स्वस्थ बहस

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डॉ. मधुसूदन

सूचना: आलेख कुछ उद्धरणों पर आधारित लेखक के निजी विचार हैं।

(एक) स्वस्थ बहस:
स्वस्थ मानसिकता से ही स्वस्थ बहस सफल हो सकती है। अस्वस्थ मानसिकता से स्वस्थ बहस स्पष्ट (Self contradiction) अंतर्विरोध है। जो, अहंकार और हीन ग्रंथि का त्याग नहीं कर सकते, उनसे स्वस्थ बहस की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

(दो)उद्धरण भ.गीता से:
भगवान कृष्ण गीता के १० वें अध्याय में, स्वस्थ बहस व्याख्यायित करते हैं, इस अध्याय के ३२ वे श्लोक में,भगवान कहते हैं:*परस्पर वाद करनेवालों का *सत्य निर्णय के लिये किया जानेवाला वाद हूँ मै।* [उद्धरण चिह्न तारा(*)से दिखाया है।]
उद्धरण:
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*अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।
* मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या हूँ;और परस्पर वाद करनेवालों का तत्त्व(सत्य)निर्णय के लिये किया जानेवाला वाद हूँ।*
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कैसा वाद?===>उत्तर: *तत्त्व(सत्त्य) निर्णय के लिए किया गया वाद।*
अर्थात सत्य-निर्णय के अतिरिक्त किसी और उद्देश्य से,किया गया वाद नहीं।
हीन शाब्दिक संघर्ष के लिए, कोरी हार-जीत के लिए, क्षुद्र अहंकार पुष्टि के लिए, ऐसी कोई हीन मानसिकता के लिए किया गया वाद नहीं मैं; ऐसा अर्थ-विस्तार हो सकता है। इस संदर्भ में, स्वामी रामसुखदास तीन प्रकारकी बहसें गिनाते हैं,(१) विपक्षी को हराने के लिए। (२)मात्र विरोध के लिए। (३)पूर्वाग्रहों को त्यजकर, श्रद्धा से सच्चाई जानने के लिए। यह तीसरा प्रकार सर्वश्रेष्ठ है।

(तीन) उद्देश्य:सत्य की खोज है:
ऐसे, तत्व-निर्णय या सत्य की खोज ही, उद्देश्य है।और, बडी महत्वपूर्ण है यह खोज। केवल विशुद्ध सत्य की खोज। अर्जुन ने जैसे मछली की आँख को ही लक्ष्य किया था;वैसे स्वस्थ बहस में,आँख सत्य को ही लक्ष्य कर ढूँढने में प्रयत्‍नशील हो।

सत्त्य के प्रति प्रखर निष्ठा संशोधक का आदर्श होता था। ऐसी थी हमारी विशुद्ध परम्परा।
जानते होंगे, आदि शंकर और मण्डन मिश्र का वाद। और मिश्रजी की धर्मपत्‍नी उभय-भारती का सत्त्यनिष्ठ निर्णय जिसमें, उनका अपने पति की हार का निर्णय देना। ऐसी घटना जो हमारे इतिहास में मिलती है; विश्व के इतिहास में नहीं मिलेगी। घटना की ऐतिहासिकता में, कोई संदेह नहीं। (अंत में संदर्भित इतिहास दिया है।) सारे उपनिषद भी प्रश्नोत्तरों (संवाद) से सत्य ढूँढते हैं। अर्जुन और कृष्णका संवाद ही गीता भी है। सत्य के अन्वेषण के लिए संवाद। यही आदर्श है।
और ऐसा ही स्पष्ट निर्देश गीता की आधी पंक्ति से निकलता है।

