जब देश महंगाई की मार से सुबह-शाम रो रहा है तो केंद्र सरकार ने पंचायतों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देने का फैसला ले लिया। रेडियो पर यह सूचना (जी हां, यह केवल सूचना है और सूचना को समाचार बनने में कभी-कभी सदियों का समय लग जाता है।) सुनकर एक बारगी शरीर के सारे बाल खड़े हो गए कि ओ अच्छा… कुछ नई नौकरियों का इंतजाम किया गया है! आज के हालात में बेशक महिला सरपंचों की बागडोर उनके पुरुषों के हाथों में हो, लेकिन इतनी सुविधा तो है कि एक ही जॉब में स्त्री-पुरुष दोनों लगकर बेरोजगारी का रोना नहीं रोते। लेकिन महिलाओं के लिए बिछाए रेड कारपेट के नीचे की जमीन कुछ और बयां करती है। इसे आप जानेंगे लेकिन पहले कुछ तथ्यों पर गौर फरमाएं।
तथ्य
आज की तारीख में देश भर में 28 लाख से अधिक जनप्रतिनिधि हैं। इनमें से सिर्फ 37 प्रतिशत महिलाएं हैं। सरकार संविधान की धारा 243 डी में संशोधन के जरिए आरक्षण को 50 फीसदी तक ले जाने के लिए प्रतिबध्द है। पचास फीसदी आरक्षण का मामला अभी ग्रामीण पंचायतों तक सीमित है लेकिन आगे भविष्य में शहरी पंचायतों (नगर निगम आदि) में भी यह प्रयोग दोहराया जाएगा।
और जहां तक 50 फीसदी आरक्षण की बात है तो मध्यप्रदेश, बिहार और उत्तराखंड (55 प्रतिशत) में पहले से ही यह अनिवार्य रूप से लागू है, लेकिन क्या इन प्रदेशों से एक भी सूचना ऐसी आई जो यह बता सके के अमुक महिला सरपंच ने गांव का विकास कार्य सही अर्थों में किया हो।
रेड कारपेट के नीचे की जमीन क्या कहती है
पंचायतों को 35 तरह के काम यानी जिम्मेवारियां दी गई हैं, मसलन गांव की सड़क बनवाने से लेकर पानी की व्यवस्था और तमाम सार्वजनिक कार्य सरपंच जी करेंगे या करवाएंगे। लेकिन हकीकत में संबंधित एरिये का एक एसडीएम (सब डिविजनल मजिस्ट्रेट) उन्हें बर्खास्त कर सकता है और बीडीओ (ब्लॉक डवलपमेंट ऑफिसर यानी प्रखंड विकास पदाधिकारी) तो जब चाहे किसी विकास प्रोजेक्ट पर अजगरी कुंडली मारे बैठ सकता है। और सबसे बुरा हाल तो तब होता है जब कमीशन नहीं मिलने पर कोई जूनियर इंजीनियर, जिसे गांव में हिंदी भाषा में तकनीकी सहायक कहते हैं!, कभी भी तकनीकी पेंच भिड़ाकर सरपंच को क्लीन बोल्ड कर देता है। ऐसा होने पर कद्दावर सरपंच (यहां मैं पुरुष सरपंच की बात कर रहा हूं, किसी महिला सरपंच की नहीं) भी विकास काम पर हाथ खड़े कर देता है और गांववालों से कहता है, जाइए एसडीएम के पास मदद के लिए।
पंचायतें दवा थीं, मर्ज बन गईं
लोकतंत्र की संघीय व्यवस्था के प्राण होती हैं समर्थ पंचायतें। आप अमेरिका में देखें, वहां किसी नगर का मेयर खास उस नगर का प्रथम नागरिक होता है, लेकिन दिल्ली का मेयर अपने ऑब्जेक्टिव वे में अपनी पार्टी का होता है। संविधान के 73वें संशोधन के बाद जब पंचायती व्यवस्था सरजमीं पर लागू की गई तो पहले यह जातिगत हुई और अब पार्टीगत हो गई है। जातिगत होने से नुकसान कम था, बनिस्बत पार्टीगत के। क्योंकि अगर आरक्षण के बावजूद आप मानें कि किसी पंचायत में दलित मुखिया, सरपंच हो गए तो भी उस गांव के
अल्पसंख्यक उच्च जातियों का काम कमोबेश हो ही जाता था, क्योंकि गांव का नॉलेज बैंक तो अभी भी वही हैं। लेकिन 2004 के बाद से नगर निगम की देखदेखी पंचायत चुनाव भी पार्टीगत हो गया। ऐसे में अगर 100 प्रतिशत आरक्षण भी हो जाए तब भी किसी क्रांतिकारी सुधार की उम्मीद बेमानी है।
-अनिका अरोड़ा
अनिकाजी
धन्यवाद सरकार कॆ कथनी और करनी मॆ हमॆशा फर्क रहा है| जनता कॊ गुमराह करना नॆताऒ का पुराना धन्धा है|भारत कॊ जातिवाद ऒर पार्टीवाद नॆ तबाह कर कॆ रख दिया है|बुनियादी समस्याऒ पर सरकार चुप लगायॆ रहती है|छॊटॆ छोटॆ खिलोनॊ सॆ जनता कब तक खॆल कर अपनॆ आप कॊ वहलाती रहॆगी?