हिन्द स्वराज : छुटकारा

नवभवन द्वारा प्रकाशित महात्‍मा गांधी की महत्‍वपूर्ण पुस्‍तक ‘हिंद स्‍वराज’ का अंतिम पाठ

hind swarajjपाठक: आपके विचारों से ऐसा लगता है कि आप एक तीसरा ही पक्ष कायम करना चाहते हैं। आप एक्स्ट्रीमिस्ट भी नहीं है और माडरेट भी नहीं है।

संपादक: यहां आपकी भूल होती है। मेरे मन में तीसरे पक्ष का कोई खयाल नहीं है। सबके विचार एक से नहीं रहते। माडरेटों में भी सब एक ही विचार के हैं, ऐसा नहीं मानना चाहिये जिसे (लोगों की) सेवा ही करनी है उसके लिए पक्ष कैसा? मैं तो माडरेटों की सेवा करूंगा और एक्स्ट्रीमिस्टों की भी करूंगा। जहां उनके विचार से मेरी राय अलग पडेग़ी वहां मैं उन्हें नम्रता से बताऊंगा और अपना काम करता चलूंगा।

पाठक: अगर आप दोनों से कहना चाहें तो क्या कहेंगे?

संपादक: एक्स्ट्रीमिस्टों से मैं कहूंगा कि आपका हेतु हिन्दुस्तान के लिए स्वराज्य हासिल करने का है। स्वराज्य आपकी कोशिश से मिलने वाला नहीं है। स्वराज्य तो सबको अपने लिए पाना चाहिये और सबको उसे अपना बनाना चाहिये। दूसरे लोग जो स्वराज्य दिला दें वह स्वराज्य नहीं है बल्कि परराज्य है। इसलिए सिर्फ अंग्रेजों को बाहर निकाला कि आपने स्वराज्य पा लिया ऐसा अगर आप मानते हो तो वह ठीक नहीं है। सच्चा स्वराज्य जो मैंने पहले बताया वही होना चाहिये। उसे आप गोला बारूद से कभी नहीं पायेंगे। गोला बारूद हिन्दुस्तान को सधेगा नहीं इसलिए सत्याग्रह पर ही भरोसा रखिये। मन में ऐसा शक भी पैदा न होने दीजिये कि स्वराज्य पाने के लिए हमें गोला बारूद की जरूरत है।

माडरेटों से मैं कहूंगा कि हम खाली आजिजी करना चाहें, यह तो हमारी हीनता होगी। उसमें हम अपना हलकापन कबूल करते हैं। अंग्रेंजों से सम्बन्ध रखना हमारे लिए जरूरी है, ऐसा कहना हमारे लिए ईश्वर के चोर बनने जैसा हो जाता है। हमें ईश्वर के सिवा और किसी की जरूरत है ऐसा कहना ठीक नहीं है। और साधारण विचार करने से भी हमें लगेगा कि अंग्रेजों से बिना आज तो हमारा काम चलेगा ही नहीं, ऐसा कहना अंग्रेजो को अभिमानी बनाने जैसा होगा। अंग्रेज बोरिया बिस्तर बांधकर अगर चले जायेंगे तो हिन्दुस्तान अनाथ हो जायगा, ऐसा नहीं मानना चाहिये। अगर वे गये तो संभव है कि जो लोग उनके दबाव से चुप रहे होंगे वे लड़ेगे। फोडे क़ो दबाकर रखने से कोई फायदा नहीं। उसे तो फूटना ही चाहिये।

इसलिए अगर हमारे भाग में आपस में लड़ना ही लिखा होगा, तो हम लड़ेंगे। उसमें कमजोर को बचाने के बहाने किसी दूसरे को बीच में पड़ने की जरूरत नहीं है। इसी से तो हमारा सत्यानाश हुआ है। इस तरह कमजोर को बचाना उसे और भी कमजोर बचाने के बहाने किया दूसरे को बीच में पड़ने की जरूरत नहीं है। इसी से तो हमारा सत्यानाश हुआ है। इस तरह कमजोर को बचाना उस और भी कमजोर बनाने जैसा है।

