हिंदी का एक उपेक्षित क्षेत्र

डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री

हिंदी इस समय एक विचित्र दौर से गुज़र रही है। अनेक शताब्दियों से जो इस देश में अखिल भारतीय संपर्क भाषा थी, और इसीलिए संविधान सभा ने जिसे राजभाषा बनाने  का निश्चय सर्वसम्मति से किया, उसे उस पद पर प्रतिष्ठित करना तो दूर, “ आधुनिक शिक्षित “ लोगों ने अखिल भारतीय संपर्क भाषा का रुतबा अंग्रेजी को देकर हिंदी के पर कतर दिए और उसे क्षेत्रीय भाषा बना दिया। इतने पर भी सन्तोष नहीं हुआ तो एक के बाद एक हिंदी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा घोषित करके षड्यंत्रकारियों ने हिंदी परिवार छिन्न – भिन्न कर दिया। इन दुरभिसंधियों के लिए कोई सरकार को कोस रहा है तो कोई समाज में फैलते जा रहे अंग्रेजी प्रेम को। उधर स्थिति यह है कि जिस सरकार पर राजभाषा हिंदी की उपेक्षा के निरंतर आरोप लग रहे हैं, उसने मूल के बजाय पत्तियों को सींचने वाली, अतः अनन्त काल तक चलने वाली कुछ स्थायी योजनाएं बना दी हैं (जैसे, सरकारी कर्मचारियों को कामकाज के समय में हिंदी का प्रशिक्षण, हिंदी परीक्षाएं पास करने पर वेतन-वृद्धि / मानदेय, हिंदी दिवस के अवसर पर कुछ कार्यक्रम, हिंदी में तकनीकी शब्द बनाते रहने के लिए आयोग, हिंदी के प्रयोग की सलाह देने के लिए वार्षिक कार्यक्रम, विभिन्न प्रकार की समितियां आदि) । लगभग सात दशक बीतने पर भी ऐसी योजनाओं से राजभाषा हिंदी कहाँ पहुंची – इसका आकलन करने की किसी को कोई चिंता नहीं है। इस सबके लिए लोग सरकार को दोषी मानते हैं ।

 

आरोप समाज पर भी लग रहे हैं। समाज के दैनिक जीवन में हिंदी का स्थान अंग्रेजी लेती जा रही है। तभी तो ब्रिटिश / अमरीकी अंग्रेजी सिखाने का दावा करने वाले कोचिंग सेंटर छोटे – बड़े हर शहर में खुल गए हैं। लोग अपने ऐसे कामों में भी अंग्रेजी का प्रयोग करने लगे हैं जहाँ उसका प्रयोग करना अनावश्यक ही नहीं, स्वभाषा-प्रेमी की दृष्टि से अपमानजनक है ( जैसे, हस्ताक्षर अंग्रेजी में करना, जहाँ हिंदी / अंग्रेजी का विकल्प हो वहां अंग्रेजी चुनना, घर के बाहर नामपट, मोहल्ले में बनाए संगठन के बोर्ड / पत्रशीर्ष, विवाह आदि के निमंत्रणपत्र जैसी चीजें भी अंग्रेजी में, और तो और अपने दूध पीते शिशुओं के बोलने की शिक्षा eyes, nose, lips, जैसे शब्दों से शुरू करना, आदि ) ; पर सरकार की तरह समाज भी कुछ दिखावटी आयोजन करता है (जैसे, कवि सम्मेलन के नाम पर हास्य कवि सम्मेलन, साहित्यिक गोष्ठियों के स्थान पर हिंदी सम्मेलनों का आयोजन और उनमें छोटे-बड़े हिंदी साहित्यकारों का, कभी-कभी उन्हीं से पैसे लेकर सम्मान करना । सम्मेलन भी अब स्थानीय नहीं, राष्ट्रीय / अंतर–राष्ट्रीय ही होते हैं, कोशिश होती है कि इनका आयोजन विदेश में किया जाए)। ऐसे आयोजनों के बावजूद यह आम शिकायत है कि सरकारी हो या निजी, जीवन के हर क्षेत्र से हिंदी गायब होती जा रही है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदी के लिए जो कुछ भी किया जा रहा है, वह पर्याप्त नहीं है।

