वीरों की धरती भी रही है बुंदेलखंड : वीर छत्रसाल

chatrasalमृत्युंजय दीक्षित
भारत की धरती वीरों की धरती है। जिसमें बुंदेलखंड का नाम सर्वोपरि है। भारत का कोई भी भूभाग ऐसा नहीं है जहां पर किसी न किसी वीर योद्धा व महापुरूष ने समय के अनुसार जन्म न लिया हो। ऐसा ही एक हिस्सा उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड क्षेत्र है जो आज सूखे की चपेट से कराह रहा है और किसान तथा आम जनता तड़प रही है। लेकिन देश की नेतानगरी इसी सूखे को लेकर राजनीति चमका रही है। सूखे के कारण बंजर बन चुकी बुंदेलखंड की धरती किसी जमाने में मालामाल थी और सैन्यशक्ति का अदभुत व मजबूत केंद्र थी। बुंदेलखंड वीरों की धरती तो थी लेकिन कालांतर में यहां के राजा निराशावादी, पलायनवादी होकर गुलामी की मानसिकता में जीने को मजबूर हो रहे थे। छोटी – छोटी रियासतों में बंटे बुंदेलखंड क्षेत्र के राजा आपस में एक दूसरे को मजबूत होते नहीं देख सकते थे। इसी बीच मुगल आक्रमण के दौर में बुंदेलखंड की वीरभूमि में (ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, विक्रम संवत् 1706) जून 1649 ईसवी को एक पहाड़ी ग्राम में वीर छत्रसाल का जन्म हुआ। जिससे विरोधी कांपते थे। ऐसे वीर छत्रसाल के पिता का नाम चम्पतराय व माता का नाम लालकुँवरि था। छत्रसाल के पिता चम्पतराय बड़े वीर तथा बहादुर थे। चम्पतराय के साथ उनकी मां लालकुंवरि भी युद्ध के मैदान मे जाती थीं और उनके साथ रहती थीं तथा नेतृत्व करने के साथ अपने पति को उत्साहित भी किया करती थीं। गर्भस्थ शिशु छत्रसाल तलवारो की खनक और भयंकर मारकाट के बीच पैदा और बड़े हुए। उस समय उनक पिता चम्पतराय अपनी रियासत को बचाये रखने के लिए मुगलों से बराबर लोहा ले रहे थे जिसका असर उनके मन मस्तिष्क पर गहरा पड़ गया था। छत्रसाल की माता लालकुंवरि वीर तो थी हीं धर्मपरायण भी थी। वे छत्रसाल को बचपन में वीरता की कहानियां भी सुनाती थीं।जिसका असर भी छत्रसाल के मन पर पड़ा।
छत्रसाल मात्र 10 वर्ष की अवस्था में ही वीर सैनिक बन गये थे। 16 वर्ष की अवस्था में आने तक उनको अपने माता- पिता से वंचित होना पड़ा। उस समय उनकी जागीर भी छिन चुकी थी। उस समय बुंदेलखंड के अधिकांश राजा और जागीरदार अपनी कन्यायंे मुगलों के हरम में देकर स्वयं को धन्य समझते थे और उनकी पूरी तरह से गुलामी किया करते थे। केवल छत्रसाल ही ऐसे थे जो पूरे साहस व उत्साह के साथ मुगलों का सामना करने के लिए सदा तत्पर रहते थे। चूंकि छत्रसाल की जागीर छिन चुकी थी इसलिए धन व सेना का अभाव होना लाजिमी था। अतः उन्होनें अपनी मां के गहने बेचकर एक छोटी सेना का गठन किया। स्वयं काफी चतुराई व धैर्यता के साथ छोटे -मोटे राजाओं के साथ युद्ध करने लगे और उनको परास्त करके अपनी सेना का विस्तार करने लग गये। धीरे- धीरे अपनी प्रजा को सभी प्रकार की सुख सुविधाएं देकर प्रजा का विश्वास प्राप्त कर लिया था। मुगलों से लोहा लेने के सिलसिले में ही वे ही शिवाजी से मिले। शिवाजी ने छत्रसाल को पूरा सहयोग देने का निर्णय लिया। शिवाजी से मिलकर वापस आने के बाद पूरी ताकत के साथ मुगलों से लोहा लेने के लिए निकल पड़े।छत्रसाल को हालांकि स्थानीय राजाओं का सहयोग नहीं मिला। लेकिन फिर भी अपने मुगलों के खिलाफ जमकर डटे रहे और मुगलों को पास्त करके अपना शासन चलाते रहे।
