आलोचना तो हो, लेकिन नीचा दिखाने के लिए नहीं : स्मृति ईरानी

स्मृति ईरानी
स्मृति ईरानी
स्मृति ईरानी

उमेश चतुर्वेदी

केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी इन दिनों निशाने पर हैं..चूंकि केंद्र में मंत्री हैं, लिहाजा आलोचनाओं के घेरे में उनका होना स्वाभाविक भी है। जम्हूरियत में लोकतंत्र के स्वघोषित चौथे खंभे मीडिया और विपक्ष के निशाने पर मंत्रियों का आना नई बात नहीं है। लेकिन पहले हैदराबाद के केंद्रीय विश्वविद्यालय में कथित दलित छात्र रोहित बेमुला की आत्महत्या और बाद में दिल्ली के दिल में स्थित संभ्रांत जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में देश विरोधी नारे लगना और उसके बाद तीन छात्रों की गिरफ्तारियों के बाद स्मृति ईरानी पर सवालों और आरोपों के तीर नहीं छोड़े जाते तो ही गलत होता। स्मृति ईरानी पर आरोप यह है कि वह पढ़ी-लिखी नहीं हैं। लेकिन पढ़े-लिखे लोगों को देखने और पढ़ाई-लिखाई कराने वाले मंत्रालय को संभाल रही हैं। यह आरोप लगाते वक्त आलोचकों का भाव यह होता है कि ईरानी अनपढ़ हैं। ऐसा नहीं कि यह आरोप सिर्फ सड़कों पर लग रहा है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और रोहित बेमुला मामले में हुई संसद में बहस याद कीजिए। राज्यसभा में जनता दल यू के सांसद केसी त्यागी को भी ईरानी पर कुछ इसी अंदाज में उलाहना देने में हिचक नही हुई।  तब उन्होंने कहा था कि स्मृति जी, आप जिस कुर्सी पर बैठ रही हैं, उस पर कभी मौलाना अब्दुल कलाम आजाद बैठते थे। उस पर कभी डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी पर भी बैठे, जिनके पढ़ाए छात्र (वी पी सिंह)प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। लेकिन सवाल यह है कि क्या जब मुरली मनोहर जोशी 1998 से 2004 के दौरान मानव संसाधन विकास मंत्री थे तो उस समय विपक्ष ने उनकी आरती उतारी थी। तब कांग्रेस और वामपंथियों ने पाठ्यक्रम के भगवाकरण का आरोप लगाकर उनके खिलाफ संसद से लेकर सड़क तक हंगामा खड़ा कर रखा था। तब केसी त्यागी की पार्टी भी सरकार में थी और जिस शरद यादव के वे नजदीक माने जाते हैं, वे उस सरकार में मंत्री पद की ना सिर्फ शोभा बढ़ा रहे थे, बल्कि डॉक्टर जोशी के बचाव के लिए मजबूर थे।

तो क्या यह मान लिया जाय कि #स्मृतिईरानी का विरोध उसकी ही अगली कड़ी है और विपक्षी राजनीति की यह मजबूरी है कि वह जिस तरह डॉक्टर जोशी पर हमले कर रही थी, वैसा स्मृति ईरानी का भी करे। बेशक डॉक्टर जोशी की तुलना में स्मृति की शैक्षिक योग्यता कम है। लेकिन सवाल यह है कि क्या पढ़े-लिखे डॉक्टर जोशी के साथ तब विपक्षी कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों ने पढ़े-लिखे जैसा व्यवहार किया था। उन दिनों की राज्यसभा और लोकसभा की बहसों को रिकॉर्ड से निकालकर पढ़ने के बाद पता चल जाएगा कि दरअसल तब डॉक्टर जोशी से विपक्ष ने पढ़े-लिखे व्यक्ति जैसा व्यवहार नहीं किया था।