 

 

तो और क्या किया जाए, इस विषय पर विचार करने से पहले भाषा के विभिन्न रूपों का स्मरण कर लेना उपयोगी होगा । सामान्यतया प्रयोग की दृष्टि से हर भाषा के तीन रूप होते हैं  :

(क) जिस स्थान पर वह बोली जाती है, वहां की क्षेत्रीय भाषा, (इसका मौखिक प्रयोग अधिक होता है, अतः इसमें अनेक स्खलन / वैविध्य मिलते हैं) ;

(ख) इस भाषा का मानक / परिनिष्ठित रूप (इसका लिखित प्रयोग अधिक होता है, साहित्य की रचना भी प्रायः इसी रूप में की जाती है, शिक्षा – माध्यम के लिए भी इसी का प्रयोग किया जाता है, अतः इसका प्रयोग करना शिक्षित होने की पहचान बन जाता है), और

(ग) विभिन्न विषयों के प्रतिपादन के लिए “ प्रयोजनमूलक रूप ” (इसमें पारिभाषिक शब्दों का खूब प्रयोग होता है, अतः संबंधित विषयों की मौखिक – लिखित चर्चा में इसका प्रयोग किया जाता है)।

 

इन तीन रूपों के अतिरिक्त किसी – किसी भाषा का एक और रूप भी तब विकसित हो जाता है जब ऐतिहासिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक आदि कारणों से उसका प्रयोग- क्षेत्र बढ़ जाता है, और भिन्न भाषाभाषी लोग संपर्क भाषा और / या पुस्तकालयी भाषा के रूप में उसका व्यवहार करने लगते हैं। ऐसी स्थिति में पुस्तकालयी भाषा का रूप तो (लिखित होने के कारण) एक ही रहता है, पर (मौखिक होने के कारण) संपर्क भाषा की विभिन्न शैलियाँ विकसित हो जाती हैं (जैसे, विश्व के विभिन्न भागों में प्रयुक्त होने के कारण अंग्रेजी के ब्रिटिश / आयरिश / अमरीकी / आस्ट्रेलियन / केनेडियन / इंडियन / अफ्रीकन आदि रूप;  या अखिल भारतीय भाषा के रूप में हिंदी के बम्बइया / कलकतिया / मदरासी / हैदराबादी आदि रूप) ।

 

हर भाषा में सर्वाधिक प्रयोग तो उसके प्रथम दो रूपों (क्षेत्रीय भाषा और मानक / परिनिष्ठित भाषा) का होता है, ये रूप ही उस भाषा को प्राणवायु प्रदान करते हैं, उसे जीवन देते हैं ; पर किसी भाषा में सम्पन्नता उसके “ प्रयोजनमूलक “ रूपों से आती है।  ये रूप ही उसे समृद्धि प्रदान करते हैं, उसकी श्रीवृद्धि करते हैं। इन्हीं रूपों से उसका विकास भी होता है और शृंगार भी । अतः इनके कारण ही भाषा को सम्मान मिलता है। इसे कुछ यों समझिए जैसे “ जिन्दा “ रहने को आदमी कुछ भी खा – पीकर झुग्गी – झोपड़ी में जिंदगी गुजार लेता है, पर वहां न स्वास्थ्य है न सम्मान। इसके लिए उसे स्वास्थ्यप्रद वातावरण चाहिए, खाने को संतुलित और पर्याप्त भोजन चाहिए, पीने को स्वच्छ पानी चाहिए, और रहने को व्यवस्थित ढंग से बना साफ़ – सुथरे परिवेश वाला आवास चाहिए।

 

