शिक्षा का आधा अधिकार

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     ये ठीक है कि शिक्षा के अधिकार क़ानून-2009 के दबाव में ही सही मगर दिल्ली में 38 वर्ष पुरानी शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की मंशा से दिल्ली सरकार अंतत: गत वर्ष जागी और आनन-फानन में 20 अप्रैल 2012 को दिल्ली सरकार के पूर्व मुख्य सचिव शैलजा चंद्रा की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया जिसमें उन्हें दिल्ली स्कूल शिक्षा क़ानून-1973 में मौजूदा विसंगतियों को हटाने के साथ ही स्कूलों में शिक्षा के समुचित और व्यवस्थित उन्नति के उपाय सुझाने के लिए कहा गया। इसमें कोई दो राय नहीं कि कमेटी ने काबिल-ए-तारीफ़ बिंदु सुझाए। निजी कंपनियों की भागीदारी, एसेंशियलिटी सर्टिफिकेट हटाने से लेकर अनेक बिन्दुओं की सराहना हुयी। मगर अक्सर दिल्ली के कुछ फीसदी हिस्सों को सजा-संवार कर अपनी पीठ थपथपाने वाली दिल्ली सरकार को ये समझना होगा कि समूची दिल्ली का विकास तभी संभव है जब समूची दिल्ली को एक नज़र से देखा जाएगा। आज बाहरी दिल्ली के तकरीबन सभी सरकारी स्कूल अपनी दयनीय स्तिथि में हैं। हरियाणा व उत्तर-प्रदेश की सीमाओं से सटे होने की वजह से इन स्कूलों में क्षमता से अधिक बच्चे पढते हैं। कानून कहता है कि एक कक्षा में 40 से अधिक ब्च्चे नहीं होने चाहिए। जबकि इन स्कूलों में ऐसी कोई कक्षा नहीं जिसमें 70-80 बच्चे न हों, बल्कि दिल्ली के सीमापुरी,संगम विहार समेत कई ऐसे स्कूल हैं जिनमें एक-एक कक्षा में 100-100 बच्चे हैं। अध्यापकों के लिए भी इतने अधिक बच्चों को एक साथ पढा पाना असंभव है। दिल्ली के उत्तर-पूर्वी जिले के सर्वोदय कन्या विद्यालय, दयालपुर में तो आलम ये है कि यहाँ 9वीं और 11वीं कक्षा की छात्राओं को सख्त हिदायत दी गयी है कि वो सप्ताह में सिर्फ तीन दिन ही स्कूल आयेंगी। बाकी तीन दिन शेष छात्राएं स्कूल में शिक्षा ग्रहण करेंगी। यही हाल इस क्षेत्र के सर्वोदय कन्या विद्यालय, मुस्तफाबाद समेत कई स्कूलों का है जहाँ सोमवार को कक्षा की आधी छात्राएं आती हैं और मंगलवार को शेष। इसी तरह ये क्रम चलता रहता है। दयालपुर स्कूल की एक छात्रा ने बताया, कि मैं पिछली बार भी गणतंत्र दिवस का स्कूल में होने वाला कार्यक्रम नहीं देख पायी थी और इस बार भी मेरा नंबर नहीं आया। यानि कि किस्सा कोई दो-चार महीने पुराना नहीं सालों की समस्या है, जिसने पूरे अधिकारों के लिए लड़ रही आधी आबादी को आधी शिक्षा में नाप दिया। इन स्कूलों की दयनीय कथा यही नहीं रुकती जो बच्चे आधे दिन बमुश्किल पढने आ पा रहे हैं उन्हें भी पूर्ण व्यवस्था मयस्सर नहीं हो रही है। कुछ कक्षा में बैठने के लिए बेंच तो हैं मगर शेष कक्षाएं आज भी ठिठुरती ठंठ में दरियों पर ही लगती हैं। जिसमें दिल्ली सरकार का जौहरीपुर विद्यालय बेहद दयनीय है। यहाँ आज भी