सोशल मीडिया से लेकर विपक्षी खेमे तक में स्मृति ईरानी पर एक और आरोप लगाया जा रहा है। आरोप यह है कि वह नाटक करती थीं। बेशक स्मृति का अतीत टेलीविजन के सोप ऑपेरा में अभिनय करने वाला रहा है। उनका नाटकों और फिल्मों से रिश्ता जोड़कर दरअसल लोकतंत्र का ही मजाक उड़ाया जा रहा है। इस लिहाज से तो एनटी रामाराव को राजनीति में आना ही नहीं था और उन्हें आंध्र प्रदेश की राजनीतिक बागडोर संभालनी ही नहीं थी। लेकिन इतिहास गवाह है, तेलुगू बिड्डा का नारा देकर तेलुगू फिल्मों का वह अधेड़ नायक धूमकेतु की तरह आंध्र की राजनीति पर छा गया था। फिल्मी दुनिया का वह नायक इस बात से क्षुब्ध था कि तत्कालीन कांग्रेस महासचिव राजीव गांधी ने आँध्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री टी अंजैया को सरेआम हैदराबाद हवाई अड्डे पर डांट पिलाई थी। क्षुब्ध एनटीआर ने तेलुगू स्वाभिमान का नारा दिया और फिर आंध्र का इतिहास बदल गया था। इसी तरह तमिलनाडु का इतिहास भी तमिल फिल्मों के एक नायक ने बदल दिया। एमजी रामचंद्रन का तमिल राजनीति में धूमकेतु की ही तरह उभार हुआ और देखते ही देखते वे छा गए। उनकी मित्र जयललिता भी फिल्मों की ही दुनिया से आई हैं और तमिलनाडु की आयरन लेडी के तौर पर मशहूर हैं। जयललिता के विरोधी करूणानिधि भी तमिल फिल्मों के पटकथाकार रहे हैं। लेकिन उनकी इसलिए आलोचनाएं नहीं हईं कि ये शख्सियतें नाटकों की दुनिया से आईं।

आज दुनिया में लोकतंत्र की दुहाई दी जाती है तो ब्रिटिश और अमेरिकी लोकतांत्रिक मॉडल को ही आगे रखा जाता है। जरा अमेरिका की राजनीति को ही देखिए। रोनाल्ड रीगन राजनीति में सीधे हालीवुड की फिल्मी दुनिया से उठकर आए थे। आज जिस ट्रिकल डाउन सिद्धांत के तहत दुनिया की अर्थ व्यवस्था चल रही है और दुनिया अपनी आर्थिक विकास की गति मापने के लिए इसी के पैमाने पर लहालोट है। आपको जानकर हैरत नहीं होनी चाहिए कि फिल्मी दुनिया से आए रोनाल्ड रीगन और उनकी समकालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने ही मौजूदा उदार आर्थिक व्यवस्था को बढ़ावा दिया था। अमेरिका में जार्ज बुश गवर्नर बनने से पहले एक तेल कंपनी के अधिकारी थे। बाद में गवर्नर चुने गए और फिर दो-दो बार राष्ट्रपति भी रहे। वहां के ही कैलिफोर्निया राज्य के गवर्नर चुने गए अर्नॉल्ड श्वार्जनेगर भी हालीवुड के अभिनेता रहे। उनकी मशहूर फिल्म टर्मिनेटर रही। लेकिन इन हस्तियों को कभी उनकी व्यापारिक या फिल्मी पृष्ठभूमि के लिए उलाहने नहीं दिए गये या मजाक नहीं उड़ाया गया।

लोकतांत्रिक समाज की तो यही खुशबू है कि कोई भी व्यक्ति चुनाव जीत सकता है और जीते हुए दल का नेता अपने भरोसेमंद लोगों को अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर सकता है। स्वस्थ लोकतंत्र में आलोचना जरूरी भी है, अन्यथा सत्ता के तानाशाह होने का खतरा बढ़ जाता है। फिर जनता की तरफ से सरकार से हिसाब मांगने का हक विपक्ष को भी है। लेकिन उसका तार्किक आधार होना चाहिए। व्यक्तिगत और नीचा दिखाने के लिए आलोचना लोकतंत्र की जड़ में मट्ठा ही डालती है। मंत्री चाहें स्मृति ईरानी हों या फिर कोई और, सिर्फ उन्हें नीचा दिखाने के लिए आलोचना करना लोकतंत्र का ही अपमान करना होगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या विपक्ष इस तरफ ध्यान देगा।

उमेश चतुर्वेदी

 

 

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