हिन्दी बुद्धिजीवियों का फिलीस्तीन के प्रति बेगानापन

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

एक जमाना था हिन्दी में साहित्यकारों और युवा राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं में युद्ध विरोधी भावनाएं चरमोत्कर्ष पर हुआ करती थीं, हिन्दीभाषी क्षेत्र के विभिन्न इलाकों में युद्ध विरोधी गोष्ठियां, प्रदर्शन, काव्य पाठ आदि के आयोजन हुआ करते थे, किंतु अब यह सब परीकथा की तरह लगता है।

हिन्दी के बुद्धिजीवियों में अंतर्राष्ट्रीय मानवीय सरोकारों को लेकर बेगानापन बढ़ा है। हिन्दी के बुद्धिजीवी खासकर प्रगतिशील बुद्धिजीवी स्थानीय सरोकारों और मुद्दों पर इस कदर व्यस्त हैं कि उन्हें स्थानीयता के अलावा अन्य कुछ भी नजर ही नहीं आता। यह हिन्दी के बुद्धिजीवी की बदली हुई मनोदशा का संकेत है।

अब प्रगतिशील जितना साम्प्रदायिकता पर हल्ला करते हैं, अमेरिका-इस्राइल के मध्यपूर्व में चलाए जा रहे जनसंहार अभियान पर उतना हल्ला नहीं मचाते। यह अचानक नहीं है कि मध्यपूर्व में चल रहा जनसंहार हिन्दी के बुद्धिजीवियों के चिन्तन के केन्द्र से अचानक गायब हो गया है।

भूमंडलीकरण के वैचारिक हथौड़े ने बुद्धिजीवियों को व्यापक जनहित के सरोकारों की बजाय स्थानीय सरोकारों में उलझा दिया है। जबकि सच यह है कि बुद्धिजीवी वही कहलाता है जो अपने समय के सबसे बड़े सरोकारों को व्यक्त करता है। फिलीस्तीन में हाल ही में जिस तरह का बर्बर ताण्डव चल रहा है। वह हम सबके लिए शर्म की बात है। हमें प्रत्येक स्तर पर अमेरिकी-इस्राइली बर्बरता के खिलाफ एकजुट होकर आवाज बुलंद करनी चाहिए। हमें सोचना होगा कि इराक में जब तक अमेरिका एवं उसके सहयोगियों की सेनाएं कब्जा जमाए हुए हैं,इराकी जनता पर मानव सभ्यता के सबसे बर्बर अत्याचार हो रहे हैं,फिलीस्तीन जब तक अपनी धरती से वंचित है।ऐसी अवस्था में दुनिया में किसी भी किस्म की शांति की कल्पना करना बेमानी है।

मध्यपूर्व में अमेरिका-इस्राइल की सैन्य कार्रवाई ने हमारे घरों के चूल्हे,कल-कारखाने, मोटर, गाडियां, परिवहन, माल ढुलाई, विकास आदि के प्रकल्पों को मंहगा बना दिया है। मध्यपूर्व में अमेरिका-इस्राइल जितना आक्रामक होंगे हमारा घरेलू बजट उतना ही गडबड़ाएगा। यह संभव ही नहीं है कि युध्द मध्यपूर्व में हो और हम उसके प्रभाव से बच जाएं। भूमंडलीकरण के दौर में कोई भी घटना स्थानीय नहीं होती,युद्ध भी स्थानीय नहीं होते। इस दौर में जो लोकल है वह ग्लोबल होता है और जो ग्लोबल है वह लोकल है। सैन्य दृष्टि से युद्ध स्थानीय होता है,किंतु राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव की दृष्टि से युद्ध हमेशा ग्लोबल होता है।

फिलीस्तीनी जनता के खिलाफ किए जा रहे हमलों की जड़ में दो प्रधान लक्ष्य हैं, पहला है, फिलीस्तीनी अर्थव्यवस्था को तबाह करना और दूसरा फिलीस्तीन जाति को पूरी तरह नष्ट करना। फिलीस्तीन की आर्थिक नाकेबंदी का अर्थव्यवस्था पर सीधा बुरा असर हो रहा है। इस्राइली समर्थन में काम करने वाला बहुराष्ट्रीय मीडिया ,फिलीस्तीन की तबाही के लिए फिलीस्तीन की मुक्ति के संघर्ष में सक्रिय संगठनों की तथाकथित हमलावर कार्रवाईयों के लिए जिम्मेदार ठहराता रहा है। साथ ही इस्राइली हमलों का लक्ष्य आतंकी निशानों को बताता रहा है। वास्तविकता यह है कि इस्राइली सैनिकों के द्वारा आम जनता, रिहायशी बस्तियों और अर्थव्यवस्था पर हमले होते रहे हैं।

