नमस्‍ते वायो। त्‍वमेव प्रत्‍यक्षं ब्रह्म।।

हृदयनारायण दीक्षित

भारतीय अनुभूति में सृष्टि पांच महाभूतों (तत्वों) से बनी है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पांच महाभूत हैं। इनमें ‘वायु’ को प्रत्यक्ष देव कहा गया है। वायु प्रत्यक्ष देव हैं और प्रत्यक्ष ब्रह्म भी। विश्व के प्राचीनतम ज्ञानकोष ‘ऋग्वेद’ (1.90.9) में स्तुति है ‘नमस्ते वायो, त्वमेव प्रत्यक्ष ब्रहमासि, त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि।’ ‘तन्मामवतु’-वायु को नमस्कार है, आप प्रत्यक्ष ब्रह्म है, मैं तुमको ही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूंगा। आप हमारी रक्षा करें। ‘ऋग्वेद’ का यही मन्त्र ‘यजुर्वेद’ (36.9) ‘अथर्ववेद’ (19.9.6) व ‘तैत्तिरीय उपनिषद्’ (1) में भी जस का तस आया है। भारतीय अनुभूति का ब्रह्म अंध आस्था नहीं है। वह अनुभूत है, प्रयोग सिध्द है और प्रत्यक्ष है। कहते हैं, वायु ही सभी भुवनों में प्रवेश करता हुआ हरेक रूप में प्रतिरूप होता है – ‘वायुर्थेको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो वभूवः।’ सभी जीवों में प्राण की सत्ता है, प्राण नहीं तो जीवन नहीं। प्राण वस्तुतः वायु है। ऋषि सूर्य आदित्य को देखते हैं। वे भी प्रत्यक्ष देव हैं। ‘प्रश्नोपनिषद्’ में कहते हैं ‘आदित्य ह वै प्राणौ- जो आदित्य है सूर्य है, वही प्राण है। मनुष्य पांच तत्वों से बनता है। मृत्यु के समय सभी तत्व अपने-अपने मूल में लौट जाते हैं। ‘ऋग्वेद’ (10.16.3) में स्तुति है तेरी आंखे सूर्य में मिल जायें और आत्मा वायु में। ‘तैत्तिरीय उपनिषद्’ में कहा गया अग्नि तत्व अग्नि में जाए और प्राण तत्व वायु में – ‘भुव इति वायौ।’

वैदिक पूर्वज वायु को देवता जानते हैं, उसे बहुवचन ‘मरूद्गण’ कहते हैं। वे जल को भी एक वचन नहीं कहते, जल उनकी दृष्टि में आपः मातरम् है – ‘जल माताएं है।’ वे सम्पूर्ण विश्व के प्रति मधु दृष्टि रखते है। ‘ऋग्वेद’ के एक मंत्र में वे वायु को भी मधुरस से भरा पूरा पाना चाहते हैं – ‘मधुवाता ऋतायते।’ ‘वृहदारण्यक उपनिषद’् के सुन्दर मंत्र में पृथ्वी और अग्नि के प्रति मधुदृष्टि बताने के बाद वायु के लिए कहते हैं – ‘अयं वायुः सर्वेर्षां भूतानां मध्वस्य’। यह वायु सभी भूतों का मधु (सभी भूतों के पुष्पों से प्राप्त रस) है और सभी भूत इस वायु के मधु है – ‘वायोः सर्वाणि भूतानि मधु।’ सृष्टि निर्माण के सभी घटक एक दूसरे से अन्तर्सम्बंधित है। वे एक दूसरे के मधु हैं। उनके ढेर सारे नाम हैं, वे वायु हैं, प्राण हैं, वही मरूत् भी हैं। मरूत् का सीधा अर्थ है वायु। मरूद्गण शक्तिशाली देवसमूह हैं, वे रूद्र देव के पुत्र हैं। लेकिन इनके उद्भव का पता लगाना आसान नहीं। ‘ऋग्वेद’ के ऋषि वशिष्ठ की जिज्ञासा है, एक जैसे तेजस्वी ये रूद्र पुत्र कौन है? अपने जन्म के बारे में ये स्वयं जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जानता (7.56.1-2) जन्म के बिना परिचय अधूरा है लेकिन वशिष्ठ के रचे मंत्र में उनकी बाकी बातें जगजाहिर हैं इन की माता ने इन्हें अंतरिक्ष-उदक में धारण किया था। (वही, 4) वे ऋत-सत्य का आचरण करते हैं। (वही 12) स्वयं तेज चलते है, शायद इसीलिए वे तेजी से काम करने वाले लोगों पर जल्दी प्रसन्न होते है। (वही, 19)

