मानवीयता और राष्ट्रीयता मूल्यों को भ्रमित करती भारद्वाज की ‘हैदर’

haiderभारतीय फिल्म जगत एक ऐसा रंगमंच है जहां हर शुक्रवार एक नई फिल्म एक नई पठकथा और एक नई कहानी के साथ देश के कोने-कोने मे विभिन्न सिनेमाघरों मे उतरती है। प्रतिस्पर्धा के इस दौर मे हर एक अभिनेता/अभिनेत्री, निर्देशक और निर्माता दर्शको की थाली मे कुछ ऐसा परोसने की कोशिश करते हैं जो लोगो को आकर्षित कर उन्हे ‘सिनेमा-हॉल’ तक खींच लाए। कला, मनोरंजन एवं साहित्य की इस रंग-बिरंगी दुनिया मे फिल्मे ही समाज को ‘सच का आईना’ दिखाने का प्रयत्न करती हुई दिखती है। बॉलीवुड ने आज तक लगभग हर मुद्दे पर फिल्म बनाई है चाहे वो किसी सामाजिक बुराई जैसे ‘दहेज’, ‘गरीबी’ और ‘बेरोजगारी’ को उजागर करना हो या फिर ईमानदारी एवं भ्रष्टाचार को नैतिकता के पैमाने पर जाँचना।

 हाल मे ही शाहिद कपूर स्टारर वाली विशाल भारद्वाज की फिल्म “हैदर” देशभर के सिनेमाघरों मे प्रदर्शित हुई। फिल्म मे शाहिद के अलावा श्रद्धा कपूर, के.के. मेनन और तब्बू ने मुख्य भूमिकाए निभाई है। आलोचको ने फिल्म के सभी कलाकारों के अभिनय की जमकर तारीफ की है। आम लोगो से भी फिल्म को अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है। पर कुछ लोगो ने फिल्म की मूलभूत सोच पर थोड़ा प्रश्नचिन्ह जरूर लगाया है उनका मानना है कि फिल्म देश की ‘राष्ट्रीयता-मूल्य’ के भाव को प्रदशित करने मे पूरी तरह से नाकाम रही है।

फिल्म के निर्देशक विशाल भारद्वाज ने इससे पहले भी ‘ओमकारा’, ‘कमीने’ और ‘इश्किया’ जैसी विवादास्पद फिल्मों का निर्देशन किया है और अब ‘हैदर’ भी विवादों से घिरी हुई नज़र आती है। मगर इस बार मामला अत्यंत-गंभीर नजर आता है, देश की अस्मिता और गौरव से जो जुड़ा हुआ है। भारद्वाज ने अपनी फिल्म मे भारतीय सेना की छवि को खराब करने का काम किया है। यह फिल्म कश्मीर जैसे अति-संवेदनशील मुद्दे का वैश्विक मंच पर भारत का पक्ष कमजोर करती है। भारत ने कश्मीर को आज़ादी के बाद से ही अपना अभिन्न अंग बताया है उधर दूसरी तरह ‘हैदर’ मे भारद्वाज ने कश्मीर को भारत के ‘ग़ुलाम’ के रूप मे प्रस्तुत किया है। फिल्म मे कुछ ऐसे संवाद है जो भारत की ‘लोकतान्त्रिक-सौंदर्यता’ को सीधे आघात पहुंचाते है। जैसे एक सीन मे शाहिद कपूर ‘डिमिलिट्राइज़ेशन’ अर्थात ‘ असैनिकीकरण की बात करते है जिसका सीधा मतलब है भारत को कश्मीर से सेना हटा लेनी चाहिए। एक तरफ ‘इंतकाम से सिर्फ इंतकाम पैदा होता है” जैसे डायलॉग फिल्म की ‘मानवीयता’ मूल्य को दर्शाते हुए सीधा दिल को छूते हैं वही दूसरी तरफ भारत-विरोधी संवाद और कश्मीर की दीवारों पर “GO INDIA…GO BACK” जैसे स्लोगन का प्रदर्शन राष्ट्र की ‘अखंडता’ एवं ‘राष्ट्रीयता’ को हमला करने जैसा ही है। ऐसा लगता है की पूरी फिल्म ‘कश्मीर की आज़ादी’ की मांग का समर्थन करती हुई नज़र आती है। यहाँ तक कि कश्मीर पंडितों ने भारद्वाज पर आरोप लगाया है कि उन्होने कश्मीर के मार्तंड मंदिर को शैतान के घर के रूप में दिखा कर हिन्दू धर्म की भावनाओ को ठेस पहुंचाने का काम किया है। देशभर के कई वर्गो से फिल्म को प्रतिबंधित करने की मांग उठने लगी है।

 कुछ कथाकथित बुद्धिजीवियों ने सोशल मीडिया और अन्य मंचो पर ‘हैदर’ का समर्थन भी किया है। उनका कहना है भारद्वाज की इस फिल्म को कला एवं मनोरंजन का ही ‘समान’ समझना चाहिए। वह तर्क देते है कि ‘हैदर’ को ‘राष्ट्रीयता’ से जोड़ कर देखना फिल्म के साथ ज्यादती करने के अनुरूप होगा। पर बड़ा प्रश्न यह है कि आप ‘कला’ एवं ‘मनोरंजन’ के नाम पर देश की अस्मिता और गौरव का सौदा कैसे कर सकते है? जिस ‘कश्मीर’ के लिए भारत आज़ादी के बाद से पाकिस्तान के आमने-सामने है उसी ‘कश्मीर’ को आज़ाद करने का ‘हैदर’ पुरजोर समर्थन करती है। मानो भारत के फिल्म जगत का ‘सेंसर-बोर्ड’ अपना ‘सेंस’ खो बैठा है उसके पदाधिकारियों मे इतनी ‘बुद्धि’ एवं ‘परिपक्वता’ नहीं है कि जो फिल्म वो ‘पास’ कर रहे है वो एक अरब आबादी वाले देश की जनता की ‘राष्ट्रभक्ति भावनाओ’ को आहत कर सकती है।