मॉडरेटों को इस बात पर अच्छी तरह विचार करना चाहिये। इसके बिना स्वराज्य नहीं प्राप्त हो सकता। मैं उन्हें एक अंग्रेज पादरी के शब्दों की याद दिलाऊंगा। स्वराज्य में अंधाधुंधी बरदाश्त की जा सकती हैं लेकिन पर राज्य की व्यवस्था हमारी कंगाली को बताती है। सिर्फ उस पादरी के स्वराज्य का और हिन्दुस्तान के रूचासल्श के अनुसार स्वराज्य का अर्थ अलग है। हम किसी का भी जुल्म या दबाव नहीं चाहते चाहे,वह गोरा हो या हिन्दुस्तानी हो हम सबको तैरना सीखना और सिखाना है।

अगर ऐसा हो तो एक्स्ट्रीमिस्ट और माडरेट दोनों मिलेंगे मिल सकेंगे दोनों को मिलना चाहिये दोनों को एक दूसरे का डर रखने की या अविश्वास करने की जरूरत नहीं है।

पाठक: इतना तो आप दोनों कक्षों से कहेंगे परन्तु अंग्रेजों से क्या कहेंगे?

संपादक: उनसे मैं विनय से कहूंगा कि आप हमारे राजा जरूर है। आप अपनी तलवार से हमारे राजा है या हमारी इच्छा से। इस सवाल की चर्चा मुझे करने की जरूरत नहीं आप हमारे देश में रहें इसका भी मुझे द्वेष नहीं है। लेकिन राजा होते हुए भी आपको हमारे नौकर बनकर रहना होगा। आपका कहां हमें नहीं बल्कि हमारा कहा आपको करना होगा। आज तक आप इस देश से जो धन ले गये वह भले आपने हजम कर लिया लेकिन अब आगे आपका ऐसा करना हमें पसन्द नहीं होगा। आप हिन्दुस्तान में सिपाहीगिरी करना चाहें, तो रह सकते हैं। हमारे साथ व्यापार करने का लालच आपको छोड़ना होगा।

जिस सभ्यता की आप हिमायत करते हैं, उसे हम नुकसानदेह मानते हैं। अपनी सभ्यता को हम अपनी सभ्यता से कहीं ज्यादा ऊंची समझते हैं। आपको भी ऐसा लगे तो उसमें आपका लाभ ही है। लेकिन ऐसा न लगे तो भी आपको आपकी ही कहावत के मुताबिक हमारे देश में हिन्दुस्तानी होकर रहना होगा। आपको ऐसा कुछ नहीं करना चाहिये जिससे हमारे धर्म को बाधा पहुंचे। राजकर्ता होने के नाते आपका फर्ज है कि हिन्दुओं की भावना का आदर करने के लिए आप गाय का मांस खाना छोड़ दें। हम दब गये थे। इसलिए बोल नहीं सके। लेकिन आप ऐसा न समझें कि आपके इस बरताव से हमारी भावनाओं को चोट नहीं पहुंची है। हम स्वार्थ या दूसरे भय से आज तक कह नहीं सके लेकिन अब यह कहना हमारा फर्ज हो गया है। हम मानते हैं कि आपकी कायम की हुईं शालांए और अदालतें हमारे किसी काम की नहीं है।