मरूद्गण समतावादी है धनी, दरिद्र सबको एक समान संरक्षण देते हैं। (वही 20) वशिष्ठ के रचे सूक्तों में इन्हें अति प्राचीन भी बताया गया है हे मरूतो आपने हमारे पूर्वजों पर भी बड़ी कृपा थी (वही, 23) वशिष्ठ की ही तरह ऋग्वेद के एक और ऋषि अगस्त्य मैत्रवरूणि भी मरूद्गणों के प्रति अतिरिक्त जिज्ञासु है। पूछतें हैं ‘मरूद्गण’ किसी शुभ तत्व से सिंचन करते हैं? कहां से आते हैं? किस बुध्दि से प्रेरित हैं? किसकी स्तुतियां स्वीकार करते हैं? (1.165.1-2) फिर मरूतों का स्वभाव बताते हैं वे वर्षणशील मेघों के भीतर गर्जनशील हैं। (1.166.1) वे पर्वतों को भी अपनी शब्द ध्वनि से गुंजित करते हैं, राजभवन कांप जाते हैं और जब अंतरिक्ष के पृष्ठ भाग से गुजरते हैं उस समय वृक्ष डर जाते हैं और वनस्पतियां औषधियां तेज रतार रथ पर बैठी महिलाओं की तरह भयग्रस्त हो जाती है। (वही 4, 5) वे गतिशील मरूद्गण भूमि पर दूर-दूर तक जल बरसाते हैं। वे सबके मित्र हैं। (1.167.4) यहां ‘मरूद्गण’ वर्षा के देवता है तब विद्युत से इनकी मैत्री स्वाभाविक ही है मनुष्यों के चित्त को प्रभावित करने वाली विद्युत ने इनका वरूण किया विद्युत भी इनके रथ पर साथ साथ चलती है। (वही, 5) वे मनुष्यों को अन्न पोषण देते है। (1.169.3)

वायु प्राण है, अन्न भी प्राण है। अन्न का प्राण वर्षा है। वायुदेव/मरूतगण वर्षा लाते हैं। ‘ऋग्वेद’ में मरूतों की ढेर सारी स्तुतियां हैं। कहते हैं आपके आगमन पर हम हर्षित होते हैं, स्तुतियां करते हैं। (5.53.5) लेकिन कभी-कभी वायु नहीं चलती, उमस हो जाती है। प्रार्थना है हे मरूतो! आप दूरस्थ क्षेत्रो में न रूकें, द्युलोक अंतरिक्ष लोक से यहां आयें। (5.53.8) ऋषि कहते हैं ‘रसा, अनितमा कुभा सिंध’ आदि नदियां वायु वेग को न रोकें। (वही 10) वे नदी के साथ पर्वतों से भी यही अपेक्षा करते हैं। (5.55.7) वायु प्रवाह का थमना ऋषियों को अच्छा नहीं लगता। कहते हैं हे मरूतो आप रात दिन लगातार चलें, सभी क्षेत्रों में भ्रमण करें। (5.54.4) ऋषियों का भावबोध गहरा है। वायु प्राण है, वायु जगत् का स्पंदन है। ऋषियों की दृष्टि मेें वे देवता हैं इसीलिए वायु का प्रदूषण नहीं करना चाहिए। वे जीवन है, जीवन दाता भी हैं। वाुय से वर्षा है, वायु से वाणी है। कण्ठ और तालु में वायु संचार की विशेष आवृत्ति ही मन्त्र है। गीत-संगीत के प्रवाह का माध्यम वायु हैं। गंध-सुगंध और मानुष गंध के संचरण का उपकरण भी वायु देव हैं। वायु नमस्कारों के योग्य हैं।