उस समय शिवाजी के दरबार में कविगण रहा करते थे और कविताएं सुनाकर अपना ईनाम लिया करते थे।ऐसे ही एक कवि भूषण थे जिन्होनें छत्रसाल की वीरता पर अनेक कविताएं रच डालंी। कविराज भूषण की कुछ रचनाओं का उल्लेख आज भी मिलता है। छत्रसाल जब मात्र 12 वर्ष के थे तभी वे एक दिन अपने मित्रों के साथ विन्ध्यवासिनी देवी की पूजा के लिए जा रहे थे। उसी समय मार्ग में मुस्लिम सैनिकों ने उनसे मंदिर का रास्ता पूछा । छत्रसाल ने उनसे पूछा कि, क्या आप भी मंदिर में पूजा करने के लिए जा रहे हो ? उनमे से एक क्रूरता से बोला कि हम तो मंदिर तोड़ने लिए जा रहे हैं। इतना सुनते ही वीर छत्रसाल ने अपनी तलवार उसके घोंप दी। यह देखते ही छत्रसाल के बाकी साथियों ने भी अपने काम को पूरा कर दिया।धीरे – धीरे छत्रसाल ने विशाल सेना तैयार कर ली। उनकी सेना में 72 प्रमुख सरदार थे। वासिया के युद्ध के बाद मुगलों ने छत्रसाल को राजा की मान्यता प्रदान की। उसके बाद छत्रसाल ने कालिंजर का किला जीता और मांधाता सिंह को किलेदार घोषित किया। छत्रसाल ने पन्ना को अपनी राजधानी घोषित किया। एक बार जंगल में छत्रसाल शिकार के लिए घूम रहे थे तभी उनकी भेंट स्वामी प्राणनाथ से हुई। स्वामी जी के मार्गदर्शन में छत्रसाल की गतिविधियां और बढ़ गयीं। छत्रसाल ने मुगलों के खजाने और हथियारों को लूट कर अपनी सेना को मजबूती प्रदान की। विजयादशमी के अवसर पर स्वामी प्राणनाथ ने छत्रसाल का राजतिलक करके “राजाधिराज” की उपाधि दी।
वीर छत्रसाल को 80 वर्ष की अवस्था में भी आराम करने का अवसर नहीं मिला। जब वे 80 वर्ष के थे तब औरंगजेब के कहने पर हिरदेशाह,जगतपाल और मोहम्मद बंगश ने बुंदेलखंड पर तीनों ओर से हमला कर दिया। उन्हें शिवाजी का वचन याद आया कि संकट के समय हम तुम्हारी सहायता अवश्य करेंगे। इसे याद करके छत्रसाल ने मराठा सरदार बाजीराव पेशवा को अपना संदेश भेजा । संदेश मिलते ही बाजीराव ने तुरंत वहां पहुचकर मुगलो को परास्त करके छत्रसाल की सहायता की। छत्रसाल ने असाधारण वीरता दिखलायी थी। देवगढ़ के गोंडा राजा को पराजित करने में पूरी ताकत झोंक दी थी।
वीर छत्रसाल ने जीवन भर मुगलों को चैन की सांस नहीं लेने दी। जिन महाकवि भूषण ने छत्रपति शिवाजी की स्तुति में शिवा बवानी लिखी उन्होनंे ही छत्रसाल दशक में आठ छंदों में छत्रसाल की वीरता और शौर्य का वर्णन किया है। आज भी बुंदेलखंड के घर- घर में छत्रसाल का स्मरण किया जाता है।

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