उनके बजाय हमारी पुरानी असली शालाएं और अदालतें ही हमें चाहिये। हिन्दुस्तान की आम भाषा अंग्रेजी नहीं बल्कि हिंन्दी है। वह आपको सीखनी होगी और हम तो आपके साथ अपनी भाषा में ही व्यवहार करेंगे। आप रेलवे और फौज के लिए बेशुमार रुपये खर्च करते हैं यह हम से देखा नहीं जाता। हमें उसकी जरूरत नहीं मालूम होती। रूस का डर आपको होगा, हमें नहीं है। रूसी आयेंगे तब हम उनसे निबट लेंगे आप होंगे तो हम दोनों मिलकर उनसे निबट लेंगे। हमें विलायती या यूरोपी कपड़ा नहीं चाहिये। इस देश में पैदा होने जाली चीजों से ही हम अपना काम चला लेंगे। आपकी एक आंख मैंचेस्टर पर और दूसरी हम पर रहे, यह अब नहीं पुरायेगा। आपका और हमारा स्वार्थ एक ही है, इस तरह आप बरतेंगे, तभी हमारा साथ बना रह सकता है।

आपसे यह सब हम बेअदबी से नहीं कह रहे हैं। आपके पास हथियार बल है, भारी जहाजी सेना है। उसके खिलाफ वैसी ही ताकत से हम नहीं लड़ सकते, लेकिन आपको अगर ऊपर कही गई बात मंजूर न हो, तो आपसे हमारी नहीं बनेगी। आपकी मरजी में आये तो और मुमकिन हो तो आप हमें तलवार से काट सकते हैं, मरजी में आये तो हमें तोप से उड़ा सकते हैं हमें जो पसंद नहीं है, वह अगर आप करेंगे तो हम आपकी मदद नहीं करेंगे, और बगैर हमारी मदद के आप एक कदम भी नहीं चल सकेंगे।

संभव है अपनी सत्ता के मद में हमारी इस बात को आप हंसी में उड़ा दें। आपका हंसना बेकार है, ऐसा आज शायद हम नहीं दिखा सकें, लेकिन अगर हममें कुछ दम होगा तो आप देखेंगे कि आपका मद बेकार है और आपका हंसना (विनाश काल की) विपरीत बुद्धि की निशानी है।

हम मानते हैं कि आप स्वभाव से धार्मिक राष्ट्र की प्रजा है। हम तो धर्मस्थान में ही बसे हुए हैं। आपका और हमारा कैसे साथ हुआ इसमें उतरना फिजूल है। लेकिन अपने इस सम्बन्ध का हम दोनों अच्छा उपयोग कर सकते हैं।

आप हिन्दुस्तान में आनेवाले जो अंग्रेज हैं, वे अंग्रेज प्रजा के सच्चे नमूने नहीं हैं और हम जो आधे अंग्रेज जैसे बन गये हैं वे भी सच्ची हिन्दुस्तानी प्रजा के नमूने नहीं कहे जा सकते। अंग्रेज प्रजा को अगर आपकी करतूतों के बारे में सब मालूम हो जाय तो वह आपके कामों के खिलाफ हो जाय। हिन्द की प्रजा ने तो आपके साथ संबंध थोड़ा ही रखा है।

आप अपनी सभ्यता को, जो दरअसल बिगाड़ करने वाली है, छोड़ कर अपने धर्म की छानबीन करेंगे तो आपको लगेगा कि हमारी मांग ठीक है। इसी तरह आप हिन्दुस्तान में रह सकते हैं। अगर उस ढंग से आप यहां रहेंगे तो आप से हमें जो थोड़ा सीखना है वह हम सीखेंगे और हमसे जो आपको बहुत सीखना है, वह आप सीखेंगे। इस तरह हम (एक दूसरे से) लाभ उठायेंगे और सारी दुनिया को लाभ पहुंचायेंगे। लेकिन यह तो तभी हो सकता है, जब हमारे संबंध की जड़ धर्म क्षेत्र में जमे।

पाठक: राष्ट्र से आप क्या कहेंगे?

संपादक: राष्ट्र कौन?