यह संक्षेप गीता का विशिष्ट गुण है। कारण है, रणक्षेत्र की शीघ्रता और अल्पावधि में, जल्दी जल्दी अर्जुन को जो सुनाया गया उसका लाघब अत्त्यवश्यक था। भगवान के वचन के ५७४ श्लोक ही हैं। गीता में भगवान भी संक्षिप्त ही बोले हैं। और संस्कृत के संक्षिप्त अर्थपूर्ण शब्द भी गहरा अर्थ व्यक्त करते हैं। किसी और भाषामें इतना संक्षेप लाया नहीं जा सकता। न लातिनी में, न ग्रीक में, और न आपकी अंग्रेज़ी में।
इस लिए *वादः प्रवदतामहम्* के संक्षिप्त वचन पर किसीको संदेह नहीं होना चाहिए।

इसका लाभ भी है।पूरे सनातन धर्म का निचोड ७०० श्लोको से भी कम श्लोकों में दे दिया गया है। कुल १४००+ पंक्तियाँ (कुछ श्लोक ४ पंक्तियों के भी हैं) पर भगवान के उक्ति वाले श्लोक केवल ५७४ ही हैं।
फलतः गीता ज्ञान की गुटका बन गयी है। और बडा चमत्कार: इस गुटका से चुनकर १०८ श्लोकों का भ.गीता-के सार की छोटी लघुत्तम-गुटका भी है। {विषयांतर- दोष स्वीकार करता हूँ।}

(चार) वादे वादे जायते तत्त्वबोधः
दूसरा उद्धरण शुक-रंभा संवाद से– *वादे वादे जायते तत्त्वबोधः* पूरे श्लोक का, यह अंश ही
प्रसिद्ध है। यहाँ वाद का संदर्भित अर्थ संवाद वा स्वस्थ बहस निकलता है। क्योंकि जिस वार्तालाप से तत्त्वबोध(सच्चाई उजागर) हो, स्वस्थ बहस ही कहा जाएगा। पूरा श्लोक है;
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*तीर्थे तीर्थे निर्मलं ब्रह्मवृन्दं।
वृन्दे वृन्दे तत्त्वचिन्तानुवादः॥
वादे वादे जायते तत्त्वबोधो।
बोधे बोधे भासते चन्द्रचूडः॥*
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अर्थ: प्रत्येक तीर्थ ( नदी-किनारे) पर शीलवान संतों का संघ है। प्रत्येक संघ(वृन्द)में तत्त्व-चिन्तन संवाद चल रहा है। फलस्वरूप सत्य का बोध हो रहा है। बोध में जिनकी जटाओं में चंद्र है, ऐसे शिवजी का आभास होता है।
{मुझे कुम्भ मेलों में, जगह जगह मण्डलों में चलते हुए संवाद,स्मरण होते हैं।}

मेरा निजी मंतव्य:
प्रवक्ता ऐसी *स्वस्थ बहस* का पुरस्कर्ता है,जो एक मूल्यवान और अत्यावश्यक उद्देश्य अधोरेखित करता है। *रचनात्मक स्वस्थ बहस* का योगदान आलेखों की अपेक्षा बिलकुल कम नहीं होता, मात्र स्वस्थ बहस करनेवाले सुधी संवाद-कर्ता चाहिए।

(पाँच) पं. दीनदयाल उपाध्यायजी के दिशासूचक वचन:
मौलिक राष्ट्र चिन्तक पं. दीनदयाल उपाध्याय भी इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश फेंकते हैं। कुछ विस्तार भी करते हैं। कहते हैं, बहस करते समय,
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(१)*(संवाद की ) शक्ति अनर्गल व्यवहार में व्यय न हो बल्कि अच्छी तरह विनिमयित कार्यवाही में निहित होनी चाहिए।*
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और (अनर्गल)संघर्ष पर कहते हैं;
(२)*संघर्ष सांस्कृतिक स्वभाव का संकेत नहीं, पर उसके गिरावट का लक्षण है।* ————————————————————-
लेखक==>स्वस्थ बहस में संवाद आवश्यक है; संघर्ष नहीं। पर पश्चिम की द्वंद्व मूलकता, संघर्षवादी विचारधाराओं का मूल है। जो विचारधाराएँ स्वस्थ बहस को भी संघर्ष मान लेती है। और जो,सत्य-खोज की संवादात्मक प्रक्रिया है, उसको संघर्ष में परिवर्तित कर,हार-जीत का साधन बना लेती हैं। अंततः —
(छः) बहस बन जाती है, अहंकारों की टकराहट:
लेखक:===>ऐसा संघर्ष विकृति का लक्षण है। जहाँ रचनात्मक, स्वस्थ बहस सच्चाई का आविष्कार करने की क्षमता रखती है;वहाँ द्वंद्ववादी विवादक उसे हार-जीत की प्रक्रिया में परिवर्तित कर देता है। जिससे सत्य के आविष्कार में ही विघ्न पडता है। सत्य दुर्लक्ष्यित होकर,अहंकारों की टकराहट प्रधान बन जाती है। ऐसा अहंकारी विवादक सत्य की खोज का संवाद नहीं करता, पर एक वकील की भूमिका निर्वाहित करता है। अपने पूर्वाग्रही दूषित मनोवृत्ति से प्रभावित हो कर,अपने मत की वकालत करता है। येन केन प्रकारेण विजयी होना चाहता है।

