एफडीआइ पर कड़ी अग्निपरीक्षा-अरविंद जयतिलक

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एफडीआइ पर सत्तापक्ष और विपक्ष की खींचतान के बीच यह शुभ संकेत है कि दोनों पक्ष सदन चलाने को राजी हो गए हैं। यूपीए सरकार ने अपनी जिद् का परित्याग कर मत विभाजन वाले नियम के तहत चर्चा की हामी भर दी है। शीतकालीन सत्र के पहले दिन से ही विपक्ष अपनी मांग पर अड़ा हुआ था कि एफडीआइ पर मत विभाजन वाले नियम के तहत ही चर्चा हो। सरकार उसे टालने की कोशिश में दलील दी कि प्रशासनिक निर्णय पर मत विभाजन वाले नियम के तहत चर्चा विधि के अनुकूल नहीं है। लेकिन विपक्ष उसे ठुकरा दिया और सरकार को घुटने पर आना पड़ा। अब सवाल यह उठ खड़ा हुआ है कि जब सरकार को विपक्ष की मांग स्वीकारनी थी फिर उसे नाक का विषय बनाकर पांच दिन तक संसद जाम क्यों किया गया? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? जब सहमति ही अंतिम विकल्प था तो यह कार्य शीतकालीन सत्र से पहले भी किया जा सकता था। विपक्ष ने संकेत भी दिया था कि वह लोकसभा में नियम 184 और राज्यसभा में नियम 168 के तहत चर्चा और मतदान से कम पर मानने वाला नहीं है। बावजूद इसके सरकार ने गंभीरता नहीं दिखायी जो उसकी हठधर्मिता को ही रेखांकित करता है।