बच्चे इस हाई टेक सिटी में घर से बोरी लेकर पढ़ने आते हैं। दयालपुर स्कूल का ये आलम है कि सप्ताह में तीन दिन कक्षाएं लगने के बावजूद भी छात्राएं कक्षाओं से बाहर गैलरी में बैठने को मजबूर हैं। मुस्फाबाद स्कूल की एक छात्रा ने बताया कि हमारे स्कूल में शौंचालय का दरवाजा खराब है, किसी को साथ लेकर ही जाना होता है। मूलभूत सुविधाओं की ये हालत है, क्या स्कूल प्रशासन देश-दुनिया में लड़कियों के साथ होनी वाली अप्रिय घटनाओं से बिलकुल बेखबर है। 207 स्कूलों पर किये गए एक सर्वे के मुताबिक़ दिल्ली के 22 प्रतिशत स्कूलों में बाऊंड्री वाल तक नहीं है। 30 प्रतिशत स्कूलों में इस्तेमाल के लायक शौंचालय नहीं हैं। 30 प्रतिशत स्कूलों में इस्तेमाल योग्य खेल का मैदान नहीं है। जिनमें 80 फ़ीसदी से ज्यादा स्कूल दिल्ली के बाहरी हिस्सों के हैं। नाम न छापने की शर्त पर शिक्षा विभाग से जुड़े अधिकारी भी इस अव्यवस्था को स्वीकारते हैं मगर छात्र-छात्राओं की अधिक संख्या से उपजी समस्या मानकर चुप्पी साध लेते हैं। नाम गुप्त रखने की शर्त पर एक प्रधानाचार्या ने बताया कि समस्या तो है कि बच्चे चाह कर भी नियम पूर्वक नहीं पढ़ पा रहे हैं मगर हमारी भी मजबूरी है।हम सभी को एक साथ बैठा ही नहीं सकते। इतनी जगह ही नहीं है कक्षाओं में। सरकार इस संबंध में सोचे कि कैसे इस समस्या से निजात पाई जा सकती है। पिछले कुछ वर्षों के आंकड़ों को देखें तो दिल्ली में विद्यार्थियों की संख्या ८ लाख से बढ कर १५ लाख हो गयी है। मगर स्कूलों की संख्या और उनके भौगोलिक स्तर में क्या बदलाव हुआ है? दिल्ली सरकार के अधीन सभी 926 स्कूलों में नियम पूर्वक तो शून्य वैकेंसी होनी चाहिए मगर फिर भी आज शिक्षकों के हजारों पद स्कूलों में खाली पड़े हैं। जिन्हें सरकार प्रत्येक वर्ष अनुबंध पर रखे शिक्षकों से भरने की अल्पकालीन कोशिश करती रहती है। जिन्हें समय पर कभी वेतन नहीं मिलता। भ्रष्टाचार अपनी बाहें पसारे यहाँ भी खडा है। बोर्ड की परीक्षाओं में बाहर से आने वाला फिजिकल टीचर आज भी प्रत्येक बच्चे से 20 रूपये वसूले बिना नहीं छोडता, अब तो इसका भी स्वीकार्य नियम बन चुका है। बच्चे भले सप्ताह में तीन दिन आ रहे हैं मगर मिड डे मील पूरा आ रहा है, अब बाकी कहाँ जा रहा है? समझना कठिन काम नहीं है। सवाल तो ढेरों हैं, ऐसे में ये सवाल बडा वाजिब है कि शिक्षा का अधिकार क़ानून क्या इन स्कूलों में पढ़ने वाली छात्राओं पर लागू नहीं होता? क्यों ये 21वीं सदी में भी आधी शिक्षा पाने को ही विवश हैं? जबकि कहने को सरकार आज भी इन स्कूलों में पढने वाले प्रत्येक बच्चे पर हर माह एक हजार से अधिक रूपये खर्च करती है। मगर दुखद ये है कि वजीफे की राजनीति आज भी मूलभूत सुविधाओं का मर्म नहीं समझती। कम से कम दिल्ली को तो समझना चाहिए|
– अनूप आकाश वर्मा

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