हिन्दी दिवस आने को है

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सितम्बर का महीना शुरू हो चुका है,हिन्दी दिवस आने कोहै। हम ज़ोर शोर से हिन्दी दिवस मनायेंगे कुछ भाषण होंगे कुछ सैमिनार होंगे और हिन्दी जहाँ है वहीं खड़ी रह जायेगी। हम हिन्दी को आज तक वो स्थान नहीं दे पाये जो उसको मिलना चाहिये था। हम कारणो की खोज न करके एक दूसरे पर आरोप लगाते रहे और कुछ नहीं। हिन्दी के लिये बहुत लोग काम कर रहे हैं बहुत अच्छा लिख रहे हैं ,पर हम हिन्दी के प्रति प्रेम और नहीं जगा पाये है।हम कर्नाटक या तमिलनाडु में जाकर उनको हिन्दी सिखाना चाहते हैं, वो विरोध करते हैं तो हमे बुरा लगता है पर क्या हमने कभी सोचा है वो अपनी मातृ भाषा से कितना प्रेम करते हैं। बंगाली ,मराठी या गुजराती भी अपनी भाषा से जितना प्रेम करते हैं उतना हम हिन्दी भाषी करते तो हिन्दी की स्थिति बहतर होती।

हमारे हिन्दी समकालीन उपन्यासकारों में कौन अग्रणी हैं,कौन कवि किस तरह का काव्य रच रहे हैं कितनों को जानकारी है। मैं जब हिन्दी में कार्यरत लोगों के बीच से हट कर कहीं भी जाती हूँ तो मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलता जिसे आज के साहित्यकारों में से किसी का नाम भी मालूम हों। आम लोग तो यही समझते हैं हैं कि हिन्दी पढ़ने लायक कुछ लिखा ही नहीं जा रहा।

समाचार पत्रों का तो हाल ही बुरा है इन्हे वो ही पढ़ते हैं जो इंगलिश नहीं जानते क्योंकि ये समाचार हिन्दी को सरल रखने के बहाने इंगलिश की इतनी भरमार करते हैं कि वो हिन्दी लगती ही नहीं। हिन्दी को सरल रखने के लिये इस हद तक हिन्दी में इंगलिश मिली होती है कि वो हिंगलिश हो जाती है जो मुझे तो कम से कम पसन्द नहीं है।हर समाचार को सनसनी खेज़ बनाया जाता है।परिष्ठ का स्तर भी कुछ ख़ास नहीं होता। कुछ ही समाचार पत्र हैं जिनके परिष्ठ में कुछ अच्छे लेखकों की रचनायें होती हैं। छोटे और मंझोले समाचार पत्र इंटरनैट से उठाकर जो उन्हे पसन्द आता है उसे छाप देते हैं।यही कारण है कि जहाँ कौलम लिखने वालों में चेतन भगत, शोभा डे या ट्विंकल खन्ना का नाम लोगों को पता है पर हिंदी के कौलम लिखने वालों को हिन्दी वाले ही नहीं जानते है। मै यह नहीं कह रही कि चेतन भगत या शोभा डे इंगलिश के स्तरीय लेखक हैं हमारे पास हिन्दी में बहतर लेखक हैं पर उन्हे कोई नहीं जानता ,वो टीवी मे दिखते भी हैं उन चैनलों पर जिन्हे कोई नहीं देखता। हिन्दी समाचारों के भी किसी चैनल पर मैने हिन्दी के कौलम लिखने वालो प्राइम टाइम मे लोकप्रिय चैनल पर नहीं देखा। उन्हे बस दूरदर्शन सहारा देता है।जब कभी कोई साहित्यकार दूरदर्शन पर आता है तो उसे ख़ुद ही फेसबुक पर अपना प्रचार करना पड़ता है, फेसबुक पर उसकी मित्र सूची में हिन्दी के रचनाकार ही होते हैं। हिन्दी साहित्य की गतिविधियां जन मानस तक नहीं पंहुच पाती।आज प्रचार का युग है हम हिन्दी को जिस तरह पेश करे हैं उससे जन मानस आकर्षित नहीं हो रहा हिन्दी में लिखने वाले ही अन्य हिन्दी में लिखने वालों को पढ़ रहे हैं । वस्तुस्थिति यह है कि साहित्यकार एक दूसरे की वाह वाह में लीन है, और पीठ ठोक रहे हैं।

