प्रात: सूरज चमका नभ में , जग को भी चमकाया।
विहँस उठी ये धरा तभी, जब फूलों को महकाया ।।
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मन अपना तब हुआ प्रफुल्लित,कवि ने गीत सुनाया ।
क्षण भर ही आनन्द लिया था,फिर बादल आ छाया।।
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ढका सूर्य को बादल ने तब, अंधकार भी बढ़ आया
जल-धारा फिर लगी बरसने ,धरा को भी नहलाया ।।
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ऊष्मा बदली शीतलता में ,पवन झकोरा भी आया ।
लगे झूमने तरुवर भी तो , मेरा मन तब घबराया ।।
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ओह !अरे! सूरज फिर चमका,तन-मन फिर जीवन्त हो गया।
बादल छिपे कहीं पर जाकर , आसमान फिर स्वच्छ हो गया ।।
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कैलिफ़ोर्निया का मौसम ये ,हम सबको ही छलता है
पल में सूरज, पल में बादल, आता जाता रहता है ।।
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ज्यों उजास को अँधियारा है , आकर ढकता रहता ।
वैसे ही उजियारा आकर,अँधियारे पर है छा जाता ।।
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ये जग भी तो द्वन्द्वात्मक है, चक्र सदा सुख-दु:ख का चलता।
दिन के बाद रात आती है , रात के बाद सदा दिन आता ।।
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मन रे! मत हो तू उदास यों, आशा से ही जीवन चलता ।
जहाँ निराशा छाई मन पर, जीवन भी तो रुक सा जाता ।।
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आँख-मिचौनी सुख-दु:ख की भी ,ऐसे ही चलती है ।
आशा के संग सदा निराशा , भी आती रहती है ।।
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इसी तरह से सूरज-बादल, छिपते सामने आते हैं ।
सदा उल्लसित रहकर ही हम,जीवन में सुख पाते हैं ।।
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मंथन हुआ था जब सागर का, विष-अमृत दोनों संग आए।
विष पी,अमृत दिया सुरों को, शिव तब महादेव कहलाए ।।
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- शकुन्तला बहादुर