संस्कृत के उदाहरण से इस बात को और भी अच्छी तरह समझा जा सकता है। यह  हमारे देश की प्राचीन भाषा है और भाषागत विशेषताओं की दृष्टि से इसे भाषावैज्ञानिक आज भी कंप्यूटर तक के लिए सर्वाधिक उपयुक्त भाषा मानते हैं । प्राचीन काल से ही इस भाषा में जिस साहित्य की रचना की गई उसमें ललित साहित्य भी था और तत्कालीन समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने वाला  प्रयोजनमूलक साहित्य भी था ; पर कालान्तर में विभिन्न कारणों से जब समाज का पराभव शुरू हुआ तो सबसे पहले प्रयोजनमूलक लेखन पर आंच आई और फिर धीरे – धीरे ललित साहित्य भी गायब होने लगा । आज संस्कृत की जो स्थिति है उसे देखते हुए कुछ लोग उसे “मृत भाषा “ तक कह देते हैं । इस शब्द पर अपनी आपत्ति दर्ज कराते हुए हम प्रमाण तो देते हैं कि आज भी संस्कृत का अध्ययन किया जाता है, धार्मिक कामों में इसी का प्रयोग किया जाता है, कुछ घरों / गाँवों / विद्यालयों में संस्कृत में वार्तालाप किया जाता है, लोग आज भी संस्कृत में रचनाएँ लिख रहे हैं, यहाँ तक कि संस्कृत में फिल्म भी बनाई गई (शंकराचार्य, 1983) ; पर हम सब अच्छी तरह जानते हैं कि व्यापक रूप से आज संस्कृत उपर्युक्त तीनों ही प्रयोग क्षेत्रों में अनुपस्थित है। इसी कारण  प्राचीनकाल वाले गौरवशाली सम्मान के लिए वह तरस रही है।

 

आधुनिक शिक्षा के प्रवर्तक मैकाले से हमें अनेक शिकायतें हैं, पर उसने  अपनी  शिक्षा नीति (1835) के पक्ष में जो तर्क दिए  थे, उनके “ मर्म “ पर ध्यान देना आज भी आवश्यक है। उसने संस्कृत और अरबी साहित्य के सम्बन्ध में कहा कि इनका जो साहित्य निर्विवाद रूप से  श्रेष्ठ माना जाता है, वह है कविता ;  पर यदि काव्य से हटकर ज्ञान -विज्ञान के विभिन्न  पक्षों (अर्थात प्रयोजनमूलक साहित्य) की बात करें तो यूरोपीय भाषाओं की सर्वोत्कृष्टता सर्वथा अतुलनीय है।

 

It will hardly be disputed, I suppose, that the department of literature in which the Eastern writers stand highest is poetry. ……… ……But when we pass from works of imagination to works in which facts are recorded and general principles investigated, the superiority of the Europeans becomes absolutely immeasurable.

 

मैकाले ने संस्कृत-अरबी के समस्त साहित्य को किसी यूरोपीय पुस्तकालय के एक खाने से भी कमतर बताया था । उसकी वह टिप्पणी तो उन भाषाओं के बारे में उसकी अज्ञानता की परिचायक है, पर भाषा के सम्बन्ध में जिस तर्क की (अर्थात काव्य से हटकर ज्ञान -विज्ञान के विभिन्न पक्षों के महत्व की) उसने बात की है, वह बिलकुल सही है। आधुनिक सन्दर्भ में यह हिंदी पर पूरी तरह लागू होती है । हिंदी में लिखे प्राचीन – नवीन काव्य / ललित साहित्य  पर हम जितना गर्व कर सकते हैं, क्या वैसा ही गर्व करने योग्य प्रयोजनमूलक साहित्य हमारे पास है ? या इस दृष्टि से हिंदी की स्थिति कुपोषित बच्चे जैसी है – पेट फूला, हाथ-पैर सूखे, आँखें मुंदी हुई, चेहरा निस्तेज ?

 

