हिन्दी बुर्जुआ के सांस्कृतिक खेल

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

हिन्दी बुर्जुआवर्ग का हिन्दीभाषा और साहित्य से तीन-तेरह का संबंध है। हिन्दीभाषी बुर्जुआवर्ग में आत्मत्याग की भावना कम है। उसमें दौलत,शानो-शौकत और सामाजिक हैसियत का अहंकार है। वह प्रत्येक काम के लिए दूसरों पर निर्भर है।दूसरों के अनुकरण में गर्व महसूस करता है। दूसरों के अनुग्रह को सम्मान समझता है।वाक्चातुर्य से भाव-विह्वल हो जाता है। दूसरों की आँखों में धूल झोंकने की इसे आदत है।यही इसकी राजनीति का मूलाधार भी है। स्वभाव से हृदयहीन,क्षुद्र,दंभी और निजभाषा और संस्कृति से रहित है। हिन्दी बुर्जुआ का व्यक्तित्व बेहद जटिल और संश्लिष्ट है। उसमें सरलता का अभाव है। हिन्दी बुर्जुआ की बुद्धि बाल की खाल निकालने में सक्षम है लेकिन बड़ी-बड़ी गांठों को सुलझा नहीं सकती। इस वर्ग में आलस्यमय शांतिप्रियता और स्वार्थमय निष्ठुरता कूट कूटकर भरी है। इसमें दयावृत्ति और चारित्र्य-बल नहीं है।

बुर्जुआवर्ग ने हिन्दीभाषी समाज को ग्राम्य पांडित्य और ग्राम्य बर्बरता से मुक्ति दिलाने का काम नहीं किया। फलतः हिन्दीभाषी समाज में भद्रसमाज के निर्माण की प्रक्रिया काफी धीमी गति से चल रही है। हिन्दीसमाज में ग्रामीण आचार-व्यवहार की संकीर्णताएं बनी हुई हैं। इन संकीर्णताओं की ओट में हिन्दी में ‘लोक’ का बड़ा महिमामंडन हुआ है। धर्म के प्रति विलक्षण प्रेम है। वह धर्म और मासकल्चर पर जितनी आसानी से खर्च करता है उतनी आसानी से सामाजिक जीवन के विकास कार्यों और संस्कृति पर खर्च नहीं करता। धर्म और मासकल्चर का उसने इस तरह प्रचार किया है कि आम आदमी धर्म और मासकल्चर के कमरे में बंद होकर रह गया है।

हिन्दीभाषी समाज में विचारहीन नियमों का घेरा है। इसे हिन्दीबुर्जुआ ने कभी चुनौती नहीं दी। धर्मगत भेदबुद्धि के बारे में सवाल नहीं उठाए। इसके कारण हिन्दीसमाज में जातिभेद और धर्मभेद आज भी बुनियादी समस्या बने हुए हैं। धर्मभेद ने साम्प्रदायिकता को हवा दी और जातिभेद ने जातिप्रथा को पुख्ता बनाया। इन दोनों भेदों को उसने कभी चुनौती नहीं दी। इसके विपरीत इन दोनों भेदों को विभिन्न तरीकों से ढंकने की कोशिश की है। मजेदार बात यह है हिन्दीबुर्जुआ ने अबुद्धि की प्रशंसा की है । उसका महिमामंडन किया और बुद्धि और बुद्धिजीवियों को हिकारत की नजर से देखा। व्यावसायिक पेशेवरज्ञान को महत्व दिया। साहित्य-कला-संस्कृति और इनसे जुड़े पेशेवर लोगों की उपेक्षा की। बुद्धि के स्थान पर सामाजिक हैसियत को प्रतिष्ठित किया। बुद्धि के स्थान पर सामाजिक हैसियत की प्रतिष्ठा की। फलतःस्वाधीनचेतना का विकास बाधित हुआ। परनिर्भरता बढ़ी है। इसके कारण हिन्दीभाषी समाज में कूपमण्डूकता,धर्म,अन्ध संस्कारों, जड़प्रथाओं, गुरू,ज्योतिषी, पंडित, पुजारी आदि की साख बढ़ी। देववाणी,अलौकिक शक्तियां और अंध आज्ञाकारिता का तेजी से प्रसार हुआ।

