हिंदी हैं हम वतन हैं…

0
169

– बी एन गोयल-
hindi

नरेद्र मोदी के सन्दर्भ में हिंदी की पुनर्स्थापना

‘हिंदी हैं हम वतन हैं हिन्दुस्तां हमारा
हम बुलबुले हैं इस की, यह गुलिस्तां हमारा।’
सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा

ये पंक्तियां हैं- हमारे यानी भारतीय क़ौमी तराने की जो पाकिस्तान के संस्थापक डॉ. अल्लामा इक़बाल ने कभी पाकिस्तान की अवधारणा से भी बहुत पहले लिखा था । बात इस में हिंदी अर्थात हिन्दवासियों की है, हिंदी भाषा की नहीं। संविधान निर्माताओं ने देश में हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में माना और संविधान के लागू होने के 15 वर्ष अर्थात् 1965 तक देश में हिंदी स्थापित करने का प्रावधान किया। लेकिन ये सब नियम और प्रावधान प्रदूषित राजनीति के शिकार हो गए। इसके लिए कुछ नेताओं की सत्ता लोलुपता को दोषी माना जा सकता है। 1965 में हिंदी के नाम पर हुए दंगे इस सता लोलुपता के ही परिणाम थे। उसके बाद तो हिंदी कुछ नेताओं के स्वार्थ की राजनीति में फंसती चली गयी। अब नरेंद्र मोदी को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने देश में एक लहर चलाई है। चुनाव में उनकी अप्रत्याशित विजय का एक मुख्य कारण है कि उन्होंने अपने पूरे चुनाव अभियान में पूरे देश में हिंदी में ही संवाद स्थापित किया। मंत्री अभी सांसदों का शपथ ग्रहण समारोह भी समाप्त हुआ। इसमें भी हिंदी भाषा का ही वर्चस्व रहा। मोदी संभवतः पहले इस विषय के प्रति संवेदनशील राजनैतिक व्यक्ति हैं। ऐसा नहीं है कि अन्य नेता इस बात को नहीं जानते। वे जानते हैं लेकिन वे अंजामn बने हैं। वे या तो भ्रमित हैं अथवा उहापोह में हैं। टीवी पर यह देख कर अच्छा लगा की सोनिया गांधी ने भी हिंदी में ही शपथ ली। मोदी इस बारे में स्पष्ट थे। चुनाव के बाद के सभी कार्यक्रमों में भी उन्होंने इस बात का ध्यान रखा। 26 मई को मंत्री मंडल के शपथ समारोह में 44 मंत्रियों में से 35 ने हिंदी में शपथ ली थी। सांसद के रूप में भी अधिकांश सदस्यों ने हिंदी में शपथ ली। तीन सांसदों ने संस्कृत भाषा में शपथ ली। इस का तात्पर्य यह है कि संस्कृत भी संसद में एक मान्यता प्राप्त भाषा है। प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद मोदी जी ने सभी आगंतुक राष्ट्राध्यक्षों से हिंदी में ही बात की। जो लोग हिंदी नहीं जानते वे अपनी भाषा या अंग्रेजी में बोलने के लिए स्वतंत्र थे। मोदी जी उन की अंग्रेजी समझते थे लेकिन अपनी बात उन्होंने अपनी भाषा में ही की जैसा कि श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे के साथ हुआ। अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करज़ई अच्छी हिंदी बोलते, लिखते और पढ़ते हैं क्योंकि वे हिमाचल विवि शिमला के छात्र रहे हैं। यहीं से उन्होंने बीए और एमए पास किया था। नवाज़ शरीफ तो बोलते ही हमारी भाषा (हिंदी/उर्दू) है। यही स्थिति मालदीव की है। नेपाल व मॉरीशस के लिए हिंदी दूसरी मातृ भाषा के समान है।

इसी दौरान में भारत में स्थित लगभग सभी देशों के राजदूत उन से मिल चुके हैं और अपने अपने देशों का दृष्टिकोण रख चुके हैं। मोदी जी सभी से मिले और सभी से हिंदी में संवाद स्थापित किया। कहीं कोई कठिनाई नहीं हुई यद्यपि सुविधा के लिए दुभाषियों का प्रबंध भी किया गया है। आगे के लिए भी मोदी जी ने स्पष्ट किया है की वे हिंदी ही बोलेंगे। यहां तक की अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ भी वे अपनी बात हिंदी में ही कहेंगे। वैसे यहां यह कहना भी असंगत नहीं होगा की ओबामा काफी समय तक पाकिस्तान रहे हैं अतः इतनी तो आशा की जा सकती है कि वे मामूली हिंदी (हिंदुस्तानी/अथवा उर्दू) शायद समझते हों। अभी कुछ समय पहले हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मान्यता प्राप्त भाषा का दर्जा देने की मांग फिर से उठी है । बताया गया की इस काम के लिए ८२ हज़ार करोड़ रुपये प्रति वर्ष का खर्च आएगा। विचारणीय प्रश्न है की क्या यह राशि देश के मान सन्मान से भी बढ़कर है।