किसी पुस्‍तक मेले में उपलब्ध हिंदी की नई-पुरानी पुस्तकों पर नजर डालिए तो आपको लगभग सत्‍तर प्रतिशत कहानी- कविता- उपन्यास – नाटक आदि की, बीस प्रतिशत धर्म- अध्‍यात्‍म की,  आठ-दस प्रतिशत महापुरुषों की जीवनियों, चरित्र गाथाओं आदि की, और एकाध प्रतिशत कंप्यूटर, इतिहास- राजनीति शास्‍त्र की पुस्तकें दिखाई देंगी । अर्थशास्‍त्र, समाजशास्‍त्र, मनोविज्ञान, दर्शन आदि की भी इक्की-दुक्की पुस्तकें नज़र आ सकती हैं ; पर प्रयोजनमूलक भाषा के अन्य क्षेत्र (जैसे, रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, शैल विज्ञान, यंत्र विज्ञान, ब्रह्माण्ड विज्ञान, समुद्रविज्ञान, भूविज्ञान, भूकम्पविज्ञान, भूगणित, ऊष्मागतिकी, दूरसंचार यांत्रिकी, विद्युत यांत्रिकी, चुम्बकत्व, स्पोर्ट्स फोटोग्राफी, आटोमोबाइल फोटोग्राफी, फोटो पत्रकारिता  आदि) में हिंदी / भारतीय भाषाओं के ग्रन्थ ढूंढे से भी नहीं मिलते।  क्या इसी कारण भारत विज्ञान की दुनिया में आज पिछड़ा हुआ है क्योंकि हम अपनी भाषा में विज्ञान को नहीं अपना रहे हैं ?  कैसी विडम्बना है कि जिस देश ने आदिकाल में चिकित्सा और खगोल जैसे वैज्ञानिक विषयों की जानकारी पूरी दुनिया को दी, जिसके संस्कृत में लिखे विमान शास्त्र  के आधार पर (अमरीका के राइट ब्रदर्स से आठ साल पहले 1895 में) शिवकर बापूजी तलपदे ने मानवरहित “मरुत्सखा “ विमान बनाकर और उड़ाकर दिखा दिया, उस देश के वैज्ञानिक आज केवल अंग्रेजी में वैज्ञानिक अनुसंधान कर रहे हैं ! समझ में नहीं आता कि विज्ञान और तकनीक से संस्कृत / हिंदी /आधुनिक भारतीय भाषाओं का कट जाना साहित्यिक दुर्घटना है या सोची समझी राजनीतिक साज़िश !  जो भाषा अपने समय के विज्ञान से कटी हो वह कितने दिन ज्ञान की भाषा बनी रह सकती है ?

 

 

कहा तो यह जाता है कि अलग-अलग विषयों की हिंदी में लगभग 25 – 30 हजार पुस्तकें प्रतिवर्ष प्रकाशित होती हैं, पर वे न पुस्तक मेले में दिखाई देती हैं न हिंदी सम्मेलनों में । प्रकाशित होने के बावजूद उन्हें समुचित सम्मान क्यों नहीं मिलता ? जिन तकनीकी विषयों की इक्की – दुक्की पुस्तकों की चर्चा सरकारी पुरस्‍कार के सन्दर्भ में समाचारपत्रों में पढ़ने को कभी-कभार मिल जाती है, वे भी पुस्तक मेले या  बाजार में दिखाई क्यों नहीं देतीं ? बैंकिंग विषयों पर मौलिक हिंदी पुस्तक लेखन की एक योजना भारतीय रिज़र्व बैंक के संरक्षण में पिछले लगभग 25 वर्ष से चल रही है, दर्जनों पुस्तकें इस योजना के अंतर्गत प्रकाशित हो चुकी हैं, पर इन पुस्तकों की और उनके लेखकों की चर्चा बस रिज़र्व बैंक की बैठकों के कार्य-विवरण में ही मिलती है, बाजार में नहीं। आखिर प्रयोजनमूलक लेखन और प्रयोजनमूलक लेखक उपेक्षित क्यों ?

 

लोग कहते हैं कि भाषा और शिक्षा का नाभि – नाल का सम्बन्ध है। किसी भाषा में पुस्तकें तभी लिखी जाती हैं और उन्हें सम्मान तभी मिलता है जब वह शिक्षा का माध्यम होती है। आज शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है, इसलिए हिंदी में पुस्तकें नहीं लिखी जा रही (या कम लिखी जा रही) हैं। क्या यह तर्क पूर्ण सत्य पर आधारित है ? अगर इस तर्क को स्वीकार कर लें तो पहला प्रश्न तो यही उठता है कि फिर हिंदी में कविता-कहानी-नाटक आदि भी क्यों लिखे जा रहे हैं और उनके सम्मान – समारोह क्यों आयोजित किए जा रहे हैं ? प्रश्न यह भी है कि शिक्षा का माध्यम बनने पर पाठ्यपुस्तकें तैयार होती हैं, या मौलिक ग्रन्थ लिखे जाते हैं ? पाठ्यपुस्तकों के लिए सामग्री मौलिक ग्रंथों से ली जाती है या मौलिक ग्रंथों के लिए सामग्री पाठ्यपुस्तकों से ली जाती है ? शिक्षा माध्यम की भाषा बनना किसी भाषा की सम्पन्नता का परिणाम होता है या कारण होता है ? कहीं बात ‘ पहले मुर्गी या अंडे ‘ वाली तो नहीं ?