हिन्दी की विकास यात्रा में कहाँ हम चूके हैं और आगे हमें क्या करना चहिये इस पर विचार करने की ज़रूरत है। अक्सर माना जाता है कि इंगलिश के मोह की वजह से हिन्दी का उत्थान नहीं हो रहा यह बात आँशिक सत्य हो सकती है पूरा सत्य नहीं। किसी विदेशी भाषा को सीखना बहुत अच्छी बात है पर उसे मातृ भाषा का दर्जा दे देना ग़लत है।ग़लती हम परिवार में ही शुरू कर देते हैं जब हम दो तीन साल के बच्चे से कहते है ‘ जाओ हैन्ड वाश करो’। ये इंगलिश का दास बनना है और विकृति है, यह दोनो ही भषाओं का अपमान है। भाषाओं का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ता है, पर इसका यह मतलब नहीं कि भाषा की खिचड़ी ही आप बच्चों को परोसें। दूसरी बात जो सामने आती है वह शिक्षा प्रणाली का दोष है।हमने हिन्दी माध्यम के स्कूलों में पढाई का स्तर इतना गिरा दिया और सिलेबस इंगलिश माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों कीक्षमताओं को ध्यान में रख कर बने कि बरबस हिन्दी माध्यम में पढ़नेवाले पिछड़ने लगे। हर मातापित बच्चों का उज्ज्वल भविष्य चाहते हैं इसलिये मोटी मोटी फीस देकर इंगलिश माध्यम के स्कूलों में पढ़ाना शुरू किया।

मैं अपनी बात यहाँ करना चाहूँगी क्योंकि इसी संदर्भ में है। मैने पूरी पढाई हिन्दी माध्यम से की थी लेकिन एक विषय के रूप में बारहवीं कक्षा तक जो इंगलिश पढ़ी थी उसकी नीव बहुत पक्की थी । बीए हिन्दी माध्यम से करने के बाद पता चला कि मनोविज्ञान हिन्दी माध्यम में उपलब्ध नहीं था तो भी बिना किसी दिक्कत के ऐम ए इंगलिश माध्यम से कर लिया । स्नातकोत्तर स्तर पर इंगलिश माध्यम से या हिन्दी माध्यम से आने वाले छात्रों में कोई फर्क नहीं रहा क्योंकि हिन्दी माध्यम वालों की इंगलिश भी अच्छी होती थी। मेरी बेटी इंगलिश माध्यम से पढी पर हिन्दी पर पूरा ध्यान रहा अब वो अर्थशास्त्र पढाती है बारहवीं कक्षा और और कौलिज वालों को। कभी कभी दो एक बच्चे हिन्दी माध्यम वाले भी आजाते है थोड़ी अड़चन हुई पर अब आराम से उन्हे भी पढा लेती है।वहीं आस पास ऐसा वातावरण भी है जहाँ माताये और बच्चे बड़े गर्व से कहते हैं कि उन्हे हिन्दी नहीं अच्छी लगती या कहेंगे”यू नो आई कैन्ट राइट हिन्दी………’ सच ये है कि ये तबक़ा न हिन्दी जानता है न इंगलिश।

हिन्दी के उत्थान के लिये शिक्षा में आमूल परिवर्तन करने की ज़रूरत है। शिक्षा राज्य सरकारों का विषय है इसलिये अहिन्दी भाषी राज्यों को हिन्दी अनिवार्य करने के लिये बाध्य नहीं किया जाना चाहिये। ऐच्छिक विषय के रूप में हिन्दी जो पढ़ना चाहें पढ़े। हिन्दी भाषी राज्यों में चाहें वो हिन्दी माध्यम के स्कूल हो चाहें इंगलिश माध्यम के हिन्दी पढ़ाने का उद्देश्य केवल ये होना चाहिये कि स्कूल से निकल पर वह अपनी बात सही ढंग से कह सके, लिख सकें, पढ़ सके। बच्चों को उनकी आयुके अनुकूल ही साहित्य पढ़ाना चाहिये ये ज़रूरी नहीं है कि बारहवीं पास बच्चों ने जयशंकर प्रसाद को पढ़ा है या नहीं ,ज़रूरी ये है कि वो अपने विचार हिन्दी में प्रकट कर सकते हैं या नहीं, यदि हिन्दी के प्रति प्रेम बना रहा तो वो उच्च कोटि के साहित्य को विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ सकते है।

