जितनी भरी चाभी, उतना चले खिलौना
डॉ. दीपक आचार्य
अब जमाना सेल्फ चार्ज या सेल्फ लर्निंग का नहीं है बल्कि अब जो कुछ होता है सब चार्जेबल है। चार्ज नहीं तो कुछ नहीं। चार्ज हुआ तो चलेगा और नहीं हुआ तो मरा या अधमरा बेदम पड़ा रहेगा।
जमाने की हवाओं को देख लगता है कि जड़ हो या चेतन सभी कुछ चार्ज होने पर ही चलते हैं। हम अपने रोजमर्रा काम आने वाले संसाधनों और विलासिता की वस्तुओं को ही ले लें, हालत ये है कि इनमें से एकाध भी चार्ज न हो पाए तो हम लोग खुद ऎसे हो जाते हैं जैसे मरे हुए हों या अधमरे।
बेजानों को चार्ज करके जान फूँककर काम चलाने तक की बात होती तो चलता। लेकिन आजकल वे सब भी बिना चार्ज के नाकारा और बेदम पड़े रहते हैं जिनमें जान कही जाती है। ये लोग तभी तक जानदार रहते हैं जब तक कि चार्ज किए हुए हों अन्यथा धड़ाम से बेजान हो पड़े रहते हैं।
अब आदमी भी उन चीजों में शुमार हो गया है जिन्हें चार्ज करने की जरूरत होती है। पुराने जमाने में जिसे प्रेरणा, प्रोत्साहन और सम्बल कहा जाता रहा है उसे ही आज परिमार्जित कर दिया गया है चार्जिंग के रूप में। कोई गॉड फादर से तो कोई बड़े अफसरों, रिश्तेदारों और नेताओं से चार्ज होता है, कोई बाहुबलियों से, अपराधियों से तो कोई बड़े लोगों से चार्ज होते रहने का दंभ पाले रहता है। इनके जीवन से इन चार्जरों को हटा दो तो फिर ये पूरी जिन्दगी निष्प्राण पड़े रहते हैं।
आजकल कोई भी आदमी अपनी बुद्धि या इच्छा से नहीं चलता। बिरले लोग ही होते हैं जो अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए बुद्धि बल और इच्छाओं के अनुरूप अपनी दिशा और दशा तय करते हैं। वरना अधिसंख्य लोग तो ऎसे हैं जो दूसरों की बुद्धि और इच्छाओं पर रोबोट की तरह चलने और काम करने लगे हैं।
इनमें बुद्धिहीनों, मन्दबुद्धि वालों और उन्मादी, अद्र्ध या पूर्ण विक्षिप्त लोग दूसरों के इशारों पर काम करें, पराश्रित रहें तो बात समझ में आती है मगर आजकल लोग ईश्वर की दी हुई बुद्धि होते हुए उस पर ताला लगा देते हैं और अपने दिल और दिमाग की चाभी उन लोगों को सौंप देते हैं जो उनके आका कहे जाते हैं। जरूरी नहीं कि ये आका स्थायी हों, बल्कि वक्त जरूरत और स्वार्थ के मुताबिक इनमें बदलाव भी अवश्यंभावी है।
हालात ये हो गए हैं कि लोग भेड़ों की रेवड़ की तरह इधर-उधर हर तरफ भाग दौड़ कर रहे हैं। कोई किसी के लिए दौड़ लगा रहा है तो कोई किसी के लिए काम कर रहा है। लोग किचन से लेकर बाथरूम्स और बेडरूम्स तक पालतुओं की तरह काम करने लगे हैं।
आकाओं के इशारों पर चलने वाले इन लोगों की हालत ये है कि जितनी चाभी भरी आका ने, उतना चले खिलौना। ये आका भी अच्छी तरह जानते हैं कि जमाने और बाजार में खूब भेड़ें हैं जो बिकाऊ और टिकाऊ हैं और इन्हें चाहे जिस तरह से काम में लिया जा सकता है।