हिन्दीमन आस्था में विश्वास करता है बुद्धि में नहीं। हमारी शिक्षाप्रणाली ने इसे कभी चुनौती नहीं दी गयी। शिक्षित होने के बाबजूद हमारे मन में कुसंस्कार ,पोंगापंथ और भेद-बुद्धि बनी रहती है। हिन्दी में जो शिक्षित हैं उनमें एक बड़ा वर्ग है जो शिक्षा के बाबजूद अंधविश्वासों की हिमायत करता है। वे कुतर्कों के आधार पर अपनी सड़ी-गली मान्यताओं को बचाए रखने में ज्ञानी महसूस करते हैं। वे बुद्धि पर कम और कुबुद्धि पर ज्यादा विश्वास करते हैं। लेकिन हिन्दी में एक छोटा सा समुदाय ऐसा भी है जो बुर्जुआजी के इन नकरात्मक लक्षणों से मुक्त है। इसे प्रगतिशील हिन्दी बुर्जुआवर्ग कह सकते हैं। इस समुदाय के लोगों ने बड़े पैमाने पर शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में पैसा लगाया है। इसमें विज्ञानचेतना भी है। संस्कृतिप्रेम भी है।

कुछ बुर्जुआ परिवार ऐसे भी हैं जिन्होंने साहित्य,कला,संस्कृति,प्रेस आदि में पूंजी निवेश किया है। इस तरह के निवेश के जरिए एक तरफ कला आकांक्षाओं की पूर्ति हुई है । सांस्कृतिक इमेज बनी है। लेकिन समग्रता में देखें तो हिन्दीबुर्जुआ ने हिन्दीभाषी राज्यों में संस्कृति,सांस्कृतिक धरोहरों, सांस्कृतिक रूपों,संगीत आदि के विकास पर कोई खास ध्यान नहीं दिया। हिन्दीबुर्जुआ ने शिक्षा में विज्ञान, प्रबंधन, इंजीनियरिंग आदि क्षेत्रों में व्यापक पैमाने पर पैसा खर्च किया है। लेकिन समाजविज्ञान ,भाषाओं की उच्चशिक्षा और शोध पर कोई खास ध्यान नहीं दिया। हिन्दीभाषी इलाकों में दो विश्वविद्यालय है ,एक है वनस्थली विद्यापीठ और दूसरा है सागर विश्वविद्यालय । ये दो विश्वविद्यालय हिन्दीभाषी बुर्जुआजी ने स्थापित किए थे। इसके अलावा विभिन्न राज्यों में अनेक कॉलेज हैं जो हिन्दीबुर्जुआ की मदद से चलते हैं। साहित्य में ज्ञानपीठ और भारतीय भाषा परिषद की साहित्य के आयोजनों में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन साहित्य,कला,संस्कृति के संरक्षण,अनुसंधान आदि के बुनियादी कार्यों में आज भी हिन्दीभाषी बुर्जुआवर्ग की कोई दिलचस्पी नहीं है।

हिन्दी बुर्जुआवर्ग की आरंभ से ही प्रेस में दिलचस्पी थी और हिन्दी का शक्तिशाली प्रेस और कालान्तर में टीवी मीडिया बनाने में उसने गहरी दिलचस्पी ली । हिन्दी प्रेस के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचार समूहों का उसने निर्माण किया। इसमें तेजी से तरक्की की । हिन्दीप्रेस में सक्रिय हिन्दीबुर्जुआ ने ओपिनियन मेकर का काम किया है। उसने लोकतांत्रिक आंदोलन के साथ विभिन्न समयों पर गहरा संबंध भी बनाया है।