संसद के मूल्यवान चार-पांच दिन गंवाने के बाद उसका नींद से उठकर आम सहमति बनाना सराहनीय तो है लेकिन देर से किया गया पहल है। इन चार-पांच दिनों में कई महत्वपूर्ण विधेयक पारित हो सकते थे। अब सरकार का यह कहना कि विपक्ष की हठधर्मिता की वजह से संसद का बेषकीमती समय बर्बाद हुआ स्वीकारा कठिन है। दो राय नहीं कि संसद न चलने देने के लिए विपक्ष भी उतना ही जिम्मेदार है जितना कि सत्ता पक्ष। लेकिन एफडीआइ के मसले पर सरकार विपक्ष को कोसकर अपना बचाव नहीं कर सकती। चूकि उसने वादा किया गया था कि एफडीआइ पर वह सभी राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श करेगी। लेकिन वायदे की कसौटी पर खरा नहीं उतरी। नतीजा सामने है। उसकी सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस उससे अलग हो चुकी है और एफडीआइ के खिलाफ लोकसभा में अविश्‍वास प्रस्ताव भी ला चुकी है। यह अलग बात है कि उसे समर्थन नहीं मिला। सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे सहयोगी दल मसलन सपा और बसपा भी एफडीआइ के सवाल पर उसके साथ नहीं हैं। ऐसे में विपक्ष अगर सरकार पर आरोप लगाता है कि वह अल्पमत में है और उसे निर्णय लेने का हक नहीं है अनुचित क्या है। चूंकि एफडीआइ पर देश में बहस जारी है और उससे होने वाले लाभ-हानि को लेकर देश में भ्रम है, ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी बनती ही थी कि वह सभी राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श करे। लेकिन उसने बेहतरीन मौका गंवा दिया। अब अगर विपक्ष चाहता है कि इस मसले पर संसद में तार्किक चर्चा हो और राजनीतिक दल उसके पक्ष-विपक्ष में मतदान करे तो यह गलत नहीं है। इन सबके बीच एक बात शीशे की तरह साफ हो गयी है कि सरकार विपक्ष के मत विभाजन वाले नियम के तहत बहस की मांग को तभी स्वीकारी जब उसे अपने सहयोगी दलों के समर्थन का मजबूत भरोसा मिल गया। द्रमुक सुप्रीमों करुणानिधि का सरकार के शामियाने में जाना इसकी गवाही देता है। कल तक तक करुणानिधि की द्रमुक पार्टी इंकलाब लगा रही थी कि वह रिटेल में एफडीआइ के विरुद्ध है। वह संसद में सरकार के खिलाफ मतदान करेगी। लेकिन अचानक उसका निश्ठा बदलना कई तरह के सवाल खड़ा करता है। द्रमुक की दलील है कि वह भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में आने से रोकने के लिए यूपीए सरकार का समर्थन करेगी। सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे सपा और बसपा का रुख भी संदिग्ध है। संसद में मत विभाजन के दौरान वे क्या निर्णय लेंगे अभी से किसी निष्‍कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। दोनों दल अपने पत्ते पूरी तरह खोलने को तैयार नहीं हैं। लेकिन भ्रम पैदा करने वाली उनकी बयानबाजी एक तरह से सरकार का भरोसा जगाने वाली है। सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव फिलहाल एफडीआइ के खिलाफ हुंकार भर रहे हैं। लेकिन वे कब पलटीमार सरकार के साथ खड़ा हो जाएंगे कुछ कहा नहीं जा सकता। परमाणु करार के मसले पर वे पहले वामदलों के साथ थे लेकिन शक्ति परीक्षण के दौरान यूपीए सरकार के पाले में चले गए। फिलहाल सपा का कहना है कि अगर रिटेल में एफडीआइ पर राज्यसभा में चर्चा हुई तो वह सरकार के खिलाफ मतदान करेगी। लेकिन वह यह बताने को तैयार नहीं है कि लोकसभा में उसका रुख क्या होगा? कमोवेष यही स्थिति बहुजन समाज पार्टी की भी है। संसद में अपनी रणनीति का खुलासा करने की बात कह असमंजस बनाए हुए है। चर्चा है कि इस रणनीति के तहत वह प्रमोषन में आरक्षण को लेकर यूपीए सरकार पर दबाव बना रही है। सच जो भी हो लेकिन सत्तापक्ष के रुख से यही प्रतीत होता है कि उसे सपा और बसपा की ओर से लोकसभा में समर्थन का भरोसा मिल चुका है। सत्र के पहले दिन देखा भी गया कि सपा एफडीआइ के बजाए रसोई गैस सिलेंडर पर और बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश में बिगड़ते कानून-व्यवस्था और प्रमोषन में आरक्षण पर केंद्रीत हुई। इससे स्पष्‍ट होता है कि दोनों दल सरकार के साथ हैं। उनके लिए रिटेल में एफडीआइ मसला सिर्फ सियासी है न कि सैद्धांतिक। सपा कह भी चुकी है कि वह उत्तर प्रदेष में एफडीआइ के खिलाफ है। यानी इसका मतलब यह हुआ कि उसका एफडीआइ का विरोध सिर्फ उत्तर प्रदेश तक सीमित है। इस लिहाज से सपा के विरोध को सरकार गंभीरता से नहीं ले रही है। जहां तक चर्चा के बाद सदन में मत विभाजन का सवाल है तो सरकार के लिए लोकसभा में कोई खतरा नहीं है। लोकसभा में कुल सदस्यों की संख्या 544 है। एफडीआइ पर सरकार के पक्ष में 257 और विरोध में 244 का आंकड़ा स्पश्ट है। उसे बहुमत हासिल करने के लिए 272 का आंकड़ा छूना होगा। ऐसे में सपा और बसपा उसके लिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं। उनका रुख क्या होगा यह तो मौके पर पता चलेगा लेकिन माना जा रहा है कि दोनों दल सरकार के पक्ष में भले मतदान न करे लेकिन लोकसभा से अनुपस्थित रहकर उसकी मदद जरुर करेंगे। सरकार की असली चिंता राज्यसभा को लेकर है। राज्यसभा की मौजूदा संख्या 244 है। यूपीए के सदस्यों की संख्या 95 हैं। सदन के 10 मनोनित सदस्य सरकार के पक्ष में समर्थन कर सकते हैं। इसके अलावा सरकार की निगाहें 7 निर्दलीय सदस्यों पर भी है जिनमें 3-4 आसानी से उसके पाले में सकते हैं। लेकिन उसे जीत तभी हासिल होगी जब 15 सदस्यों वाली बसपा और 9 सदस्यों वाली सपा उसका समर्थन करेंगी। फिलहाल सरकार का हौसला बुलंद है और उसके आत्मविश्‍वास को देखते हुए नहीं लगता है कि सपा और बसपा उसकी राह में चुनौतियां परोसेगी। सरकार भले ही बहुमत का जुगाड़ कर आश्‍वस्त हो लेकिन सरकार को समर्थन कर रही सपा और बसपा के लिए संसद में मतविभाजन किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं होगा। उनका असली सच देश के सामने आना तय है। सैंद्धांतिक तौर पर दोनों एफडीआइ के विरोध में हैं। इस मसले पर सपा भारत बंद का आयोजन भी कर चुकी है। खुद मुलायम सिंह वामदलों के साथ गलबहियां कर सरकार के खिलाफ गरजते-बरसते सुने-देखे गए। बंद के दौरान विपक्षी दलों द्वारा देश को समझाने की कोशिश किया गया कि रिटेल में एफडीआई आने से पहाड़ टूट पड़ेगा। लोग बेरोजगार हो जाएंगे। देश की अर्थव्यवस्था चैपट हो जाएगी। आर्थिक संसाधन पर विदेशी कंपनियों का कब्जा होगा। किसान दरिद्र मजदूर बन जाएंगे। यह भी गाल बजाते सुने गए कि संसद में लामबंद होकर वे एफडीआइ का विरोध करेंगे।

अब जब 4 व 5 दिसंबर को लोकसभा और राज्यसभा में मत विभाजन होना तय है तो देखना दिलचस्प होगा कि विपक्षी दलों की कथनी और करनी में कितनी समानता है। अगर वे अपने वचन पर कायम नहीं रहे तो फिर उनके लिए देश को जवाब देना मुश्किल होगा। उनकी यह दलील काम नहीं आएगी कि सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता से दूर रखने के लिए वे एफडीआइ या यूपीए सरकार का समर्थन किए।

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