शरीर और प्राण-वायु का संयोग जीवन है, दोनो का वियोग मृत्यु है। वाग्भट्ट ने ठीक कहा है वह विश्वकर्मा, विश्वात्मा, विश्वरूप प्रजापति है। वह सृष्टा, धाता, विभु, विष्णु और संहारक मृत्यु है। ‘चरक संहिता’ (सूत्र स्थान, वात कलाकलीयाध्याय 12, श्लोक 8) में कहते हैं वह भगवान (परम ऐश्वर्यशाली) स्वयं अव्यय हैं, प्राणियों की उत्पत्ति व विनाश के कारण है, सुख और दुख के भी कारण हैं, सभी छोटे बड़े पदार्थो को लांघने वाले हैं, सर्वत्र उपस्थित हैं। यहां आगे शरीर के भिन्न अंगों में प्रवाहित 5 वायु का वर्णन है। फिर इनसे जुड़े रोगों का विस्तार से विवेचन है। भारतीय मनीषा से वायु को समग्रता में देखा और प्रतीकों में गाया। परम बलशाली हनुमान पवनपुत्र हैं। लंकादहन में यों ही 49 पवन नहीं चले थे। बेशक भारतीय ग्रन्थों में काव्य का प्रवाह है लेकिन कौन इंकार करेगा कि वायु का प्रदूषण हजारों रोगों की जड़ है। प्राणवायु के लिए ही लोग सुबह-सुबह टहलने निकलते हैं, जहां वायु सघन है, वहां के जीवन में नृत्य है। जंगलों में वायु सघन है। भारत का अधिकांश प्राचीन ज्ञान वनों/अरण्यों में ही पैदा हुआ था।

वायु देव के अध्ययन और उपासना पर भी हमारे पूर्वजों ने बड़ा परिश्रम किया था। अध्ययन चिन्तन की भारतीय दृष्टि में वायु प्रकृति की शक्ति है। उन्होंने वायु का अध्ययन एक पदार्थ की तरह किया है। भारतीय दृष्टि में वे सृष्टि निर्माण के पांच महाभूतों से एक महाभूत हैं, उनका अध्ययन जरूरी है लेकिन दिव्य शक्ति की तरह उनको प्रणाम भी किया जाना चाहिए। ‘ऋग्वेद’ के ऋषि मरूद्गणों का जन्म, स्वभाव वर्षा लाने का उनका काम ठीक से जाना चाहते हैं लेकिन नमस्कारों के साथ। यूरोपीय विद्वान सूर्य का भी अध्ययन कर रहे हैं, भारतीय ऋषि सूर्य का अध्ययन उनसे ज्यादा कर चुके हें। सूर्य यहां देवता हैं, तेजोमय सविता हैं, सो तत्सवितुर्वरेण्य है। ‘चरक संहिता’, ‘आयुर्विज्ञान’ का आदरणीय महाग्रन्थ है। इसके 28वें अध्याय (श्लोक 3) में आत्रेय ने बताया है – ‘वायुरायुर्बलं वायुर्वायु र्धाता शरीरिणाम’। वायु ही आयु है। वायु ही बल है, शरीर को धारण करने वाले भी वायु ही हैं। कहते हैं यह संसार वायु है, उसे सबका नियन्ता गाते है – ‘वायुर्विश्वमिदं सर्वं प्रभुवायुश्च कीर्तितः।’ यहां ‘कीर्ततः’ शब्द ध्याान देने योग्य है। अर्थात् वायु को सर्वशक्तिमान बताने की परम्परा पुरानी है, पहले से ही गायी जा रही है।

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