हाल ही में अदालत में इस्राइल के वकील ने यह माना कि आतंकियों पर हमले के दौरान जनता की संपत्ति पर भी हमले हुए हैं। अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करते हुए बिजली काट दी गयी, पानी की सप्लाई बंद कर दी गयी। गैस लाइन बंद कर दी गयी। इस्राइल के इस तरह के कदम फिलीस्तीन जनता के खिलाफ की गयी सामूहिक दंडात्मक कार्रवाई हैं। बिजली, पानी की सप्लाई काटना अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का खुला उल्लंघन है।

फिलीस्तीनी बस्तियों की वास्तविकता यह है कि उनमें इस्राइल ने जगह -जगह बेरीकेट लगा दिए हैं। प्रत्येक बेरीकेट पर इस्राइली सैनिकों की चौकियां हैं , इनसे माल और लोगों का आना -जाना बेहद कठिन है। फिलीस्तीनी नागरिकों पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। कभी इस्राइली सैनिक हमले कर देते हैं तो कभी फिलीस्तीनी इलाकों में रहने वाले अवैध इस्राइली हमले कर देते हैं। इस प्रक्रिया में फिलीस्तीन के सकल घरेलू उत्पाद में सन् 1999-2007 के बीच 40 फीसदी तक की गिरावट दर्ज की गयी। उद्योग के क्षेत्र में निवेश बंद हो गया है। फिलीस्तीनियों की 37 फीसदी जमीन पर अवैध बस्तियां बसा दी गयी हैं। अकेले वैस्ट बैंक में 100 से ज्यादा अवैध बस्तियां बसायी गयी हैं।

वैस्ट बैंक और पूर्वी यरुसलम में इस्राइली पाबंदियों और अवैध बस्तियों के बसाने के कारण अवैध इस्राइलियों की तादाद में सालाना 3.44 प्रतिशत की दर से इजाफा हुआ है। अकेले इस इलाके में 461,000 अवैध इस्राइलियों की संख्या बढ़ी है। वेस्ट बैंक के 227 इलाके हैं जो ओसलो समझौते के अनुसार फिलीस्तीन प्रशासन के तहत आते हैं। इन इलाकों का संपूर्ण दायित्व फिलीस्तीनी प्रशासन का है।

ओसलो समझौते के अनुसार वेस्टबैंक के ए.बी.और सी तीन क्षेत्र हैं. इनमें ए और बी क्षेत्र में आने वाले सघन शहरी क्षेत्र की जमीन के इस्तेमाल और नागरिक प्रशासन की जिम्मेदारी फिलीस्तीन स्वशासन की है, बी क्षेत्र में आने वाले ग्रामीण इलाकों की भी जिम्मेदारी फिलिस्तीनियों की है। लेकिन इस क्षेत्र के ग्रामीण क्षेत्र की सुरक्षा की इस्राइल और फिलीस्तीनियों की साझा जिम्मेदारी है।

उल्लेखनीय है कि वेस्ट बैंक के ए और बी क्षेत्र साझा नहीं हैं। लेकिन सी केटेगरी में आने वाले क्षेत्र वस्तुत : ए और बी वाले क्षेत्रों की नाकाबंदी करते हैं, चारो ओर से ए और बी के क्षेत्र को घेरते हैं। सी क्षेत्र में ही वेस्ट बैंक के सभी मुख्य इन्फ्रास्ट्रक्चर हैं, इनमें मुख्य सड़कें भी शामिल हैं। सी क्षेत्र पूरी तरह इस्राइली सेना के कब्जे में है। सी क्षेत्र के 59 फीसदी इलाके में अवैध बस्तियां बसा दी गयी हैं। उल्लेखनीय है सी क्षेत्र में किसी किस्म का निर्माण कार्य करने का इस्राइल को अधिकार नहीं है। इसके बावजूद बड़े पैमाने पर अवैध बस्तियों का निर्माण जारी है।