चाहे गधों के रूप में बोझा ढोना हो या सूअर, गिद्धों की तरह गंदगी साफ करनी हो, लोमड़ों की तरह चालाकियों भरे कामों को अंजाम देना हो या फिर जात-जात के कुत्तों की तरह गुर्राना और भौंकना। किसी का निवाला छीनना हो या कहीं आग लगाना, काम तमाम करना हो या तस्करी, चोरी-चपाटी, लूट और कहीं डाका ही क्यों न डालना हो। छीना-झपटी करनी हो या किसी के बारे में दुष्प्रचार करना हो या फिर आकाओं की अथवा आकाओं के आकाओं की चम्पी, मालिश-नालिश करनी हो, सब्जी और अण्डे लाने से लेकर गिफ्ट आइटमों या गांधी छाप, स्वर्ण-रजत सामग्री का जुगाड़ करना हो। इन सभी में माहिर होते हैं चार्जेबल लोग। ये लोग पूरी जिन्दगी परायी बुद्धि पर चलते हैं और पालतुआे की तरह व्यवहार करते हुए उम्र गुजार देते हैं। अपने इलाके में भी ऎसे पालतुओं की कहाँ कोई कमी है। एक ढूंढ़ों हजारों मिल जाएंगे।
आजकल ऎसे लोगों को चार्ज करने के लिए कई नए-नए नुस्खें निकल गए हैं। कुछ लोग जो अपने आपको पढ़ा-लिखा मानते हैं वे शालों, साफोंं, पगड़ियों और प्रशस्ति पत्रों, पुरस्कारों, मनचाहे ट्रांसफर/पोस्टिंग से ही चार्ज हो जाते हैं।
कई लोग फोकट की चाय, कचोरी-समोसों, भेल-पुड़ी, पकौड़ों, मावा, मलाई, आइसक्रीम और जूस से लेकर किसम-किसम की दारू और बीयर से चार्ज हो जाते हैं। कईयों के लिए मुफ्त का डिनर और लंच भी चल जाता है।
कई लोग ऎसे हैं जिन्हें चार्ज करने के लिए कुर्सियों का लोभ-लालच देना होता है तो कई गांधी छाप की गड्डियों से चार्ज होते हैं। चार्जेबल आदमियों की किस्में हजार हैं। कई लोग दिन के कामों से खुश हो जाते हैं तो कई ऎसे हैं जो उन सभी कामों से चार्ज होते हैं जो रात के अंधेरे में किए जाते हैं। ये रात वाले चार्जेबल विचित्र किस्म के होते हैं। इनके लिए हर बार चार्जर बदलने की जरूरत पड़ती है।
लोगों की एक किस्म वो भी है जो दूसरों के मन और दिमाग से निकली बातों को ही बोलते हैं, इनमें इनकी कोई बुद्धि या विवेक का इस्तेमाल नहीं होता। ये तोप या तोते की तरह वे ही उगलते-बोलते हैं जो उनके आका कहते हैं या सोचते हैं। इनके लिए सच या झूठ का कोई पैमाना नहीं होता है।
कई तो ऎसे हैं जिनके लिए एक नहीं अनेक आका होते हैं और ये लोग इस हिसाब से मैनेज करते हैं कि हर आका की इच्छा का सम्मान करते हुए नाचते रहते हैं। एक से दूसरे आकाओं को इनकी मोबाइल स्वामीभक्ति की भनक तक नहीं लगने पाती।
कई बार आकाओं की श्रृंखला से विचार और जोब चार्ट उतरते हैं। ऊपर से जो चर्चाएं आती हैं उन्हें दूसरों तक पहुंचाने का काम बाद के आका और उनके पालतुओं के जिम्मे ही होता है।
आजकल ढेरों लोग ऎसे हैं जिन्हें और लोग जैसा चार्ज करते हैं वैसी भाषा बोलते हैं और वैसा ही व्यवहार करते हैं। ईश्वर द्वारा दी हुई बुद्धि और विवेक का अनादर कर औरों के इशारों पर कुत्तों की तरह दुम हिलाने और भौंकने वाले पालतुओं की हर हरकत उस ईश्वर का भी अपमान है जिसने उन्हें स्वतंत्र और संप्रभु बनाकर भेजा होता है।
जो लोग अजीबोगरीब हरकतें करते हैं, मनुष्य होकर भी पालतुओं की तरह अनचाहा व्यवहार करते हैं और अपने आकाओं के इशारों पर बन्दरों की तरह नाचते हैं उनके प्रति घृणा का भाव न रखें क्योंकि वे जो कर रहे होते हैं उसके पीछे उनका नहीं बल्कि उन शैतानों का दिमाग होता है जो कभी दिखते हैं और बहुधा पर्दे के पीछे रहते हैं अथवा अदृश्य भूमिका का निर्वाह करते हैं।
ऎसे पालतुओं और चार्जेबल लोगों के लिए दया का भाव रखें और इन पर तरस खाते हुए करुणा बनाए रखें क्योंकि संसार भर में दया और करुणा तथा क्षमा भाव का कोई मुकाबला नहीं।