके है कि उन्हें अपने मंत्रियों तक को चुनने की स्वतंत्रता नहीं थी। उनका काम दस जनपथ से आए आदेशों का मात्र पालन करना था। इस तरह से वह मात्र एक आज्ञा-पालक प्रधानमंत्री थे। ऐसी स्थिति में मनमोहन सिंह को जब आंख मंूदकर खानदान के इशारों पर काम करना पड़ता था, तो पद का दुरूपयोग होगा ही। इसी पद के दुरूपयोग के परिणाम कई घोटाले थे। अब मनमोहन सिंह के पास इस बात का क्या जवाब है कि मोदी सरकार 29 कोल ब्लाकों को नीलाम कर तीन लाख करोड रूपयें का राजस्व जुटा लेती है, तब मनमोहन सरकार ने 200 कोयला खदानें रेवडियों की तरह क्यों बांट दिया था? और यदि यह पद का दुरूपयोग नहीं था तो सर्वोच्च न्यायालय ने इन सभी आवंटनों को रद्द क्यों कर दिया? इस तरह से मनमोहन सिंह के इस कथन में कोई दम नहीं कि मोदी सरकार गैर – मुद्दों से लोगों का ध्यान बांटनें के लिए भ्रष्टाचार का राग अलाप रहीं है। क्योकि यह धु्रव सत्य है कि मनमोहन सिंह के समय सिर्फ भ्र्रष्टाचार और घोटालो को दौर रहा। ऐसी स्थिति में यदि मोदी सरकार में उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार पर एक हद तक रोक लग गई है, तो उसे इस विषय पर बातें करने का पूरा हक है। वेैसे भी देश के एजेण्डें में भ्रष्टाचार सिर्फ बड़ा मुद्दा ही नहीं,बल्कि सबसे बडा मुद्दा है। क्योंकि इसी के चलते हमारा राष्ट्रजीवन भयावह गरीबी, बेकारी और पिछड़ेंपन से ग्रस्त है। ऐसी स्थिति में यदि मनमोहन सिंह को भ्रष्टाचार शब्द से पीड़ा महसूस होती है तो भले उन्होंने अपने और अपनों के लिए पद का दुरूपयोग न किया हो, पर इसे ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ तो कहा ही जा सकता है।

मनमोहन सिंह का यह भी कहना कि जब उनकी सरकार सत्ता से हटी, तो भारत विश्व में दूसरी सबसे तेज गति से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था थी। अब यह बात तो मनमोहन सिंह ही बता सकते है कि इस बात का क्या औचित्य है? लेकिन यह बड़ा सच है कि 1998 में जब एन0डी0ए0 शासन में आया तो उसे विरासत में 4.9 प्रतिशत विकास-दर वाली अर्थ व्यवस्था मिली थी, लेकिन वर्ष 2004 में जब एन0डी0ए0 की सत्ता से विदाई हुई तो वह देश को 8-4 प्रतिशत वाली विकास-दर की अर्थ व्यवस्था देकर गया। तभी तो 2004 में जैसे ही यू0पी0ए0 सत्ता में आया तो विश्व आर्थिक सम्मेलन में बोलने हुए तात्कालिन वित्त मंत्री पी0-चिदम्बरम् ने कहा था कि भारत सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है। लेकिन क्या यह सच नहीं कि जब मनमोहन सरकार गई तो देश की वार्षिक विकास-दर 4.5 प्रतिशत तक गिर गई थी। इसके साथ यह भी बड़ा सच है कि एन0डी0ए0 के अंतिम कार्यकाल में मुद्रास्फीति की दर 3.8 प्रतिशत थी, जबकि यू0पी0ए0 सरकार के जाते वक्त मुद्रास्फीति की दर 12 प्रतिशत तक पहंुच चुकी थी। तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि मोदी सरकार के एक वर्ष के कार्यकाल में ही वार्षिक विकास-दर 4.5 से 7.5 प्रतिशत पर पहुंच गई है, तो मुद्रास्फीति की दर 12 प्रतिशत से 3.5 प्रतिशत तक आ गई है। अब भले मनमोहन सिंह को भ्रष्ट्राचार शब्द से तकलीफ होती हो, पर हकीकत यही है कि एक हद तक भ्रष्टाचार पर रोकथाम से ही यह संभव हो सका है।
अब मनमोहन सिंह को मोदी सरकार से पता नहीं किस आधार पर लोकतांत्रिक संस्थाएं खतरे में दिखती है, बेहतर होता कि वह इसके लिए कोई उदाहरण प्रस्तुत करते। जबकि मनमोहन सरकार के दौर में वर्ष 2005 में झारखण्ड के राज्यपाल सिब्ते रजी ने एन0डी0ए0 की बहुमत वाली सरकार न बनने देकर कैसे सिबू सोरेन की अल्पमत सरकार बनवाकर लोकतंत्र की हत्या की थी, यह किसी से छुपा नहीं है। विरोधी दलों की सरकारों से कैसा भेदभाव होता था, यह आज भी लोगों की जेहन में है। जबकि इसके उलट मोदी सरकार के दौर में भले विरोधी दलों की सरकारें हो, पर उनके साथ कोई भेदभाव की शिकायत नहीं है। उल्टे मोदी सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को नीति आयोग बनाकर उन्हंे निर्णय-प्रक्रिया में तो शामिल ही कर रहे हैं, केन्द्रीय पूल के कर में राज्यों का हिस्सा दस प्रतिशत बढाकर उन्हे और ताकतवर बना रहे हैं। मनमोहन जब यह कहते है कि कल्याणकारी राज्य की संपूर्ण अवधारणा को तीव्र आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के नाम पर ध्वस्त किया जा रहा है, तो उनका इशारा मोदी सरकार के भू अधिग्रहण कानून से है। पर इसके लिए मनमोहन सिह से यह तो पूछा जाना चाहिए कि यदि वह कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के इतने पक्षधर थे, तो उन्होंने इस बिल को अपने कार्यकाल के अंतिम दिनो में क्यों कानून बनने दिया? क्या इसीलिए कि आने वाली सरकार भी उनके सरकार की तरह आर्थिक पंगुता का शिकार रहे? दूसरी बड़ी बात यह कि सेज के नाम पर जो 60 हजार एकड़ भूमि उनकी सरकार में पंूजीपतियो को रेवडियों की तरह बांटी जिसमें अधिकांश का अभी तक कोई उपयोग नहीं हुआ, क्या वह कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का पैमाना था? पर इन सबके लिए मनमोहन सिंह को दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता। क्योकि उन्हें अब भी अपनी वफादारी साबित करने के लिए आधा-अधूरा सच बोलना पड़ता है, भले ही यह देश के साथ एक तरह की धोखाधडी ही हो।

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