हिन्दीप्रेस की ताकतवर इमेज ने हिन्दी को शक्तिशाली बनाया है। जनप्रिय बनाया है। हाल के बीस सालों में हिन्दीप्रेस में पेशेवरशैली का तेजी से विकास हुआ है। जो मीडिया घराने बहुभाषी प्रेस चलाते हैं वहां पर एक हिन्दीप्रेस के प्रति भेदभाव दिखता है। एक्सप्रेस ग्रुप से लेकर टाइम्स ग्रुप तक इस भेदभाव को साफ देखा जा सकता है। लेकिन हिन्दीबुर्जुआ का जो वर्ग सिर्फ हिन्दीप्रेस चला रहा है उसने अभूतपूर्व विकास किया है। हिन्दीप्रेस की सामग्री,रूपसज्जा से लेकर काम करने वालों की पेशेवर क्षमता में भी गुणात्मक परिवर्तन आया है। यही वजह है आज हिन्दीप्रेस का भारतीय प्रेस में सर्वोच्च स्थान है।

हिन्दी बुर्जुआ की सफलता का एक और बड़ा क्षेत्र है जहां उसने छोटी पूंजी और आवारा पूंजी के साथ मिलकर बड़े पैमाने पर हिन्दी सिनेमा उद्योग का निर्माण किया। विगत 10 सालों में देश के बड़े पूंजीपति घरानों और बैंकों ने सिनेमाजगत की ओर रूख किया है। लेकिन इससे पहले सिनेमा उद्योग में बड़े पैमाने पर आवारा पूंजी और मझोले किस्म के हिन्दीभाषी पूंजीपतियों की पूंजी लगी थी और कलाकारों में अधिकांश हिन्दीभाषी मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग के कलाकारों,गीतकारों,लेखकों ,संगीतकारों, तकनीशियनों आदि का योगदान रहा है। हाल के नव्य-उदारतावादी दौर में सिनेमा और टीवी उद्योग की ओर हिन्दीबुर्जुआ की स्पीड बढ़ी है। हॉलीवुड का भारत में प्रवाह रोकने में हिन्दीसिनेमा की बड़ी भूमिका रही है। यह एक तरह का हिन्दी बुर्जुआ का सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रतिरोध भी है।

उल्लेखनीय है संचार तकनीक के द्वारा निर्मित वातावरण स्वभावत: ग्लोबल-लोकल होता है। दूसरी बात यह कि भारतीय सिनेमा का मूलाधार है वैविध्य और बहुलतावाद। जबकि हॉलीवुड सिनेमा की धुरी है इकसारता। भारतीय सिनेमा में संस्कृति और लोकसंस्कृति के तत्वों का फिल्म के कथानक के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जबकि हॉलीवुड सिनेमा के कथानक की धुरी है मासकल्चर। हॉलीवुड सिनेमा विश्वव्यापी अमरीकी ग्लोबल कल्चर के प्रचारक-प्रसारक की अग्रणी भूमिका रही है। जबकि भारतीय सिनेमा में पापुलरकल्चर के व्यापक प्रयोग मिलते हैं।

हिन्दीबुर्जुआ की सांस्कृतिक शक्ति ही है कि हॉलीवुड सिनेमा आज तक हिन्दी के मुंबई फिल्म उद्योग को अपदस्थ नहीं कर पाया है। इसने खिचड़ी फिल्मी संस्कृति का निर्माण किया है। स्वायत्त भारतीय फैंटेसी का व्यापक प्रचार-प्रसार किया है। हिन्दी फिल्मी फैंटेसी के चार प्रमुख क्षेत्र हैं, प्रेम, परिवार -समुदाय, राष्ट्र और गरीब। इसमें भाषायी सहिष्णुता है । इसके कारण यह सहज ही भाषायी -सांस्कृतिक सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है।

हिन्दी सिनेमा मूलत: समग्रता में ‘महा- आख्यान’ नहीं बनाता। वह ऐसा कोई कथानक नहीं बनाता जो सब कुछ अपने अंदर समेटे हो। इसमें संस्कृति,इतिहास, व्यक्तित्व,अभिनय और कथानक की इकसार अवस्था नहीं मिलती। इससे राष्ट्रीय विविधता को रुपायित करने और बनाए रखने में मदद मिली है। इस बिखरे फिल्मी संसार में सेतु का काम किया है पापुलरकल्चर ने (मासकल्चर नहीं) । पापुलरकल्चर के सेतु से गुजरने के कारण ही मुम्बईया सिनेमा की ‘फ्रेगमेंटरी ’और संवादमूलक प्रकृति है। यह सांस्कृतिक विमर्शों को पैदा करता है।