अततः निष्कर्ष मे अपने फिल्मी जगत के निर्माताओ, निर्देशको और अभिनेता/अभिनेत्रियों से एक बात जरूर कहूँगा कि आप की पहली पहचान आपके ‘भारतीय’ होने की है। अभिनेता, निर्माता की पहचान ‘द्वितीयक’ है। आप अपनी द्वितीयक पहचान को स्थापित करने के लिए अपनी आधारभूत और सर्वोपरि ‘भारतीयता’ की पहचान को कैसे दांव पर लगा सकते हैं। ‘कला’ के नाम पर आपको किसने ‘राष्ट्रीयता’ का सौदा करने का हक़ दिया? आपने कश्मीर से खदेड़े गए विस्थापित ‘कश्मीरी-पंडितों’ का पक्ष क्यों नहीं रखा? आपको नहीं लगता अगर आप नेक पहल के साथ दुनिया के सामने ‘कश्मीर- समस्या’ का मसला ‘हैदर’ के माध्यम से दिखाना चाहते थे तो आपने इससे जुड़े सभी पक्षो को निष्पक्षता के साथ दिखाना उचित क्यों नहीं समझा? ‘हैदर’ ने जिस भारतीय सेना की छवि खराब करने की कोशिश की है, क्या भारद्वाज जी आपने उस सेना का भी अपने पक्ष रखा? दुनिया के सामने अपनी ही सेना की ‘गलत’ तस्वीर दिखा कर आप ने क्या हासिल किया? आलोचको से ‘चंद’ तारीफ? बैंक मे कुछ ‘पैसे’? कश्मीर मे एक भारतीय सैनिक कैसे रहता है? अपने परिवार को छोड़ कर? केवल ‘आप’ की और देश की ‘अस्मिता’, ‘सम्मान’ और ‘सुरक्षा’ के लिए वह विषम परिस्थितियों मे दुश्मन से देश के बार्डर की रक्षा करता है। अगर किसी कश्मीरी के साथ कुछ गलत हुआ है तो हमारी उनके साथ पूरी सहानुभूति है पर आपने थोड़ी सी भी मार्मिक दृष्टि से सेना का योगदान भी ‘हैदर’ को दिखाया होता तो शायद फिर से कोई ‘हैदर’ पैदा न होता। 

उम्मीद है देश की मोदी सरकार देर-सवेरे जागेगी और फिल्म पर समय रहते उचित कारवाई की जाएगी। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को ‘सेंसर बोर्ड’ को तलब कर नए निर्देश जारी करते हुए इसकी लगाम कसने की जरूरत है।

 

रोहित श्रीवास्तव

(आलेख मे प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार है)

2 COMMENTS

  1. बहुत शुक्रिया कैलाश श्रीवास्तव जी 🙂

  2. रोहित जी ,
    मैंने वासे फिल्म अभी तक देखी नहीं है परन्तु विचारो से मैं सहमत हूँ कि अपने फिल्मी जगत के निर्माताओ, निर्देशको और अभिनेता/अभिनेत्रियों से एक बात जरूर कहूँगा कि आप की पहली पहचान आपके ‘भारतीय’ होने की है। अभिनेता, निर्माता की पहचान ‘द्वितीयक’ है। आप अपनी द्वितीयक पहचान को स्थापित करने के लिए अपनी आधारभूत और सर्वोपरि ‘भारतीयता’ की पहचान को कैसे दांव पर लगा सकते हैं। ‘कला’ के नाम पर आपको किसने ‘राष्ट्रीयता’ का सौदा करने का हक़ दिया? आपने कश्मीर से खदेड़े गए विस्थापित ‘कश्मीरी-पंडितों’ का पक्ष क्यों नहीं रखा? आपको नहीं लगता अगर आप नेक पहल के साथ दुनिया के सामने ‘कश्मीर- समस्या’ का मसला ‘हैदर’ के माध्यम से दिखाना चाहते थे तो आपने इससे जुड़े सभी पक्षो को निष्पक्षता के साथ दिखाना उचित क्यों नहीं समझा? ‘हैदर’ ने जिस भारतीय सेना की छवि खराब करने की कोशिश की है, क्या भारद्वाज जी आपने उस सेना का भी अपने पक्ष रखा? दुनिया के सामने अपनी ही सेना की ‘गलत’ तस्वीर दिखा कर आप ने क्या हासिल किया? आलोचको से ‘चंद’ तारीफ? बैंक मे कुछ ‘पैसे’? कश्मीर मे एक भारतीय सैनिक कैसे रहता है? अपने परिवार को छोड़ कर? केवल ‘आप’ की और देश की ‘अस्मिता’, ‘सम्मान’ और ‘सुरक्षा’ के लिए वह विषम परिस्थितियों मे दुश्मन से देश के बार्डर की रक्षा करता है। अगर किसी कश्मीरी के साथ कुछ गलत हुआ है तो हमारी उनके साथ पूरी सहानुभूति है पर आपने थोड़ी सी भी मार्मिक दृष्टि से सेना का योगदान भी ‘हैदर’ को दिखाया होता तो शायद फिर से कोई ‘हैदर’ पैदा न होता।

    आपको सटीक एवं ज्वलंत विषयक पत्रारिता हेतु साधुवाद
    कैलाश श्रीवास्तव

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