हिन्दी भाषी प्रदेश बनाम काऊबेल्ट

हरिकृष्ण निगम 

हर वित्तीय वर्ष के प्रारंभ में जब संसद में बजट पेश किया जाता है तब ठीक पहले केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा एक विस्तृत आर्थिक सर्वेक्षण प्रकाशित किया जाता है। इसमें प्रतिवर्ष आर्थिक व समाजिक गतिविधियों की पृष्ठभूमि के संबंध में अधिकारिक सूचनाएं, आंकड़ें व सूचकांकों को प्रकाशित किया जाता है। अर्थशास्त्री और प्रबुध्द पाठक अध्ययन के लिए इसी तरह के वार्षिक सर्वेक्षण जो रिजर्व बैंक द्वारा प्रकाशित होता है उसका लाभ उठा सकते हैं। पर इस सारी सामग्री के अध्ययन में एक बात अखरती है कि सरकार के इस प्रकाशन में हिंदी भाषी प्रांतों के लिए एक आदिवर्णिक शब्द (जिसे एक्रोनियम कहा जाता है) ‘बीमारू’ प्रयुक्त किया जाता है। इसका प्रच्छन्न मंतव्य क्या है? अर्थशास्त्रियों ने यह ‘बीमारू’ शब्दी हिंदी भाषी राज्यों को पूर्णरूपेण पिछड़ा या रूग्ण मानकर ही क्यों बनाया? साफ है यह उन राज्यों जैसे-बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के प्रथम वर्णों को मिलाकर एक नए शब्द के रूप में गढ़ा गया लगाता है।

यदि यह सच भी माना जाए कि मानव विकास सूचकांकों पर ये राज्य पिछड़े हों या स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव विकास, पेयजल, यातायात, गृह निर्माण या रोजगार में यहां अधिक कुछ न किया गया हो, पर अधिकारिक रूप से उन्हें बीमारू शब्द द्वारा इंगित कर अपमानित करना सरकार की अपनी मानसिकता का संकेत देता है। कम-से-कम उन आर्थिक विशेषज्ञों से जिनसे अखिल भारतीय दृष्टि की अपेक्षा वे यदि हिन्दी क्षेत्रों को रंगीन चश्मों से देखें तो वे विवेकशील और निष्पक्ष नहीं प्रतीत होते हैं। क्या यह शब्द अनायास ही प्रयुक्त किया जा रहा है। वस्तुतः इस स्थिति और उसकी समझ के लिए जिम्मेदार कौन है?

किस वर्ग का हित साधने हैं ऐसे अर्थशास्त्री व राजनेता जो पिछड़ेपन में भी क्षेत्रीय राजनीति के बीज बोने से नहीं चूंकते हैं? साफ है पेशेवर राजनीतिबाज विकास और सामाजिक न्याय के नाम पर हिन्दी भाषी क्षेत्रों के साथ छः दशकों से खेलते आ रहे हैं। पहले इस बड़े क्षेत्र ने प्रधानमंत्री पदों का लॉलीपॉप जरूर हासिल किया और अपने वर्चस्व के गर्व में इन राज्यों को बदले में क्या दिया, यह सामने है। बाद के राजनीतिज्ञों ने भी इसके विशाल संसाधनों का अपने स्वार्थों के लिए दोहन करते हुए अपने अहंकार की परंपरा निभाई। उन्हें बस इस बात की कोई परेशानी नहीं थी कि उनके राज्य का बाहर किस तरह मखौल उड़ाया जाता है। सच तो यह है कि हिन्दी भाषी क्षेत्र ही क्या, देश के हर कोने की दुर्दशा या बदहाली में सबसे प्रमुख भूमिका राजनीतिबाजों की हैं।

यदि आप देश के महानगरों से निकलने वाले गुलाबी कहलाए जाने वाले अंग्रेजी के आर्थिक दैनिक पत्रों पर सरसरी नजर डालें तो पाएंगे कि हिन्दी भाषी प्रदेशों के लिए कुछ खास विशेषण या शब्दावली प्रयुक्त होती है। इस क्षेत्र के हमारे पेशेवर राजनेता इतने निर्लज्ज हैं कि उन्हें इन शब्दों में कुछ भी बुरा नहीं दीखता है। अपनी संवेदनशून्यता की वजह से हिंदी क्षेत्रों को कोई कुछ भी नाम दे वे उद्धोषित या चिंत्तित नही होते हैं।