 

क्या बिडम्बना है कि अंग्रेजी शासनकाल में जब हिंदी, मराठी आदि भाषाएँ शिक्षा का माध्यम नहीं थीं, तब अनेक विद्वानों ने ज्ञान – विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में  (ऐसे विषयों में भी जिनका शिक्षण स्कूल / कालेज / यूनिवर्सिटी में होता ही नहीं था),  हिंदी, मराठी, बांग्ला आदि भारतीय भाषाओं में उच्च स्तर के मौलिक ग्रंथों का सृजन  किया। स्वामी श्रद्धानंद (1856–1926) द्वारा हरिद्वार के निकट 1902 में स्थापित गुरुकुल कांगड़ी के शिक्षकों ने आधुनिक ज्ञान – विज्ञान की विभिन्न शाखाओं पर हिंदी में सर्वप्रथम  मौलिक ग्रन्थ लिखे। काशी नागरी प्रचारिणी सभा (स्थापना 1893), और विज्ञान परिषद, प्रयाग (1913) के संरक्षण में ऐतिहासिक महत्व  के अनेक ग्रन्थ लिखे गए । नगेन्द्र नाथ बसु (1866-1938) ने बांग्ला और हिंदी में  विश्वकोश (1916 – 1931). बनाया ।  सुख सम्पति राय भंडारी ने लगभग नौ सौ पृष्ठों का ऐसा ” अंग्रेजी – हिंदी कोश ” तैयार किया जिसमें चिकित्सा विज्ञान, शरीर रचना विज्ञान, शरीर क्रिया विज्ञान, शल्य चिकित्सा विज्ञान, प्रसूति विद्या, खगोल विज्ञान, प्राणि विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, गणित जैसे विषयों के पारिभाषिक शब्दों का भी समावेश किया।  डा.रघुवीर (1902–1963) ने पूरे भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में कार्यरत लगभग दो सौ विद्वानों के सहयोग से विभिन्न वैज्ञानिक विषयों एवं संसदीय प्रयोग के लगभग डेढ़ लाख पारिभाषिक शब्द प्रस्तुत कर दिए।

 

रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा (1863–1947)  जब ” भारतीय  प्राचीन लिपिमाला ” ग्रन्थ लिख रहे थे, तब सिरोही (राजस्थान) के अँगरेज़ कलक्टर ने उनसे अनुरोध किया कि यह ग्रन्थ अंग्रेजी में लिखें। ओझा जी ने उत्तर दिया, आपका ज्ञान पाने के लिए हमने आपकी भाषा सीखी, अब हमारा ज्ञान पाने के लिए आप हमारी भाषा सीखिए। इसी भावना से तत्कालीन अनेक विद्वानों ने हिंदी, मराठी, गुजराती, बांग्ला आदि में ऐतिहासिक महत्व के  ग्रन्थ लिखे,  पर बाद में यह भावना लुप्त होती चली गई। इसका परिणाम यह है कि उधर ज्ञान-विज्ञान के नए-नए क्षेत्र उभरते गए, और हम बराबर पिछड़ते गए । इसीलिए आज की स्थिति का आकलन करते ही एक शून्य उभरने लगता है ।

 

यदि हम इस अभाव में जीना नहीं चाहते तो हमें इस शून्य को भरने के प्रयास करने होंगे । सबसे पहले हमें “ साहित्य “ की परिभाषा को बदलना होगा । आज हिन्दी साहित्य से हमारा आशय होता है कविता-कहानी-नाटक-उपन्यास आदि अर्थात केवल ललित साहित्य । ज़रा विचार कीजिए, जब हम कहते हैं कि संस्कृत या अंग्रेजी का  साहित्य बहुत विशाल है, तो क्या तब भी हमारा आशय केवल ललित साहित्य होता है ? अगर नहीं, तो हिंदी के सन्दर्भ में यह संकीर्ण परिभाषा क्यों ? हिंदी साहित्य सम्मेलनों में चर्चा केवल केवल ललित साहित्य की क्यों ? पुरस्कार केवल ललित साहित्य को क्यों ?