हम इंगलिश को फिलहाल नहीं छोड़ सकते न वो हमारी दुश्मन है, लेकिन हिन्दी माध्यम से पढने वालों के लिये इंगलिश पढाने का तरीका अलग होना चाहिये। उन्हे इंगलिश इसतरह पढ़ानी चाहिये जैसे विदेशी भाषा पढाई जाती है। यानि व्याकरण के जरिये। बारहवीं पास करने तक वो इंगलिश में स्वयं को अभिव्यक्त कर सकें यह उद्देश्य लेकर चलना होगा।हिन्दी माध्यम से पढ़ने वाले बच्चों मे बहुत से बच्चे ऐसे भी होंगे जो कोई व्यवसाय करेंगे स्कूल से निकलते ही या दसवीं के बाद ही। उनके लिये एक इंगलिश का अपेक्षाकृत सरल कोर्स भी उपलब्ध होना चाहिये।

स्कूली शिक्षा में भाषा का महत्व ख़त्म कर दिया गया है विस्तृति उत्तर देने की परम्परा ख़त्म हो गई है उसे वापिस लाना होगा क्यों कि भाषा का ,अभिव्यक्ति का महत्व इन बच्चों को तब पता चलता है जब ये कौलिज जाते हैं ।९० प्रतिशत से ज़्यादा अंक लाने वाले बच्चों में भी आजकल रटने की क्षमता तो होती है पर अभिव्यक्ति की नही।

हिन्दी के उत्थान के लिये पहला कदम तो घर से ही उठेगा जब मांयें अपने बच्चों से साफसुथरी सही हिन्दी में बात करेंगी और इंगलिश सिखाने के लियें दिन में घंटा या आधाघंटा अलग से पढायेंगी।छोटे बच्चों को पता होगा यह गाय है इसे है इंगलिश मे इसे cow कहते हैं।पहला अक्षर हिन्दी काही सिखाया जायेगा। इंगलिश माध्यम के स्कूल भी हिन्दी शुरू से पढ़ायेंगे। तीसरी चौथी तक कोई बोझिल पाठ्यक्रम नहीं हो हिन्दी इंगलिश और और अंकगणित ही मुख्य रूप से पढ़ाये जायेंगे।

भारत में सभी हिन्दी भाषी राज्यों में सरकारी काम काज की भाषा हिन्दी है। केन्द्र सरकार मे हिन्दी भाषा निदेशालय है हिन्दी अकादमी है।हिन्दी निदेशालय और हिन्दी अकादमी में बहुत से हिन्दी के साहित्यकार भी कार्यरत है।हर साल देश में और विदेश में भी हिन्दी के समारोह होते हैं जिनमें अधिकारी और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि सरकारी खर्चे पर विभिन्न पर्यटन स्थलों पर जाते हैं, हिन्दी का उत्थान अहिन्दी प्रदेशों या विदेशों में होता है जिसकी कोई ज़रूरत नहीं है।सरकार द्वारा दिये गये पुरुस्कार संदेह के दायरे में रहते हैं।यदि सरकार द्वारा हिन्दी के उत्थान पर किया जाने वाला ख़र्च सही तरह से किया जाता तो आज हिन्दी दिवस और हिन्दी निदेशालय की जरूरत ही समाप्त होचुकी होती।

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बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

4 COMMENTS

  1. क्षमा करें, इस लेख को पढ़ मन इतना कुंठित हो उठा है कि अब साहित्यिक हिंदी दिवस मनाने को भी मन नहीं कर रहा है|

    • कृपा बतायें कि आपको इस लेख में क्या आपत्तिजनक लगा

  2. बहुत ही अच्छा लेख है ।हर देश में भिन्न भिन्न संस्कृति और भाषा बोली जाती है ।पर जो सबसे अधिक बोली जाती है, वहीं राष्ट्र भाषा होती है ।

  3. बिनू भटनागर जी आपने समस्या को सही ढंग से समझा व् उससे निकलने के सही सुझाव भी दिए | एक अच्छा आलेख … वंदना बाजपेयी

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