हमारे मुसलमान भी क्या मुसलमान हैं?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन तलाक के सवाल को बड़ी संजीदगी के साथ उठाया है। उन्होंने बहुत दबी जुबान से मांग की है कि हमारी मुस्लिम बहनों के साथ न्याय होना चाहिए। उन्होंने साथ-साथ यह भी कह दिया कि इस मुद्दे पर मुस्लिम समाज में उठा-पटक नहीं होनी चाहिए। इस उठा-पटक की आशंका सबको ही है, क्योंकि मजहबी कट्टरपंथी, चाहे वे किसी भी धर्म या संप्रदाय के हों, वे अपना दिमाग ताक पर रखकर सोचते हैं। वे लकीर के फकीर होते हैं। वे यह मानकर चलते हैं कि मजहब इंसानों के लिए नहीं होता बल्कि इंसान मजहब के लिए होते हैं। न तो वे यह फर्क कर सकते हैं कि धर्म या मजहब में कौनसी बात सार्वदेशिक और सार्वकालिक है और न ही कौन सी बात देश और काल की सीमा से बाधित है?

जो बात दस हजार साल पहले ठीक थी, वह अब भी ठीक होनी चाहिए और जिस बात को  मक्का-मदीना या यरुशलम के लोग मानते थे, उसे सारी दुनिया के लोगों को मानना चाहिए। यह ठीक है कि सत्य, प्रेम, करुणा, न्याय, उदारता, दान आदि जैसे सदगुणों को आप दस हजार साल बाद भी मानें और सारी दुनिया में मानें तो भी कोई बुराई नहीं है लेकिन आप उस समय की भाषा ही बोलें, वैसे ही कपड़े पहनें, वैसे ही घरों में रहें, वैसे ही वाहनों में चलें, वैसा ही खाना खाएं और ऐसा ही दुनिया के हर कोने में करें तो यह धर्म का मजाक बनाना है। धर्म के समझने से ही मना करना है। यह धर्म के भूसे को चबाना है और उसके सार को हवा में उड़ा देना है।

तीन तलाक, निकाह हलाला, बहुपत्नीवाद, पशु-बलि, बुर्का, मांसाहार, ताबीज, आदि ये सब बातें किसी भी धर्म के शाश्वत और सार्वदेशिक लक्षण नहीं हो सकते। इन्हें देश-काल के मुताबिक बदलते रहना चाहिए। यही बात शरिया, रोमन और ग्रीक लॉ पर भी लागू होती है। आज स्त्री-पुरुष समानता का युग है। इसमें यदि आदमी तीन बार बोलकर औरत को तलाक दे सकता है तो औरत भी तीन बार बोलकर आदमी को तलाक क्यों नहीं दे सकती? यदि औरतों के लिए बुर्का पहनना लाजिम है तो आदमियों के लिए गतरा और कंदोरा (अरबों की वेषभूषा) पहनना लाजिम क्यों नहीं है? क्या अरबों की आंख मींचकर नकल करने से ही आप अच्छे मुसलमान बन जाएंगे?

कई अरब मुस्लिम देशों ने अपनी पुरानी घिसी-पिटी परंपराओं से छुटकारा पा लिया है लेकिन हमारे मुसलमान भी क्या मुसलमान हैं कि उन्हीं परंपराओं से चिपके हुए हैं। हमारे मुसलमानों को अपने आचरण से सिद्ध करना चाहिए कि वे दुनिया के सबसे बेहतरीन मुसलमान हैं। मुझे तो आश्चर्य होता है कि हमारे मुसलमान कितने बड़े पोंगापंथी हैं। भला इसी में हैं कि वे अपनी बुद्धि और तर्क को ताक पर न रखें।

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