फांसी के पीछे की स्याह सियासत

 सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

देश की अखंडता पर कुठाराघात करने वाले कसाब को इस दुनिया से रूखसत हुए 48 घंटे से भी ज्यादा हो गये । इसके बावजूद आमजन की चर्चाओं में वो आज भी जिंदा है । ये बात कहने से मेरा आशय है उसकी मौत पर छिड़ी सियासी चर्चाएं । स्मरण रहे कि आमजन के बीच होने वाली चर्चाओं को ज्यादा तवज्जो नहीं मिलती,अतः आमजन के बीच चल रही बातें एक स्तर के बाद दम तोड़ देती हैं । अब जब की कसाब मर चुका है तो माजरा है उसकी मौत का श्रेय लूटने का । बड़े अफसोस की बात है कि कांग्रेसी नेता बयान देते वक्त आगे पीछे कुछ भी नहीं सोचते । उनकी ये गलतफहमी की जनता बेवकूफ है,कई बार ऐसे बयान भी दिलवा देती है जिससे उनके आपस के बयानों में ही विरोधाभास साफ झलकने लगता है । यथा महाराष्ट सरकार में राक्रांपा पार्टी के कोटे से गृहमंत्री की कुर्सी पर विराजमान आर आर पाटिल ने कहा कि वो इसकी तैयारी दो महीने पहले से कर रहे थे । इस मामले में जमीनी हकीकत जो अखबारों और अन्य विश्वस्त सूत्रों से हमारे सामने आई वो ये है कि कसाब की दया याचिका प्रणब दा ने इसी महीने की 5 तारीख को नामंजूर की थी । विचारणीय प्रश्न है कि जो मुद्दा 5 नवंबर तक अधर में था उस पर कैसी तैयारी ? दूसरी बात या तो उन्हे भविष्य का पूर्वानुमान हो जाता है? तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि एक प्रदेश का गृहमंत्रालय संभालने वाले नेता की केंद्र के फैसलों में कितनी दखल होती है? बहुधा तो नहीं होती यदि वास्तव में ऐसा है तो ये खेदजनक बात है । जो मामला सर्वोच्च न्यायालय से होते हुए सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचा उस मामले में पाटिल साहब की क्या भूमिका रह जाती है? अतः प्रथम दृष्टया अगर देखें तो ये मामला साफतौर बयानबाजी से समां लूटने का ही लगता है । बहरहाल कांग्रेस में बयानों से सनसनी फैलाने वाले नेताआंे की एक पूरी कतार है । इस मामले में अगला बयान आया माननीय शिंदे साहब का तो उन्होने अपनी महत्ता दर्शाने में कोई कसर नहीं उठा रखी । उन्होने कहा कि इस बात की खबर सोनिया जी तो दूर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक को नहीं थी । सोचिये उनके इस बयान से क्या संदेश क्या निकलते हैं ? मनमोहन जी का अपने मंत्रियों पर कोई नियंत्रण नहीं है ? अथवा केंद्र सरकार के मंत्रियों के बीच किसी भी बड़े मुद्दे पर निर्णय लेने से पूर्व आपसी चर्चा तक नहीं होती ? स्मरण रहे कि ये शिंदे साहब वही व्यक्ति हैं जिन्होने गृह मंत्रालय संभालने के तत्काल बाद कांग्रेस की परंपरा का निर्वाह करते हुए माननीय सोनिया जी के प्रति कृतज्ञता प्रकट की थी । व्यवहारिक तौर पर भी देखें कांग्रेस पार्टी का कोई भी निर्णय गांधी परिवार की बगैर सहमति के नहीं लिया जाता । इसी क्रम में कांग्रेस के अन्य बड़े नेताओं ने भी शब्दों की लफ्फाजी से गुरेज नहीं किया । अतः इन सभी बातों का सार तत्व बस इतना है कि इन्ही बयानों के माध्यम से कांग्रेस अपने इस मजबूरन लिये गये फैसले को बासी नहीं पड़ने देना चाहती ।