(सात) हमारी समन्वयवादी परम्परा:

इस द्वंद्ववादी, संघर्षात्मक, पद्धति से अलग है; हमारी सांस्कृतिक परम्परा। दुर्भाग्य से शतकों की, दास्यता और संघर्षवादी पश्चिमी वादों के प्रभाव ने, हमारी परम्परा को विकृत कर दिया है। आज हमारा सत्य-शोधन विकृत हो हार-जीत में परिवर्तित हो गया है।
इस विकृति पर भी, दीनदयाल जी का मौलिक उद्धरण है। पर उस से पहले अपनी समन्वयवादी संस्कृति के विषय में पण्डित जी का उद्धरण देखते हैं। ——————————————————————————————
उद्धरण: ===>(३)*भारतीय संस्कृति *समन्वयवादी* है। व्यक्ति व समाज में समन्वय, भौतिकता व आध्यात्मिकता में समन्वय, राष्ट्र एवं विश्व में समन्वय, विभिन्न विचारों व पंथों में समन्वय तथा हर प्रकार के संघर्ष को शमित करने की अद्‍भुत क्षमता भारतीय संस्कृति की विशेषता है।* —-पं. दीनदयाल उपाध्याय। ———————————————————————————————-
यह उद्धरण स्वस्थ बहस के समन्वयवादी उद्देश्य को अधोरेखित करता है। {ध्यान रहे, पश्चिमी मॅकालेवादी शिक्षा से प्रशिक्षित, और पश्चिमी वादों से प्रभावित, बहुसंख्य विद्वानों की मानसिकता आज भी कलुषित है।–लेखक}
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बहुमूल्य निर्देश में पण्डित जी, आगे कहते हैं;===>(४)*अपने परम्परागत विचारों को युगानुकूल*, और *पराए विचारों को देशानुकूल*, ढालकर हम आगे बढनेका विचार करें।*— ——————————————————————————————
लेखक ==>कितने मौलिक विचार उपाध्याय जी देते हैं? कितना सूक्ष्म अवलोकन था उपाध्यायजी का, कल्पना कीजिए। दोहराने का दोष सहकर, कहता हूँ।…. ————————————————————————————— *अपने परम्परागत विचारों को युगानुकूल ढालना;और *पराए विचारों को देशानुकूल बनाना *, {संदर्भ: दीनदयाल उपाध्याय– कर्तृत्व एवं विचार–ले. डॉ. महेशचन्द्र शर्मा}
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वाह! वाह! पण्डित जी!
हमें तो ये पढतमूर्ख पुराणपंथी, दकियानूसी जैसी अनेक गालियाँ देते हैं। पर,जैसे किसी कर्ण-प्रिय राग के अंश को बार बार आलापा जाता है; वैसी आपकी इन दो पंक्तियों को भी मैं बार बार आलापता हूँ। सारे राष्ट्र-हितैषी इन दो पंक्तियों को अवश्य हृदयंगम कर लें। ऐसा मौलिक दिशासूचन हमारे लिए संक्षिप्त निर्देश है। अति सज्जन और ऋजु दिखनेवाले दीनदयालजी पोंगा पण्डित नहीं थे। स्वस्थ बहस में यह दिशा सूचन, दीनदयालजी की सूक्ष्म कुशाग्र बुद्धि के असामान्य चिन्तन का प्रगल्भ दर्शन है।