 

हम सब जानते हैं कि ललित साहित्य के क्षेत्र में तो हर वर्ग का व्यक्ति अपनी भावनाएं व्यक्त करने का प्रयास कर सकता है, पर प्रयोजनमूलक साहित्य का सृजन वही कर सकता है जो उस विषय का सम्यक ज्ञाता हो और जिसकी लेखन में भी रुचि हो। ऐसा मणि-कांचन योग (तकनीकी विषय का ज्ञान और उसके लेखन में रुचि) बहुत कम मिलता है। अतः समाज को अपनी ओर से ऐसे विद्वानों को खोजने, उन्हें लेखन के लिए  प्रेरित करने, उनके साहित्य को प्रकाश में लाने हेतु उन्हें सम्मानित- पुरस्कृत करने वाली कुछ विशेष आकर्षक योजनाएं बनानी चाहिए।

 

पिछले कुछ वर्षों से देश और विदेश में हिंदी सम्मेलन आयोजित किए जा रहे हैं जिनमें कतिपय साहित्यकारों / हिन्दीसेवियों को सम्मानित भी किया जाता है । जो विद्वान प्रयोजनमूलक साहित्य का सृजन कर रहे हैं, उनके सम्मान की एक शुरुआत इन सम्मेलनों से ही की जा सकती है। इस सम्बन्ध में सम्मेलन के आयोजनकर्ताओं के विचारार्थ कुछ सुझाव प्रस्तुत हैं :

 

1. ललित साहित्य की भांति ही प्रयोजनमूलक साहित्य को पुरस्कृत करने की योजना बनाएँ। यह योजना यदि ललित साहित्य की अपेक्षा अधिक आकर्षक होगी , तो सोने में सुहागा होगा ।

2. प्रयोजनमूलक साहित्य की रचना करने वाले विद्वानों को विशेष रूप से आमंत्रित किया जाए, और सम्मेलन में उन्हें सम्मानित / पुरस्कृत किया जाए।

3  सम्मेलन का एक सत्र उनके प्रकाशित साहित्य की चर्चा और / या प्रयोजनमूलक साहित्य की आवश्यकताओं / समस्याओं  की चर्चा के लिए रखा जाए।

4.  प्रयोजनमूलक साहित्य की बिक्री की संभावनाएं अपेक्षाकृत कम ही होती हैं । अतः इसे प्रकाशित करने वाले प्रकाशकों का भी सम्मान होना चाहिए।

5. वर्ष के दौरान विभिन्न स्थानों से प्रकाशित प्रयोजनमूलक साहित्य की सूची भी प्रकाशकों के सहयोग से तैयार की जा सकती है । यह सूची सम्मेलन में वितरित एवं स्मारिका में प्रकाशित की जाए ताकि इस क्षेत्र में हिंदी के विकास का परिचय लोगों को मिले।

6. इन सम्मेलनों में प्रस्ताव पास करके साहित्य अकादमी / ज्ञानपीठ जैसी संस्थाओं से भी अनुरोध किया जाए कि वे जिस प्रकार ललित साहित्य पर पुरस्कार देती हैं, उसी प्रकार “ प्रयोजनमूलक साहित्य ” पर भी पुरस्कार दें ।

7. कोई ऐसी योजना बनानी चाहिए जिससे  पुस्तक मेलों में प्रयोजनमूलक साहित्य की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके।

 

ये कुछ सुझाव मात्र हैं । मेरा अनुरोध है कि विद्वद्जन प्रयोजनमूलक साहित्य की वृद्धि और इस प्रकार हिंदी की श्रीवृद्धि के बारे में गंभीरता से विचार करके मार्गदर्शन करें।