हिन्दी का मूलाधार है आनंद। इसके तीन मुख्य तत्व हैं, ये हैं, संस्कार, गाने और संगीत। ये तीनों ही तत्व मिश्रित संस्कृति का रसायन तैयार करते हैं। मिश्रित संस्कृति का संचार करने के कारण ही हिन्दी की फिल्में किसी भी विकसित और अविकसित पूंजीवादी मुल्क से लेकर समाजवादी देशों तक में कई बार वर्ष की सर्वोच्च 10 या 20 फिल्मों में स्थान बनाती रही हैं। सांस्कृतिक बहुलतावाद की जैसी सेवा हिन्दी सिनेमा ने की है वैसी सेवा हॉलीवुड ने नहीं की है। यही वजह है कि बॉलीवुड का हिन्दी सिनेमा शीतयुद्ध के समय में हॉलीवुड के सामने चट्टान की तरह अड़ा रहा। पूरे शीतयुद्ध के दौरान हॉलीवुड सिनेमा ने दुनिया के अधिकांश देशों के सिनेमा उद्योग को बर्बाद कर दिया। किंतु भारत में उसे पैर जमाने में सफलता नहीं मिली।

द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर दौर में भारत का एक बड़ा फिनोमिना है आप्रवासी भारतीय। इसमें विविध किस्म के भारतीय हैं और ये अमेरिका से दक्षिण अफ्रीका,मारीशस से कैरिबियन देशों ,मध्यपूर्व के देशों से लेकर समूचे यूरोप तक फैले हैं। इनमें भारत की जातीय-सांस्कृतिक विविधता साफ नजर आती है। हम यह भी कह सकते है कि भारतीय संस्कृति का इन लोगों के कारण विश्वव्यापी प्रसार हुआ है। यही वह बुनियादी कारक है जिसके कारण हिन्दी फिल्मों में आप्रवासी एशियाई संस्कृति की व्यापक अभिव्यक्ति होती रही है। आप्रवासियों का अपनी संस्कृति से प्रेम ही है जो ‘प्राचीन भारत’ से जोड़े रखता है। इस कार्य में भारत की फैंटेसी,संस्कार,यथार्थ,गाने आदि का व्यापक इस्तेमाल किया जाता है।

उल्लेखनीय है आप्रवासी भारतीय दोहरे दबाब में हैं,एक तरफ वे अपने काम की जगह पर आए दिन भेदभाव के शिकार होते रहते हैं और दूसरी ओर प्राचीन भारत की उम्मीदें उन्हें घेरे रहती हैं। यही वजह है आप्रवासी भारतीय भारत में बनी फिल्में खूब देखते हैं, यह काम वे आजादी के पहले से कर रहे हैं। हाल के वर्षों में ग्लोबल भारतीय सिनेमा में वितरण, माइग्रेसन और स्थानीयतावाद का प्रवेश हुआ है। भारतीय सिनेमा सांस्कृतिक समूहों को सम्बोधित करता है। वह जिस तरह देश में देखा जाता है वैसे ही विदेश में भी देखा जाता है। देशी-विदेशी दर्शकों को आकर्षित करने में जिस तत्व का सबसे बड़ा रोल है वह है‘भारतीयता’, इस ‘भारतीयता’ का आधार राजनीतिक न होकर सांस्कृतिक है। हिन्दी बुर्जुआ का यह सकारात्मक पक्ष है कि उसने देशज कलारूपों और देशज भाषाओं जैसे मैथिली-भोजपुरी के सिनेमा का व्यापकरूप में विकास किया। इसके अलावा ऑडियो इण्डस्ट्री का भी विकास किया। इसके कारण हिन्दी संस्कृति के संचार और प्रसार को व्यापक आधार मिला।