(आठ) भारतीय चिन्तन समन्वयता:

पर जहाँ भारतीय चिन्तन समन्वयता को लक्ष्य में रखती है; वहाँ पश्चिमी संघर्षवादी द्वंद्वात्मक प्रणालियाँ शत्रुत्व जगाती है। क्योंकि,पश्चिमी संघर्षवादी विचार प्रणालियाँ द्वंद्व पर आधारित होती है। द्वि और द्वय जैसे शब्दों से जुडे हुए द्वंद्व में दो पक्षों का मल्लयुद्ध जैसा अर्थ और भाव उजागर होता है। और फिर प्रतिद्वंद्वी पर विजय के लिए संघर्ष होता है। *पक्ष और विपक्ष* नहीं, पर उनके लिए विपक्ष का अर्थ होता है, शत्रुपक्ष! फिर शत्रुपक्ष को धूल चटाने के लिए सारी युक्तियाँ और कटु से कटु शब्द योजकर उसे अपमानित करना, और चिढाना उनकी शैली में उचित माना जाता है।

***सत्य ढूँढने निकले थे पर पहुँच जाते हैं कहीं और। ***
और ऐसी पश्चिम प्रभावित द्वंद्वात्मक वाद विवाद प्रक्रिया भी, मॅकाले की शिक्षा का दूरस्थ दुष्परिणाम प्रमाणित हो रहा है।जो दास्यता, और भ्रांत-मानस के साथ साथ हीनग्रंथि का लक्षण भी है। न्यूनाधिक मात्रा में हम सभी (हाँ सभी!) इस रोग से पीडित है। क्यों कि क्रिया की प्रतिक्रिया होते होते सारे प्रभावित हो चुके हैं।

(नौ)वाद-विवाद और संवाद का अंतर:

अपना पूर्वाग्रह प्रमाणित करने के लिए तर्क देना, अधिवक्ता (वकील) का काम होता है। अपने पूर्वाग्रह को प्रस्थापित करने के लिए, अंत तक चिपके रहना; और दिखाऊ वैचारिक आदान-प्रदान करते रहना, मिथ्या विवाद या वादविवाद, कहा जा सकता है। ऐसे विवादक अपना मत महत्प्रयास से पकडे रहते हैं। सारा संसार उलट पुलट देंगे। पर अपना मत नहीं छोडेंगे। छोड ही नहीं सकते। गिरेंगे पर टांग ऊंची ही रखेंगे। ये लोग कहीं मेलजोल साधकर टिक नहीं सकते। जब दाल गलेगी नहीं तो पलायन ही इनका पर्याय होता है।
इस पर, चार पंक्तियों की प्रेरणा ही आ गयी।
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*अहंकार का गढ बनाकर।
अंदर अपने को बैठाते॥
भरे पूरे मेलों में जाते।
टकरा के वापस आते॥*
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अपने मत का खण्डन स्वीकार नहीं कर सकते; तो वैयक्तिकता पर उतर आते हैं। जैसे परस्पर सम्मान से वार्तालाप ऊर्ध्वगामी होता है; वैसे परस्पर अवमान की अति से वार्तालाप आधोगामी भी होता होता ऐसे नीच स्तर पर पहुँचता है, कि अंत में मन खट्टा होकर वैमनस्यता हाथ लगती है। ऐसी बहस को स्वस्थ बहस नहीं कहा जा सकता, जो प्रवक्ता का निर्देशित लक्ष्य निश्चित नहीं है।