हिन्दी भाषी क्षेत्र एक गोबरपट्टी है। अशिक्षा, जड़ता और अंधविश्वास से घिरा पिछड़ा क्षेत्र हैं जहां न आग है, न चमक है। यह गंदला, ठहरे पानी जैसा क्षेत्र है – हिंदी बैक वाट्र्स। ‘हिन्दी हिंटरलैंड’ एक दूसरा शब्द है जिसका अर्थ है हिन्दी भाषी पृष्ठ क्षेत्र जिसे पिछड़ेपन के संदर्भ में ही हमारे अर्थशास्त्री प्रयुक्त कर रहे हैं। एक दूसरे विशेषज्ञ कहते हैं कि उ.प्र. की दुर्दशा का मुख्य कारण इसका धर्मक्षेत्र होना है। यह काऊबेल्ट है – सिर्फ गाय-बछियों की खेतिहर पट्टी। यहां की बात धर्म से शुरू होती है, ब्राह्मणवाद पर खत्म होती है। बिहार का जंगलराज, मध्यप्रदेश का अनंत सुप्तावस्था और गुमनामी में खोया रहना आज अनेक अखिल भारतीय स्तर के अर्थशास्त्रियों की सोच की बुनियादी कुंठाएं है। राजस्थान शायद पर्यटन स्थल होने के कारण रूमानी विशेषज्ञों से जरूर मुक्त किया जाता है पर वहां भी गरीबी के साथ जाति व्यवस्था सामंती मानसिकता चरम सीमा पर है। यदि टिप्पणी मात्र सदाशयता से की जाती है तो इसमें निहितार्थ ढूंढ़ने की जरूरत न होती पर बहुता ये मखौल के तौर पर लिखी जाती आश्चर्य है कि प्रबुध्द वर्ग द्वारा किसी विशाल भाषायी क्षेत्र के लिए दुर्भावना आदि वर्णक गढ़े जा सकते हैं। यह उतना ही अपत्तिजनक है जितना एक समय हमारे अर्थशास्त्री विकास के संबंध में लगातार विकास का हिंदू दर -हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ – की शब्दावली प्रचारित करते रहते थे।

इसे बौध्दिक लापरवाही कह कर टाला नहीं जा सकता है – इतना गूढ़ार्थ उनकी मानसिकता में छिपा है जो जब तक व बाहर आती रहती है। अंग्रेजी पत्रों के इस प्रच्छन्न विषवमन की एक मोढ़ी नकल हिन्दी क्षेत्र के कुछ लेखकों ने भी करने की कोशिश की है। उदाहरण के लिए विवादित लेखक राजेन्द्र यादव ने इन्हें अखबारों की अभिव्यक्ति का भावानुवाद चर्चा में बने रहने के मंतव्य से कई बार किया है! हिन्दी भाषी क्षेत्रों की दुर्दशा पर उदाहरण के लिए उन्होंने कहा है – ‘ग्वालियर में चंबल के डांकू हैं और बनारस में जो डाकू हैं उन्हें आप जानते ही हैं। अर्थात् यह क्षेत्र पूरी तरह धर्म और अपराधों से घिरा है। यहां कोई दूसरी चीज नहीं पनपती। हिन्दी क्षेत्र उनकी नजरों में जड़ता और अंधकार का क्षेत्र इसकी गहरी धार्मिकता के कारण है। देश के पिछड़ेपन की इससे अधिक भ्रमित करने वाली दुराग्रही व्याख्या क्या होगी?

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं। 

1 COMMENT

  1. हमें आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है। हिन्दी क्षेत्र के लोग इलाकाई पहचान को क्षेत्रीयता और संकीर्णता और राष्ट्रीय चेतना को धूमिल करनेवाला मानते रहे। जबकि अन्य लोग इलाकाई पहचान को उपराष्ट्रीयता की संज्ञा देते हैं।भारत की राष्ट्रीय अवधारणा तथा सत्ता (concept and authority) के प्रति सहज लगाव इस इलाके की पहचान रही है । जब कि देश के बाकी इलाके अपनी अपनी इलाकाई पहचान से जाने जाते रहे हैं । भारत की अवधारणा एवम् अस्मिता के लिए किए गए किसी भी आन्दोलन को जन-समर्थन सबसे पहले इसी इलाक़े में मिलता और बनता आ रहा है , लेकिन लीडरशीप इस इलाक़े के बाहर से ही आती रही है । महात्मा गाँधी के आह्वान पर आज़ादी के हलचल की शुरुआत यहीं हुई । पर गाँधी यहाँ से नहीं थे । जिन्ना को पाकिस्तान का क़ायद बिहार-यू. पी. ने ही बनाया । वे भी गुजरात से थे । राष्ठ्रीय स्वयम् सेवक संघ के संस्थापक श्री केशव हेडगेवार महाराष्ट्रीय थे , संघ का मुख्यालय नागपुर (महाराष्ट्र) आज भी है; पर कौन नहीं जानता कि हिन्दी क्षेत्र में ही आर. एस. एस. परवान चढ़ा । आखिर कोई वज़ह तो होगी कि लीडरशीप के लिए यह क्षेत्र देश के दूसरे हिस्सों का मुँहताज बना रहा है ।
    हिन्दी भाषी लोगों में हिन्दी के प्रति निष्ठा और लगाव का अभाव हर अवसर पर दिखता रहता है।
    विश्वविद्यालयों में हिन्दी के प्राध्यापक, जिनकी पहचान रोजी रोटी हिन्दी के ऊपर ही आश्रित है, मैंने उन्हें अपना परिचय-कार्ड अंगरेजी में रखते हुए पाया है। हम कम्युटर की जटिल कार्य-प्रणाली को सीख लेते हैं पर देवनागरी लिपि में टाइप करना हो तो क्षमायाचना कर लेते हैं।

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