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  1. ऐसे तो चतुर्वेदी साहब एक मान्य हिंदी विद हैं और उनके नाम के साथ यह भी तगमा लगा हुआ है की वे कलकता विश्वविद्यालय में हिंदी के गण्य मान्य आचार्य हैं तो उनके द्वारा लिखित किसी प्रसंग की आलोचना करना मेरे जैसे अल्पज्ञ के लिए धृष्टा ही समझी जायेगी ,पर क्यां करूँ ,आदत से मजबूर हूँ .मेरे जैसे अल्पज्ञानी के अनुसार चतुर्वेदी जी अपने इस लेख में काफी भटके हुए नजर आते हैं.जब वे आरम्भ में ये कहते हैं की हिंदी बुर्जुआ का हिंदी भाषा और साहित्य से तीन तेरह का संम्बंध है तो लगता है की वे ये कहना चाहते हैंकि हिंदी भाषी क्षेत्रों का बुर्जुआ वर्ग हिंदी साहित्य या भाषा से दूर रहता है.यहाँ वे सत्यता के करीब नजर आते हैं,पर आगे जब वे हिंदी भाषी क्षेत्रों में केवल दो विश्वविद्यालयों का उल्लेख करते हैं तो मेरे जैसों को सोचने को मजबूर कर देते हैं की क्या पूरे हिंदी क्षेत्र में ये ही दो विश्वविद्यालय हैं?या हिंदी क्षेत्र इन्ही दो विश्वविद्यालयों के आसपास सीमित है?इसका अर्थ मेरी समझ में यह आता है की चतुर्वेदी जी के अनुसार हिंदी क्षेत्र मध्य प्रदेश के कुछ अंश और राजस्थान के कुछ हिस्सों तक ही है. आगे बढ़ते हुए चतुर्वेदी जी और उलझ जाते हैं.उन्होंने जब हिंदी बुर्जुआ के स्वभाव और चरित्र का वर्णन किया है तो वे यह भूल से गए लगते हैं की हिंदी भाषी क्षेत्रों के बुर्जुआ वर्ग और भारत के अन्य क्षेत्रों के बुर्जुआ वर्ग में इस मामले में कोई ख़ास अंतर नहीं है.भारत के किसी कोने का बुर्जुआ वर्ग अपने को सभ्य कहलाये जाने के चक्कर में कुछ ऐसी हरकतेकरता है जो उसके छिछोरेपन को सामने ला देती है.उन्होंने हिंदी साहित्य के विधाओं पर भी लिखने का प्रयत्न किया है.साहित्य सचमें आनन्द का सृजन करता है और इसमें हिंदी साहित्य भी अपवाद नहीं है. गीत साहित्य में समाविष्ट है ,पर मेरे विचार से संगीत साहित्य से पृथक विधा है.हिंदी चित्रपट के समर्थन में जो जोरदार वकालत उन्होंने की है मेरे विचार से हिंदी चित्रपट लोकप्रिय होते हुए भी उस सम्मान का अधिकारी नहीं है.
    चतुर्वेदी जी ने हिंदी बुर्जुआओं के सम्मान में या उनके विरोध में अन्य बहुत से बाते भी कही है और उससे उलझन में वृद्धि ही हुई है.एकबात मैं अवश्य कहूंगा की हिंदी बुर्जुआ और अन्य भाषा भाषी बुर्जुआओं में जो एक विशेष अंतर दृष्टिगोचर होता है वह है उनका निजी भाषा और साहित्य की और झुकाव.एक बँगला भाषी बुर्जुआ के घर आपको रविन्द्र साहित्य के साथ साथ बंकिम,शरत चन्द्र,माइकल मधुसुदन दत्त ,विभूति भूषण वन्दोपाध्याय इत्यादि भी मिल जायेंगे,पर एक हिदी भाषी बुर्जुआ के घर महादेवी वर्मा ,प्रसाद,पन्त और निराला की कौन कहे,प्रेमचंद भी शायद हीमिले.नागार्जुन कुंवर नारायण जैसों का तो नाम भी उन लोगों ने शायद सुना भी होतो उसे याद रखने की आवश्यकता उन्होंने महसूस नहीं की होंगी.
    ऐसे चातुर्वेदी जीके इस लेख का अधिकाँश हिस्सा हिंदी चित्रपट को समर्पित हो गया है,जिसका मेरे ख्याल से वह अधिकारी नहीं है.
    ऐसे हिंदी साहित्य की बात की जाये तो वह सर्वहारा वर्ग के हितो और उसके दुःख दर्द के वर्णनों से भरा हुआ है.इस मामले में वह समकालीन बंगला साहित्य से बहुत आगे है.

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