 

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डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री
जन्म लखनऊ में, पर बचपन - किशोरावस्था जबलपुर में जहाँ पिताजी टी बी सेनिटोरियम में चीफ मेडिकल आफिसर थे ; उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में स्नातक / स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन करने के पश्चात् भारतीय स्टेट बैंक , केन्द्रीय कार्यालय, मुंबई में राजभाषा विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त ; सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी बैंक में सलाहकार ; राष्ट्रीय बैंक प्रबंध संस्थान, पुणे में प्रोफ़ेसर - सलाहकार ; एस बी आई ओ ए प्रबंध संस्थान , चेन्नई में वरिष्ठ प्रोफ़ेसर ; अनेक विश्वविद्यालयों एवं बैंकिंग उद्योग की विभिन्न संस्थाओं से सम्बद्ध ; हिंदी - अंग्रेजी - संस्कृत में 500 से अधिक लेख - समीक्षाएं, 10 शोध - लेख एवं 40 से अधिक पुस्तकों के लेखक - अनुवादक ; कई पुस्तकों पर अखिल भारतीय पुरस्कार ; राष्ट्रपति से सम्मानित ; विद्या वाचस्पति , साहित्य शिरोमणि जैसी मानद उपाधियाँ / पुरस्कार/ सम्मान ; राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर का प्रतिष्ठित लेखक सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान , लखनऊ का मदन मोहन मालवीय पुरस्कार, एन सी ई आर टी की शोध परियोजना निदेशक एवं सर्वोत्तम शोध पुरस्कार , विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अनुसन्धान अनुदान , अंतर -राष्ट्रीय कला एवं साहित्य परिषद् का राष्ट्रीय एकता सम्मान.

4 COMMENTS

  1. सोचता हूँ कि एक एक कर हिंदी के उपेक्षित क्षेत्रों की व्याख्या करते डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्र जी व सभी हिंदी-प्रेमियों व शुभचिंतकों द्वारा अब तक लिखे आलेखों व पुस्तकों की संदर्भग्रंथ सूची बनाई जाए तो कोई अचम्भा न होगा कि सूची का शीर्षक व परिचय और प्रस्तावना अंग्रेजी में ही हो! यह इस लिए क्योंकि कुछ शतकों पहले हमें सभ्य बनाने आये फिरंगियों द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष हमारे जीवन में हस्तक्षेप उनका मौलिक अधिकार बन कर रह गया था और यहाँ से उनके प्रस्थान कर जाने के बाद, उनकी पादुकाएं, मेरा अभिप्राय अंग्रेजी भाषा व लिपि, सिर पर रख पिछले सात दशकों से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारतीय समाज को कंगाल करने में लगी रही है|

    जब जब राष्ट्रभाषा बनाए जाने हेतु व भारतीयों में सामान्य संवाद द्वारा उनमें संगठन बढ़ातीं भारतीय मूल की देवनागरी में रचित भाषाओं में से सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली हिंदी भाषा की बात होती है, दीर्घ श्वास ले हम अधिकतर मैकॉले के नाम पर सांस रोके अटक जाते हैं; रक्तचाप बड़ जाता है, और क्रुद्ध मन अपने मानसिक संतुलन को ही खो हम कोई कुछ करने में असमर्थ हो जाते हैं| हम मैकॉले पद्धति के प्रचारक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को दोष नहीं देते हैं क्योंकि तथाकथित स्वतंत्रता उपरान्त से देश में सबसे बड़े नियोक्ता के रूप में अधिकांश जनसमूह की घर की रसोई कांग्रेस और कांग्रेस सरकार की कृपा से ही चलती रही है| आज भी सरकारी नौकरी पाने में देशवासियों को बंटाते आरक्षण जैसे न जाने कैसे कैसे षड्यंत्रकारी कांग्रेसी चक्रव्यूहों में हम फंसे बैठे हैं|

