अधूरे है मिलेनियम डेवलपमेंट गोल हासिल करने के प्रयास

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–पंकज चतुर्वेदी

संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य देशों ने एक लंबे आंकलन के बाद यह देखा की आज भी भू-भाग के कई हिस्से तरक्की के तमाम दावों के बाद भी विकास की दौड़ में बहुत पीछे है या ऐसा कहा जाये की विकास उन से कोसो दूर है तो असत्य नहीं होगा। अनेक देश गरीबी, कुपोषण, बिमारियों जैसी समस्याओं से जूझ रहें है। दुनिया के अनेक राष्ट्रों में आज भी भरपेट भोजन और स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है और कही लोग मिनरल वाटर ही पीते है। इन असमानताओं को दूर करने और पूरी पृथ्वी के जन जीवन को एक समान स्तर पर लाने हेतु मिलेनियम डेवलपमेंट गोल की अवधारण सामने आयी। ऐसा निश्चय लिया गया की हर एक दशक के बाद इनका आंकलन भी किया जाये, ताकि ये ज्ञात होता रहें की प्रगति संतोषजनक है या अभी और जोर लगाने की जरुरत है। । इस सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी देशों के राजनेताओं ने मुख्यतः आठ उद्देश्य एवं इक्कीस लक्ष्यों का निर्धारण किया। अभी भी दुनिया संपन्नता और मूलभूत सुविधाओं के मामले में लगभग आधी बटी हुई है। और इसी विषमता के कारण दुनिया में शिक्षा, स्वस्थ, रोजगार और आर्थिक सुधारों का एक स्तर बनाना बड़ी चुनौती है

नौजवानों, महिलाओं और पुरुषों के लिये रोजगार, २०१५ तक सभी बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा, लैंगिक समानता एवं महिला स-शक्ति करण, शिशु मृत्यु-दर पर नियंत्रण, एड्स और मलेरिया जैसी बीमारियों की रोकथाम, पर्यावरण सुधर, झुग्गियों का विस्थापन और गरीबी उन्मूलन जैसी तमाम लोक-लुभावनी बाते इन लक्ष्यों और उद्देश्यों का सार एवं विस्तार है।

सही अर्थों में उक्त उल्लेखित सब बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है जो किसी भी देश की आम नागरिक से लेकर पूरे देश के सामाजिक एवं आर्थिक ताने -बाने के सूत्रधार है। लेकिन पिछले दशक की अवधि में इन लक्ष्यों को प्राप्त और पूर्ण करने की स्तिथियों को देखा जाये तो दुनियाभर में असमानता बनी रही है। कुछ देशों ने इनमें से बहुत सारे लक्ष्य हासिल कर लिए है तो कुछ देश ऐसे भी है जो अभी तक इन मंजिलों पर पहुँचने के रास्ते ही तलाश रहें है। लक्ष्य प्राप्त करें वाले प्रमुख देशों में हमारा भारत और पडोसी चीन अग्रणी है। हम अनेक क्षेत्रो में आगे है, जिसकी वास्तविकता का आभास हमारे सामाजिक और आर्थिक परिवेश के स्तर में अब स्पष्ट झलकता है, तो वही चीन ने अपनी निर्धन आबादी को चार करोड़ बावन लाख से घटाकर दो करोड़ अठत्तर लाख करने के साथ और भी कई मापदंडों पर अपनी स्थितियों को सशक्त किया है।

इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, अफ्रीकन डेवलपमेंट बैंक जैसी विश्व की बड़ी आर्थिक संस्थाए भी दुनिया भर के देशों को निरंतर हर संभव मार्गदर्शन, सहायता और सहयोग प्रदान कर रही है।

गत माह की २० से २२ तारीख को संयुक्त राष्ट्र संघ के न्यूयार्क मुख्यालय में पूरे विश्व के प्रतिनिधियों ने इन पर विचार विमर्श कर अब तक की प्रगति का विश्लेषण किया और आगे के लिए क्या करना है इस की रुपरेखा तय करी। लेकिन ये सब उतना आसान नहीं है जितना कागजों पर या योजना बनते समय लगता है। संयुक्त राष्ट्र की सामाजिक और आर्थिक मामलों के विभाग की माने तो पचास से भी अधिक देश ऐसे है जो तुलनात्मक रूप से कम विकसित है, इन्हें विकसित देशों से निर्धारित एवं निश्चित मदद का मात्र एक तिहाई ही मिल सका है। इसमें भी विकसित देशों ने अपने पिछलग्गू या समर्थक गरीब देश को ही मदद करी है अन्यों को नहीं। इस मतलब की सहयोग एवं समर्थन में भेदभाव और पक्षपात हावी है साथ ही वायदा खिलाफी भी हो रही है। विकसित देशों को अपने सकल राष्ट्र उत्पादन का ०.७ प्रतिशत तक की राशि अन्य कमजोर देशों को प्रदान करने का वचन दिया था, वह भी अभी तक पूर्ण नहीं हो रहा हैं।

कमजोर देशों भी इन आर्थिक संसाधनों का उपयोग आधारभूत सुविधाओं को जुटाकर स्थाई मजबूती के बजाय सैन्य शक्ति बढ़ाने या प्राकृतकि आपदाओं से जूझने में ही किया है। इन स्तिथियों में सुधार के बिना तस्वीर और हालात बदलने की बात बेमानी है। इन सब में सुधार लाने के उद्देश्य से मिलेनियम प्रोमिस एलायंस नाम की संस्था के प्रयास जारी है। इस संस्था की स्थापना प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रोफेसर जेफरी सचान और मानववादी कार्यकर्त्ता रे चैम्बर ने की है। प्रोफ़ेसर जेफरी तो संयुक्त राष्ट्र संघ के महा सचिव को मिलेनियम डेवलपमेंट गोल के बारे में सलाह देने के लिए भी आधिकारिक रूप से नियुक्त रहें है। पर इस संस्था को भी अभी अपेक्षित सफलता की तलाश है। इस जैसी और भी संस्थाओं को अलग-अलग देशों में अपने स्तर पर गंभीर प्रयास करने होंगे तभी कुछ बेहतर संभव है।