(दस)स्वस्थ बहस का कोई उदाहरण?
एक अनोखा उदाहरण स्मरण हो रहा है; हमारी सत्यान्वेषी परम्परा का। उस के ऐतिहासिक अंशपर संदेह हो ही नहीं सकता। उसके काल के विषय में दो मत हैं; पर ऐतिहासिकता पर संदेह नहीं है। आदि शंकर और मण्डन मिश्र के बीच बहस हुयी थी जो २१ दिन चली थी; जिसे स्वस्थ बहस कहना ही उचित होगा। और अचरज! मिश्रजी की पत्‍नी इस बहस की निर्णेता थीं। जी हाँ; बहस में मण्डन मिश्र की हार और शंकर की जीत का निर्णय देनेवाली निर्णेता मण्डन मिश्र की पत्‍नी उभय भारती थीं।आचार्य शंकर से मण्डन मिश्र काफी बडे भी थे।
बडा हारा, छोटा शंकर जीता। और बडे की पत्‍नी थी, निर्णेता?
और अचरज, हार के पश्चात मण्डन मिश्र सुरेश्वर (सुरेश्वराचार्य)नाम धारण कर आचार्य शंकर का शिष्यत्व स्वीकार करते हैं, और श्रॄंगेरी और कांची मठ के सर्वाधिकारी नियुक्त होते है।

स्थूल घटना पर संदेह नहीं हो सकता। सूक्ष्मताओंमें हो तो भी घटना पर संदेह नहीं हो सकता। ऐसी स्वस्थ बहस (संवाद) हमारी परम्परा थी। इस बहस के फलस्वरूप मण्डन मिश्र पर शंकर विजयी हुए थे। और मण्डन मिश्र ने सनातन धर्म का स्वीकार कर सुरेश्वर नाम धारण कर सनातन धर्म स्वीकार किया था। दो मठों का कार्यभार संभाला था। ऐतिहासिक थी आचार्य शंकर और मण्डन मिश्र की बहस और बहस की स्वस्थता। कोई संदेह?

और एक अचरज: मण्डन मिश्र की पत्‍नी निर्णेता।दूसरा अचरज: आचार्य शंकर को उभय भारती पर संदेह नहीं। तीसरा अचरज: वृद्ध थे मण्डन मिश्र, और युवा थे शंकर।चौथा अचरज:वयोवृद्ध मिश्र जी को हार स्वीकार करने में, कोई बाधा नहीं हुयी।
कल्पना कीजिए, और आज की परिस्थिति से तुलना कीजिए। कितनी नैतिक गिरावट आयी है?

3 COMMENTS

  1. सारगर्भित लेख को पढ़कर बहुत कुछ सीखा । धन्यबाद मधु भाई ।

  2. It is true the whole world is running after the happiness which runs away and at one point the road branches into two , one leading to happiness and the other leading to Peace where the Lord coming towards you. If you take one step towards Him, he takes two towards you whereas the Happiness on the other road running away from you faster. Now the choice is yours. Do you want Peace or Happiness ?

  3. मनीषी मधुसूदन जी का “स्वस्थ बहस ” आलेख सदा की भाँति , एक गंभीर विषय पर उनके गहरे एवं व्यापक ज्ञान तथा वैदुष्य को प्रदर्शित करता है । प्रमाणों एवं उदाहरणों द्वारा विचारों की पुष्टि से विषय को
    सहज बनाते हुए , स्पष्टता से व्याख्यायित किया गया है । आजकल भारत की राजनीति में “वाद” के
    द्वितीय रूप का घनघोर प्रयोग मन को आहत करने के साथ ही समाज नें द्वेष और मिथ्या लोकापवाद फैला रहा है । आदि शंकर और मंडनमिश्र की कथा और भारती द्वारा निष्पक्ष निर्णय से हमारे अधिवक्ताओं को भी कुछ सीखना चाहिये , जो स्वार्थवश अपराधी को निर्दोष सिद्ध करने में अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं और समाज में उच्शृँखलता को फैलाते हैं । आलेख द्वारा उचित मार्गदर्शन हेतु लेखक को अनेकश: साधुवाद !!

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