पाठक: अभी तो आप जिस अर्थ में यह शब्द काम में लेते हैं उसी अर्थ वाला राष्ट्र यानी जो लोग यूरोप की सभ्यता में रंगे हुए हैं, जो स्वराज्य की आवाज उठा रहे हैं।

संपादक: इस राष्ट्र से मैं कहूंगा कि जिस हिन्दुस्तानी को (स्वराज्य की) सच्ची खुमारी यानी मस्ती चढ़ी होगी वही अंग्रेजों से ऊपर की बात कह सकेगा। अकसर उनके रोब से नहीं दबेगा। सच्ची मस्ती तो उसी को चढ़ सकती है, जो ज्ञानपूर्वक समझ बूझकर यह मानता हो कि हिन्द की सभ्यता सबसे अच्छी है और यूरोप की सभ्यता चार दिन की चांदनी है। वैसे सभ्यतायें तो आज तक कई हो गयीं और मिट्टी में मिल गयी। आगे भी कई होंगी और मिट्टी में मिल जायेंगी।

सच्ची खुमारी उसी को हो सकती है जो आत्मबल अनुभव करके शरीर बल से नहीं दबेगा और निडर रहेगा। तथा सपने में भी तोप बल का उपयोग करने की बात नहीं सोचेगा। सच्ची खुमारी उसी हिन्दुस्तानी को रहेगी जो आज की लाचार हालत से बहुत ऊब गया होगा और जिसने पहले से ही जहर का प्याला पी लिया होगा। ऐसा हिन्दुस्तानी अगर एक ही होगा तो वह भी ऊपर की बात अंग्रेजों से कहेगा और अंग्रेजों को उसकी बात सुननी पडेग़ी। ऊपर की मांग मांग नहीं है वह हिन्दुस्तानियों के मन की दशा को बताती है। मांगने से कुछ नहीं मिलेगा, वह तो हमें खुद लेना होगा। उसे लेने की हममें ताकत होनी चाहिये यह ताकत उसी में होगी:-

(1) जो अंग्रेजी भाषा का उपयोग लाचारी से ही करेगा।

(2) जो वकील होगा तो अपनी वकालत छोड़ देगा और खुद घर में चरखा चलाकर कपड़े बुन लेगा।

(3) जो वकील होने के कारण अपने ज्ञान का उपयोग सिर्फ लोगों को समझाने और लोगों की आंखें खोलने में करेगा।

(4) जो वकील होकर वादी प्रतिवादी मुद्दई और मुद्दालेह के झगड़ो में नहीं पड़ेगा। अदालतों को छोड़ देगा और अपने अनुभव से दूसरों को अदालतें छोड़ने के लिए समझायेगा।

(5) जो वकील होते हुए भी जैसे वकालत छोड़ेगा वैसे न्यायाधीशपन भी छोड़ेगा।

(6) जो डाक्टर होते हुए भी अपना पेशा छोड़ेगा और समझेगा कि लोगों की चमड़ी चोंथने के बजाय बेहतर है कि उनकी आत्मा को छुआ जाय और उसके बारे में शोध खोज करके उन्हें तंदुरुस्त बनाया जाय।

(7) जो डाक्टर होने से समझेगा कि खुद चाहे जिस धर्म का हो लेकिन अंग्रेजी वैदकशालाओं फार्मसियों में जीवों पर जो निर्दयता की जाती है वैसी निर्दयता से (बनी हुई दवाओं से) शरीर को चंगा करने के बजाय बेहतर है कि शरीर रोगी रहे।

(8) जो डाक्टर होने पर भी खुद चरखा चलायेगा और जो लोग बीमार होंगे उन्हें उनकी बीमारी का सही कारण बताकर उसे दूर करने के लिए कहेगा। निकम्मी दवाए देकर उन्हें गलत लाड़ नहीं लड़ायेगा। वह तो यही समझेगा कि निकम्मी दवाएं न लेने से बीमार की देह अगर गिर भी जाय तो उससे दुनिया अनाथ नहीं हो जायगी और यही मानेगा कि उसने बीमार पर सच्ची दया की है।

(9) जो धनी होने पर भी धन की परवाह किये बिना अपने मन में होगा वही कहेगा और बडे से बड़े सताधीश की भी परवाह न करेगा।