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने आव्हान किया है कि इन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए सभी देशों के मध्य सामंजस्य और भागीदारी और मजबूत करने की जरुरत है और निसंदेह इसकी का अभाव है, नहीं तो आज दुनिया की तस्वीर बहुत चमकदार होती। बड़ा सवाल ये है कि विकास के बाद दंभ पाल लेने वाले विकसित देश चाहे वो अमेरिका ही क्यों ना हो, क्या सही मायनो में दुनिया के अन्य छोटे एवं गरीब देशों का विकास चाहते है या विनाश ? अभी भी बड़ी मछली छोटी को निगल ने को आतुर है ऐसी ही भावना और सोच के साथ दुनियादारी चल रही है।

जैसी भावनात्मक सोच और रुझान एक देश का अपने राज्यों के उत्थान के लिए होता है, वैसा रुझान और लगाव बड़े और शक्तिशाली देश अन्य छोटे देशों के लिए रखते है ऐसा मानना सच नहीं है। अन्य बाधाओं के साथ यही भी इन लक्ष्यों की प्राप्ति में एक बड़ा अवरोध है। वैसे भी अनेकों अहम मुद्दों के समय समृद्ध एवं सम्पन देशों संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी वैश्विक संस्था को अपने आगे बौना साबित किया है। जब तक बड़े राष्ट्रों की सोच और भावना नहीं परिवर्तित होगी तब तक विश्व कल्याण की कामना ही की जा सकती है, परिणाम मिलना थोडा मुश्किल सिद्ध होगा।

3 COMMENTS

  1. संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयासों को कमतर न आँकते हुए एक निवेदन करना चाहूँगा कि गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम को मिलने वाली वित्तीय मदद प्रदायी देशों के लिये भी कुछ मापदण्ड नियत होने चाहियें. उदाहरण के लिये राजस्थान के कोटा जिले में सींचित क्षेत्र में जल की लवणीयता कम करने के लिये सीडा के तत्वावधान में एक कैनेडियन प्रोजेक्ट चलाया गया था. मेरे श्वसुर साहब उसके भारतीय नेतृत्व अधिकारी थे. आज से सत्रह वर्षों पू्र्व स्वीकृत की गयी दस करोड़ रुपयों की राशि का ज्यादर भाग कनाडा से आये दल, वहाँ की कम्पनियों तथा वहाँ से आये सलाहकारों ने जीम लिया. किसानों को खेतों में एक मीटर की गहराई के नीचे पारगम्यतादायी प्लास्टिक के पाईप बिछाने की अमूल्य सलाह दी गयी (पाईप का जीवनकाल भी पाँच वर्ष, यानि बारबार किसानों की अण्टी ढ़ीली करवाने की योजना), जिसके लिये न तो संसाधन व न तकनीकी तत्समय भारत में उचित मूल्य पर उपलब्ध थी व न आज भी यह विधि प्रायोगिक रूप से अपनाई जा सकी है. यानि लगभग नौ करोड़ रुपये पुनः कनाडा ही पँहुच गये, स्थिति जस की तस व अहसान भी लाद दिया गया.
    उसी दौरान मेरी पत्नी ने अपने पी.एच.डी. शोध के दौरान पाया कि यह समस्या सिंचाई नहर के रिसाव, किसानों के सिंचाई के नवीन व उपयुक्त तरीकों की जानकारी न होने के कारण हुई प्रतीत होती है. सिंचाई नहर के दोनों ओर उगने वाली खरपतवार के कारण समस्या और बढ़ गयी है. उसके बताये समाधान पर कार्य करने से नहर की उम्र बढ़ जाती व उपलब्ध राशि के मात्र दसवें हिस्से में भारतीय श्रम से ही यह कार्य करवाया जा सकता था जो अधिक टिकाऊ होने के साथ किसानों के लिये बिल्कुल मुफ्त होता. पर जैसा कि होता आया है, उसका शोध प्रबंध मात्र उसके नाम के साथ डॉ. लगाने के ही काम आ रहा है, न कि देश के विकास के लिये.

  2. गरीबी और भुखमरी की इस असामनता को मिटने के दावों से पहले ये जरूरी है संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश अपने अहं को छोड़ें, जब जब भी इस तरह की पहल हुई है तब-तब यही अहं सबसे बड़ी बाधा बना है. मिलेनियम डवलपमेंट गोल को एक अच्छी पहल माना जा सकता है.

  3. अधूरे हैं मिलेनियम डेवलपमेंट गोल हासिल करने के प्रयास *-by- –पंकज चतुर्वेदी

    गरीबी भूखमरी मिटाना मिलेनियम डेवलपमेंट गोल का पहला कदम होगा ?

    संयुक्त राष्ट्र संघ ने जो आठ उद्देश्य एवं इक्कीस लक्ष्यों का निर्धारण किया क्या उनमें आतंकवाद को समाप्त करना और राष्ट्रीय सैनिक बल घटाना जैसे उद्देश्य भी हैं ?

    इनसे यदि छुटकारा हो तो विकास का गोल तुरंत हासिल किया जा सकता है.

    इस विषय पर UN के प्रस्ताव कहाँ प्राप्त हो सकते हैं ?

    – अनिल सहगल –

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