उपरोक्त पंक्तियों में प्रयोग किये गये शब्द मजबूरन लिये गये फैसले से मेरा आशय स्पष्ट है । एक ऐसा फैसला जिसको लिये बिना सत्ता का संचालन फिलहाल मनमोहन जी के लिये मुश्किल हो चला था । इस बात को कुछ दिनों पूर्व ही लिये गये मुलायम सिंह यादव के निर्णय से समझा जा सकता है । उन्होने आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर उत्तर प्रदेश की 55 लोकसभा सीटों पर अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी । प्रत्याशियों की घोषणा के समय दिये अपने बयान में उन्होनें सपा कार्यकर्ताओं का उत्साहवर्धन करते हुए कहा था कि देश में मध्यावधी चुनावों की पूरी संभावना है । यह भी संभव है कि आगामी चुनाव 2014 के स्थान पर 2013 में ही हो जाएं । ध्यातव्य हो कि सरकार को बाहर से समर्थन देकर स्थिर बनाये रखने वाले दल के प्रमुख नेता का ये बयान क्या प्रदर्शित करता है? दूसरी ओर उत्तर प्रदेश की ही एक अन्य सियासी सूरमा मायावती के तेवर विगत कुछ दिनों से बदल रहे हैं । इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है उत्तर प्रदेश के सपा और बसपा जैसे दोनों ही दल सियासी मजबूरियों के चलते कांग्रेस समर्थित सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं । इन हालातों में इनमें से कोई भी दल कड़े तेवर दिखाता तो दूसरा अपने आप ही बगावत कर सरकार को गिरा देगा । इस वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए मनमोहन सरकार पर बढ़ते दबाव का सहज ही अंदाजा लगाय जा सकता है । महंगाई,घोटाले समेत विभिन्न मुद्दों में घिरी कांग्रेस को वापसी के लिये पलटवार करना मजबूरी बन गया था । अतः कसाब की फांसी ने कहीं न कहीं कांग्रेस को बड़ी राहत दे दी है । अर्थात उसे एक ऐसा मुद्दा मिल गया है जिसपे यदि सरकार जाती है तो उसे जनता की सहानुभूति मिलने की पूरी संभावना है ।

इस मामले के दूसरे पक्ष को देखें तो वो और भी प्रासंगिक है । गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव,इन चुनावों के पूर्व के कांग्रेसी इतिहास को उठाकर देखें तो कांग्रेस गुजरात में अपनी आखिरी संासें गिन रही है । अब प्रश्न है कांग्रेस को आगामी चुनावों में अपना अस्तित्व प्रदर्शित करने का । यहां सबसे मुख्य बात है नरेंद्र मोदी का बढ़ता कद । गुजरात के समीकरणों को अगर ध्यान से देखें तो यहां का राजनीतिक समीकरण कांग्रेस अथवा भाजपा बनाम नहीं रह गया । यहां का मामला नरेंद्र मोदी बनाम अन्य हो चुका है । इस बात को लाख दरकिनार करने का प्रयास किया जाय लेकिन गुजरात का बीते दस वर्षों का इतिहास तो यही साबित करता है । इस मुद्दे पर अमेरिका,ब्रिटेन समेत विभिन्न बड़े देशों की मुहर लग जाने से ये बात कांग्रेस के गले में फांस की तरह चुभ रही है । तब से अब में कुछ भी नहीं बदला है न तो कांग्रेस ने कोई बड़ा तीर मारा और न ही मोदी का नाम किसी घोटाले के साथ जुडा है । इस बात को कांग्रेस द्वारा विभिन्न न्यूज चैनलों पर चलाए रहे विज्ञापनों से भी समझी जा सकती है। अंततः कांग्रेस जिस बात से अति उत्साहित है वो है केशु भाई पटेल की बगावत । कांग्रेस इस मुद्दे को भुनाने में कोई भी कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहती । हांलाकि ये सब कर के भी कांग्रेस एक भारी भूल कर रही है कि फिलहाल मोदी के व्यक्तित्व को इस तरह की बगावतों से कोई फर्क नहीं पड़ता । फिर चाहे बात शंकर सिंह बाघेला की हो या संजय जोशी की अथवा अब केशुभाई पटेल की । नरेंद्र मोदी की इस अजेय छवि का संबंध कहीं न कहीं उनके देश प्रेम से जुड़े सरोकारों को भी जाता है । ऐसे में कसाब जैसे आतंकी को जिसे चार साल तक भली भांति पाला पोसा गया को अचानक फांसी देने का क्या तुक बनता है । कारण स्पष्ट है स्वयं को देशभक्त दल के रूप में जनता के बीच प्रस्तुत करना ।