(10) जो धनी होने से अपना रुपया चरखे चालू करने में खरचेगा और खुद सिर्फ स्वदेशी माल का इस्तेमाल करके दूसरों को भी ऐसा करने के लिए बढ़ावा देगा।

(11) दूसरे हर हिन्दुस्तानी की तरह जो यह समझेगा कि वह समय पश्चाताप का, प्रायश्चित का और शोक का है।

(12) जो दूसरे हर हिन्दुस्तानी की तरह यह समझेगा कि अंग्रेजों का कसूर निकालना बेकार है। हमारे कसूर की वजह से वे हिन्दुस्तान में आये, हमारे कसूर के कारण ही वे यहां रहते हैं और हमारा कसूर दूर होगा तब वे यहां से चले जायेंगे या बदल जायेंगे।

(13) दूसरे हिन्दुस्तानियों की तरह जो यह समझेगा कि मातम के वक्त मौज शौक नहीं हो सकते। जब तक हमें चैन नहीं है तब तक हमारा जेल में रहना या देश निकाला भोगना ही ठीक है।

(14) जो दूसरे हिन्दुस्तानियों की तरह यह समझेगा कि लोगों को समझाने के बहाने जेल में न जाने की खबरदारी रखना निरा मोह है।

(15) जो दूसरे हिन्दुस्तानियों की तरह यह समझेगा कि कहने से करने का असर अद्भुत होता है। हम निडर होकर जो मन में है वही कहेंगे और इस तरह कहने का जो नतीजा आये उसे सहेंगे। तभी हम अपने कहने का असर दूसरों पर डाल सकेंगे।

(16) जो दूसरे हिन्दुस्तानियों की तरह यह समझेगा कि हम दुख सहन करके ही बंधन यानी गुलामी से छुट सकेंगे।

(17) जो दूसरे हिन्दुस्तानियों की तरह समझेगा कि अंग्रेजों की सभ्यता को बढ़ावा देकर हमने जो पाप किया है, उसे धो डालने के लिए अगर हमें मरने तक भी अंडमान में रहना पड़े तो वह कुछ ज्यादा नहीं होगा।

(18) जो दूसरे हिन्दुस्तानियों की तरह समझेगा कि कोई भी राष्ट्र दुख सहन किये बिना ऊपर चढ़ा नहीं है। लड़ाई के मैदान में भी दुख ही कसौटी होता है न कि दूसरे को मारना। सत्याग्रह के बारे में भी ऐसा ही है।

(19) जो दूसरे हिन्दुस्तानियों की तरह समझेगा कि यह कहना कुछ न करने के लिए एक बहाना भर है कि जब सब लोग करेंगे तब हम भी करेंगे। हमें ठीक लगता है इसलिए हम करें। जब दूसरों को ठीक लगेगा तब वे करेंगे, यही करने का सच्चा रास्ता है। अगर मैं स्वादिष्ट भोजन देखता हूं तो उसे खाने के लिए दूसरे की राह नहीं देखता। ऊपर कहे मुताबिक प्रयत्न करना, दुख सहना यह स्वादिष्ट भोजन है। ऊबकर लाचारी से करना या दुख सहना निरी बेगार है।

पाठक: सब ऐसा कब करेंगे और कब उसका अंत आयेगा?

संपादक: आप फिर भूलते हैं। सबकी न तो मुझे परवाह है, न आपको होनी चाहिये। आप अपना देख लीजिये मैं अपना देख लूंगा, यह स्वार्थ वचन माना जाता है लेकिन यह परमार्थ वचन भी है। मैं अपना उजालूंगा, अपना भला करूंगा तभी दूसरे का भला कर सकूंगा। अपना कर्तव्य मैं कर लूं, इसी में काम की सारी सिद्धियां समाई हुई हैं।