ओसलो समझौते अनुसार गाजा से सटे समुद्री इलाके में फिलीस्तीनी मछुआरे बगैर किसी बाधा के 20 मील तक समुद्र में नौका लेकर जा सकते हैं। सन् 2000 में दूसरे इंतिफादा के बाद से यह इलाका हम्मास के कब्जे में आने के बाद से इस्राइल ने समुद्री सीमा को 20 से घटाकर 6 मील तक सीमित कर दिया था। विगत दो सालों में 3 मछुआरे इस्राइली सेना के हाथों अतिक्रमण करने के कारण मारे गए हैं। अनेक घायल हुए हैं और अन्य की नौकाएं जब्त कर ली गयी हैं। जो मछुआरे पकड़े जाते थे उन्हें नंगा करके समुद्र में तैरकर उस जगह तक जाने के लिए बाध्य किया जाता है जहां तक वह अपनी नौका लेकर गया था। यहां तक कि तेज ठंड़ में भी उन्हें यह दंड झेलना पड़ता है. बाद में उन्हें इस्राइली सैनिक चौकियों पर ले जाया जाता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार समुद्र से मछली पकड़ने के लिए कम से कम 12-15 मील तक अंदर जाने पर ही अच्छी मछलियों के मिलने की संभावना होती है। इस्राइली पाबंदी के कारण मछली उत्पादन में गिरावट आयी है। चूंकि समुद्र में ज्यादा गहरे जाकर मछली पकड़ने की संभावनाएं खत्म हो गयीं और लागत बढ़ गयी इसके कारण मछुआरों ने इस धंधे से अपना मुँह फेरना शुरु कर दिया।

संयुक्तराष्ट्र संघ के अनुसार सन् 2006 में मछली उत्पादन 823 टन था जो सन् 2006 में घटकर 50 टन रह गया। उल्लेखनीय है फिलीस्तीनियों के सकल घरेलू उत्पाद का 4 फीसदी मछली उद्योग से आता था। फिलीस्तीन बड़े पैमाने पर मछली का निर्यात करते थे। 1990 के दशक में 10 मिलियन डालर की इस क्षेत्र से सालाना आय होती थी। आज मछली उद्योग पूरी तरह तबाह पड़ा है।

सन् 2001 से 2006 के बीच में मछुआरों और समुद्री इलाके के बाशिंदों की अच्छी आय हुआ करती थी। लेकिन इन दिनों गाजा में भयानक बेकारी है। लगातार कुपोषण बढ़ रहा है। अब मछली का इस्राइल आयात किया जा रहा है। बाजार में मछली की जबर्दस्त मांग है लेकिन मछली नहीं है।

दूसरी ओर गाजा में फूलों का समूचा व्यापार लगभग चौपट हो गया है। उल्लेखनीय है गाजा से फूलों का यूरोपीय देशों में बड़े पैमाने पर निर्यात किया जाता है, लेकिन गाजा की निरंतर नाकेबंदी और बमबारी ने फूलों का व्यापार बर्बाद कर दिया है। गाजा में 480 बड़े फूलों के बागान हैं जिनमें सालाना ( नवम्बर-मई के बीच) 60 मिलियन फूल पैदा होते हैं। सीजनल एक्सपोर्ट के जरिए सालाना 5 मिलियन डॉलर का रेवेन्यू आता था और तकरीबन 4 हजार नौजवानों को नौकरी भी मिलती थी, नाकेबंदी का इस पर महरा प्रभाव पड़ा है।

इस्राइल के द्वारा सीमाएं बंद कर देने का अन्य बातों के अलावा फूलों के व्यापार पर सीधा असर हुआ है। क्योंकि फिलीस्तीन के बाहर कोई भी चीज बाहर तभी जा सकती है जब वह इस्राइल द्वारा रोकी न जाए। फिलीस्तीन की सारी सीमाएं इस्राइल के रहमोकरम पर निर्भर हैं। अकेले यूरोपीय देशों के लिए गाजा से 75 मिलियन करमुक्त फूल निर्यात किए जाते थे, इस साल बमुश्किल 5 मिलियन फूलों का ही निर्यात हो पाया है।