कसाब को अचानक फांसी देने का एक कारण और भी हो सकता है । शतरंज के खेल में शह और मात के बीच राजा को बचाने के लिये कई बार प्यादों की बली भी दी जाती है । जहां तक कसाब का प्रश्न है तो वो पाकिस्तान से चलने से पूर्व ही इस तल्ख हकीकत से भली भांति परिचित था कि उसे मरना है । उसकी भूमिका निश्चित तौर पर देश की आर्थिक राजधानी मुंबई को खौफजदा करने से जुड़ी थी । यहां प्रश्न उठता है कि क्या हमारे राजनेता अपनी देश से जुड़ी जिम्मेदारियों का कुशलतापूर्वक निर्वाह कर पाये ? जवाब हमेंशा ना में ही मिलेगा । कसाब की फांसी की घटना को भी देखीये तो ये भी मजबूरी में लिया गया निर्णय लगता है । अन्यथा क्या वजह है कि कसाब की फांसी का कोई भी आधिकारिक वीडियो सरकार द्वारा जारी नहीं किया गया ? वीडियो तो दूर की बात है भारत सरकार ने उसकी मृत फोटो तक जारी करने की जहमत नहीं उठाई । यहां सबसे बड़ी बात है जल्दबाजी में उसे यरवदा जेल में दफना देना । इन सारे तथ्यों से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि ये सरकार का दृढ़ता से लिया गया नहीं वरन मजबूरी में लिया गया निर्णय है । मामले को अंजाम तक पहुंचाने तक की गोपनीयता की बात तो समझ में आती है लेकिन उसके बाद की गोपनियता वाकई संदिग्ध है । किस बात से डरी हुई थी सरकार ?या ऐसे कौन से लोग हैं जिन्हे कसाब की मौत से कष्ट हुआ होगा? बताने की आवश्यकता नहीं है कि वे लोग कौन हैं । अब ये बात यहीं से अफजल गुरू तक पहुंच जाती है । स्मरण रहे कि संसद पर हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरू की फांसी का मामला कसाब से तीन वर्ष पूर्व का है । अगर वैधानिक प्रक्रियाआंे के हिसाब से क्रमवार सजा देने की बात की जाय तो अफजल गुरू का क्रम निश्चित तौर पर कसाब से पहले ही आता । क्या वजह है अफजल के मामले को लटकाने की? ध्यान दीजियेगा कांग्रेस की राजनीति शुरूआत से ही वोटबैंक केंद्रित रही है । इस दल पर अक्सर ही तुष्टिकरण अथवा बांग्लादेशी घुसपैठियों को संरक्षण देने के आरोप भी लगते रहे हैं । कांग्रेस ऐसा कोई भी निर्णय नहीं ले सकती जिससे उसका परंपरागत वोट बैंक नाराज हो । आगामी लोकसभा में अपनी वर्तमान छवि को देखते हुए उसकी वापसी भी असंभव ही है । ऐसे में एक तीर से दो शिकार करना कांग्रेस की सियासी मजबूरी थी । कसाब पर कठोर निर्णय से एक ओर तो देशभक्त मतदाताओं में उल्लास है तो दूसरी ओर इस मामले को हवा देकर उसने अफजल गुरू को संास भी दे दी है । इस बात एक कांग्रेसी कद्दावर के बयान से बखूबी समझा जा सकता है जिसमें उन्होने कहा था कि अफजल की फांसी से सुलग उठेगी काश्मीर की घाटी । ये बात क्या साबित करती है क्या देश की सत्ता पर चरमपंथियों का अघोषित कब्जा है ? अतः मास्टर माइंड को बचाने के लिये निश्चित तौर पर प्यादे की बली देना आवश्यक हो गया था । अंततः कांग्रेस के इस चरित्र पर दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां काबिलेगौर हैं:

अब किसी को भी नजर आती नहीं कोई दरार,

घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार ।

 

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