    शराब की तरह अंग्रेजी भाषा का नशा भी धीरे धीरे उतारना होगा क्योंकि शराब का एकाएक त्याग करने से राष्ट्र रूपी शरीर को हानि पहुँच सकती है| अभी तो गाँव, कस्बों, व शहरों में अपने अपने पड़ोस में स्थित दुकानों के मालिकों को निवेदन करना होगा कि वे अपनी दुकान का नाम व उससे सम्बंधित सूचना केवल हिंदी अथवा क्षेत्रीय भाषा में ही लिखें| अंग्रेजी भाषा के अज्ञान के कारण पिछड़े देश के बहुसंख्यक नागरिकों के सामाजिक व आर्थिक उत्थान हेतु समाज में बुद्धिजीवियों को केंद्रीय व प्रांतीय शासन में नीति-निर्माताओं व विशेषज्ञों के साथ मिल ऐसे प्रयोजन करने होंगे जो हिंदी भाषा के साथ साथ प्रांतीय भाषाओं की गुणवत्ता और नागरिक-रूचि को बढ़ाते उन्हें कार्यशैली का आधार बन पाने योग्य बनाएं| मेरा मानना है कि देश में संगठन व एकता के कारण मुझ ठेठ पंजाबी में यदि हिंदी भाषा के लिए ज्ञान विश्वास व सम्मान है तो कोई तमिल अथवा अन्य भारत-मूल की भाषा जानने वाले नागरिक द्वारा हिंदी को राष्ट्रभाषा मानने में क्योंकर कोई आपत्ति हो सकती है| यदि इस पर भी कोई हिंदी न बोलने वाला नागरिक भाषा को नहीं सीखना चाहता तो कोई बात नहीं लेकिन भारतीयों में संगठन व एकता के नाम हिंदी का विरोध निंदनीय माना जाना चाहिए|

    फिर से, आज इक्कीसवीं शताब्दी में यदि संसार में विकसित देशों की ओर दृष्टि डालें तो हम पायेंगे कि वहां नागरिकों में संगठन और सामान्य भाषा ही उनकी सफलता का मूलाधार है| हमें मैकॉले को नहीं बल्कि विश्वविद्यालय स्तर पर शोधकार्य करते ब्रिटिश राज के प्रतिनिधि कार्यवाहक और भारत में मैकॉले पद्धति के प्रचारक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा भारतीय संस्कृति व भारत मूल की भाषाओं को दीर्घ क्षति व भारतीय जीवन में महत्वपूर्ण उपलब्धियों के अभाव के लिए उनके उत्तरदायित्व को औरों, विशेषकर उनके पथभ्रष्ट समर्थकों, को समझाना होगा ताकि कांग्रेस-मुक्त हम सभी मिल भारत-पुनर्निर्माण में अपना यथायोग्य योगदान दे पाएं|

  2. अगर समय रहते नहीं जागे तो भारत की पहचान एक भाषा विहीन राष्ट्र की हो जाएगी।

    • भाषा विहीन राष्ट्र ही क्यों, अगर समय रहते नहीं जागे तो भाषा-विहीन राष्ट्रीय अस्तित्व के अलोप होने पर भारत के नहीं, केवल दक्षिण जम्बुद्वीप के लोग कहलाए जाएंगे!

  3. हिंदी का एक उपेक्षित क्षेत्र
    लेख अत्यंत सुंदर है। इसमें आपने आम हिंदी प्रेमी की भावना को व्यक्त किया है। मैं भी एक हिंदी सेवी के रूप में कार्यरत हूँ। मैं एम् ए (हिंदी) छोड़कर संपूर्ण शिक्षा अंगेजी माध्यम से ग्रहण की है लेकिन, कार्यालय के भीतर या बाहर 24×7 किसी भी प्रयोजन के लिए जैसे ATM, BANK,POST OFFICE,R AS RAILWAYS आदि हर जगह हिंदी का ही प्रयोग करता हूँ। मेरा मानना है कि जो कार्य मैं खुद न करूं वह दूसरे को कहने का नैतिक अधिकार कैसे हासिल कर सकता हूँ। हिंदी मेरे लिए मात्र नौकरी नहीं मिशन है।
    बहुत बहुत धन्यवाद!
    सादर
    अनिल त्रिपाठी
    7972526247
    9405904161

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