नाकेबंदी ने फूलों का कारोबार बर्बाद कर दिया है। फूल उत्पादक कर्जों में डूब गए हैं। फूलों की बिक्री से आज न्यूनतम आमदनी भी नहीं हो पा रही है। इसके कारण माली- मजदूर, बीज,खाद आदि के भुगतान करने में फूल उत्पादक असमर्थ महसूस कर रहे हैं।

चूंकि ज्यादातर फूल उत्पादक कर्ज लेकर खेती करते रहे हैं अतः उनके पास कर्ज चुकाने के लिए रुपये नहीं हैं और ऐसी स्थिति में उन्हें जेल की हवा खानी पड़ रही है। इस्राइल की हैवानियत का आलम यह है कि वह उन्हीं फूल उत्पादकों को सीमा पार जाकर फूल बेचने दे रहा है जो इस्राइली प्रशासन को यह लिखकर दें कि वे फूलों का निर्यात नहीं करेंगे। अनेक मर्तबा यह होता है कि फूलों से भरे ट्रक सीमा पर लंबे समय तक खड़े रहते हैं और सारे फूल नष्ट हो जाते हैं। इस्राइल ने समुद्री जहाजों से फूल निर्यात पर पाबंदी लगा दी है। यदि फूल देरी से सप्लाई के कारण नष्ट हो जाते हैं तो उसकी कीमत फूल उत्पादक को ही देनी होती है। जबकि देरी में इस्राइली अधिकारियों का हाथ होता है,फूलों के नष्ट होने की कीमत उनसे वसूली जानी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता और देरी के कारण नष्ट होने वाले फूलों की कीमत फूल उत्पादकों को भरनी होती है। इस समूची प्रक्रिया में बेलेन्टाइन डे पर फूलों का कारोबार पूरी तरह चौपट हो चुका है, अभी 11 मई को मातृदिवस पर फूलों के निर्यात के लिए फूल उत्पादक आस लगाए बैठे हैं। लेकिन अभी तक के हालातों से लगता नहीं है कि कोई खास कारोबार हो पाएगा।

कल के अरबी भाषा के अखबार अल हयात में खबर छपी है कि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने फिलीस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास से वायदा किया है कि दो साल में संप्रभु सार्वभौम फिलीस्तीन राष्ट्र का निर्माण कर दिया जाएगा।

उल्लेखनीय है ओबामा प्रशासन का इस्राइल राजनीतिक दबाब अभी काम नहीं कर रहा है अमेरिका की यहूदी लॉबी इस्राइल के विस्तारवादी बर्बर इरादों का खुला समर्थन कर रही है। यह लॉबी अमेरिकी युद्ध उद्योग की भी मालिक है। जिस पर ओबामा निर्भर हैं। आज अमेरिकी प्रशासन की किसी भी सलाह को इस्राइली शासक सुन नहीं रहे हैं। हाल ही में ओबामा के मध्य-पूर्व में विशेष राजदूत जार्ज मिशेल ने इस्राइल को फिलीस्तीन के इलाकों से इस्राइली सेनाओं को तुरंत हटाने के लिए कहा था जिसे इस्राइली प्रशासन ने तुरंत खारिज कर दिया। अमेरिकी दूत ने वैस्टबैंक के उन इलाकों से इस्राइली सेना हटाने के लिए कहा था जहां पर सन् 2000 के सैकिण्ड इंतिफादा से उसने अवैध कब्जा जमाया हुआ है। इसके बदले में इस्राइल ने कुछ नाका चौकियां हटाने और कुछ इस्राइली जेलों में बंद कैदियों को छोड़ने का प्रस्ताव किया था।

उल्लेखनीय है कि विगत सप्ताह फतह पार्टी के सम्मेलन में फिलीस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने अमेरिकी राष्ट्रपति से यह अपील की थी कि फिलीस्तीन राष्ट्र के निर्माण के लिए मध्य-पूर्व पर समाधान थोपा जाए। श्री अब्बास ने फिलीस्तीन क्षेत्र के अंदर कच्ची सीमारेखा बनाकर फिलीस्तीन राष्ट्र बनाने के इस्राइली प्रस्ताव को एकसिरे से ठुकरा दिया है।

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