आपको विदा करने से पहले फिर एक बार मैं यह दोहराने की इजाजत चाहता हूं कि

(1) अपने मन का राज्य स्वराज्य है।

(2) उसकी कुंजी सत्याग्रह, आत्मबल या करूणा बल है।

(3) उस बल को आजमाने के लिए स्वदेशी को पूरी तरह अपनाने की जरूरत है।

(4) हम जो करना चाहते हैं वह अंग्रेजों के लिए (हमारे मन में) द्वेष है, इसलिए या उन्हें सजा देने के लिए नहीं करें बल्कि इसलिए करें कि ऐसा करना हमारा कर्तव्य है। मतलब यह कि अंग्रेज अगर नमक महसूल रद्द कर दें, लिया हुआ धन वापस कर दें, सब हिन्दुस्तानियों को बड़े बड़े ओहदे दे दें और अंग्रेजी लश्कर हटा लें तो हम उनकी मिलों का कपड़ा पहनेंगे या अंग्रेजी भाषा काम में लायेंगे या उनकी हुनर कला का उपयोग करेंगे सो बात नहीं है। हमें यह समझना चाहिये कि वह सब दरअसल नहीं करने जैसा है, इसलिए हम उसे नहीं करेंगे। मैंने जो कुछ कहा है वह अंग्रेजों के लिए द्वेष होने के कारण नहीं बल्कि उनकी सभ्यता के लिए द्वोष होने के कारण कहा है।

मुझे लगता है कि हमने स्वराज्य का नाम तो लिया लेकिन उसका स्वरूप हम नहीं समझे हैं। मैंने उसे जैसा समझा है वैसा यहां बताने की कोशिश की है। मेरा मन गवाही देता है कि ऐसा स्वराज्य पाने के लिए मेरा यह शरीर समर्पित है।

मेरा मन गवाही देता है कि ऐसा स्वराज्य पाने के लिए मेरा यह शरीर समर्पित है।

परिशिष्ट-1

हिन्द स्वराज्य के हिन्दी अनुवाद के लिए गांधीजी ने जो प्रस्तावना लिखी थी असमें उन्होंने मिलों के बारे में नीचे की बात कही थी:

”यह पुस्तक मैंने सन् 1909 में लिखी थी। 12 वर्ष के अनुभव के बाद भी मेरे विचार जैसे उस समय थे वैसे ही आज हैं। मैं आशा करता हूं कि पाठक मेरे इन विचारों का प्रयोग करके उनकी सिद्धता अथवा असिद्धता का निर्णय कर लेंगे।

”मिलों के सम्बन्ध में मेरे विचारों में इतना परिवर्तन हुआ है कि हिन्दुस्तान की आज की हालत में मैन्चेस्टर के कपड़े के बजाय हिन्दुस्तान की मिलों को प्रोत्साहन देकर भी अपनी जरूरत का कपड़ा हमें अपने देश में ही पैदा कर लेना चाहिये।”

‘हिन्द स्वराज्य’ के अंग्रेजी अनुवाद की प्रस्तावना लिखते हुए गांधी जी ने इस पुस्तक का एक ग्राम्य शब्द सुधारने की इच्छा बताई थी:

”इस समय इस पुस्तक को इसी रूप में प्रकाशित करना मैं आवश्यक समझता हूं परन्तु यदि इसमें मुझे भी सुधार करना हो तो मैं एक शब्द सुधारना चाहूंगा। एक अंग्रेज महिला मित्र को मैंने वह शब्द बदलने का वचन दिया है। पार्लियामेन्ट को मैंने वेश्या कहा है। यह शब्द उन बहन को पसंद नहीं है। उनके कोमल हृदय को इस शब्द के ग्राम्य भाव से दु:ख पहुंचा है।”

समाप्‍त

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हिंद स्वराज : हिन्दुस्तान की दशा (हिन्दू-मुसलमान)

हिंद स्वराज : हिन्दुस्तान की दशा(वकील)

हिंद स्वराज : हिन्दुस्तान की दशा (डाक्टर)

हिंद स्वराज : सच्ची सभ्यता कौन सी?

हिंद स्वराज : हिन्दुस्तान कैसे आजाद हो?

हिंद स्वराज : इटली और हिन्दुस्तान

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