वह गोद मेरी लेट कर !

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वह गोद मेरी लेट कर, ताके सकल सृष्टि गया;
मेरी कला-कृति तक गया, झाँके प्रकृति की कृति गया !

देखा कभी मुझको किया, लख दूसरों को भी वह गया;
मन की कभी कुछ कह गया, वह सुने सब उर सुर गया !
प्राय: पलट सहसा उलट, वह अनेकों लीला किया;
मन माधुरी से भर दिया, तन प्रफुल्लित पुलकित किया !

अनुभूति लख आनन्द मख, आलोक आत्मा को दिया;
प्रणवित चकित थिरकित किया, सम्भूति उद्बोधन किया !
मैं चरण उसके चुहल कर, कर कमल को सहला दिया;
स्मित नयन प्रभु देखकर, ‘मधु’ को इशारा कर दिया !

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