मोदी जी ने इस सम्बन्ध में अटल बिहारी वाजपयी को अपना आदर्श मान रखा है। विदेश मंत्री के रूप में वाजपेयी जी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपना भाषण हिंदी में दिया था। यह अभी तक संभवतः पहला और अंतिम अवसर था जब अंतर्राष्ट्रीय मंच से भारत के किसी नेता ने हिंदी में भाषण दिया हो। परेशानी यह है की भारत का हिंदी भाषी युवा एक दोराहे पर है। वह न हिंदी ठीक बोलता है और न ही अंग्रेज़ी। वह लिखता तो बिलकुल नहीं है। उस की भाषा को हिंगलिश का नाम दिया गया है अर्थात हिंदी और इंग्लिश का मिला-जुला रूप लेकिन उस में हिंदी तो कहीं होती नहीं, अंग्रेजी की स्थिति भी दयनीय होती है। उसके मन में एक बात बैठ गयी है कि हिंदी एक बेकार भाषा है, उसे सिर्फ अंग्रेजी ही पढ़नी चाहिए। अंग्रेजी के बगैर जीवन बेकार है। लेकिन क्या हानि है यदि हिंदी अथवा अपनी भाषा के साथ अंग्रेजी भी ठीक से आती हो।

मुझे प्रायः पांचवे विश्व हिंदी सम्मलेन 1997 का वह दिन याद रहता है, जब इंग्लैंड के SOAS के तत्कालीन निदेशक और हिंदी के प्रोफ़ेसर डॉ. रुपर्ट स्नेल से मेरी पहली बार भेंट हुई थी और उन्होंने अंग्रेजी बोलने पर मुझे मीठी झिड़की दी थी। जब मेरे मुंह से फिर आदतन निकला- ‘ओह सॉरी’। ‘फिर अंग्रेजी में’– उन्होंने फिर से झिड़का और मैं चुप। सोचिये ज़रा कि एक गोरे, इंग्लैंड में जन्मे, अंग्रेजी वातावरण में पले व्यक्ति की ऐसी हिंदी भक्ति उसके बाद उनसे अनेक बार बात हुई। एक भारतीय व्यक्ति की तरह कुर्ता पजामा पहने उन्हें कभी भी दिल्ली की सड़कों पर मिला जा सकता है। मालवीय नगर या चांदनी चौक में ऑटो रिक्शा वाले से बतियाते उन्हें देखा जा सकता है, उनके बोलने में लगता है जैसे की दिल्ली इलाहाबाद का कोई पुराना देसी आदमी बोल रहा है। हिंदी भाषा के प्रति इन का उत्कृष्ट प्रेम यदि देखना चाहते हैं तो 1998 में जनसत्ता में प्रकाशित इन के धारावाहिक लेखों का अध्ययन करना होगा जहाँ हिंदी को देसी जननी और अंग्रेजी को गोरी मेम के प्रतीकों से निरूपित किया था। दिल्ली में बीबीसी के भूतपूर्व संवाददाता मार्क टल्ली शुद्ध संस्कृत निष्ठ हिंदी बोलते हैं। ऐसे और भी उदाहरण हैं लेकिन हमारे देशवासियों को हिंदी बोलने मे संकोच होता है। अनेक ऐसे विदेशी विद्वान हुए हैं, जिन्हें हिंदी ही नहीं संस्कृत के प्रति भी अटूट प्रेम है। मेक्स मूलर, शापन्हावर की कड़ी meiडेविड फाउलर यानी वामदेव शास्त्री हैं जो आज भी उतने ही सक्रिय हैं। डॉ. कामिल बुल्के का भगवान राम और राम कथा के प्रति प्रेम और उन की इंग्लिश – हिंदी डिक्शनरी को कौन नहीं जानता।

मुझे यहां अपने पेरिसवास का एक अनुभव याट आता है। इंग्लैंड और फ़्रांस दोनों पडोसी देश हैं। फ़्रांस के लोग अंग्रेजी जानते हैं लेकिन इसे विदेशी भाषा होने के नाते नापसंद करते हैं। हम भारतीयों को इस में कठिनाई होती है क्योंकि हम अंग्रेजी तो कुछ जानते भी हैं लेकिन फ्रेंच बिलकुल नहीं जानते। फ़्रांस में अंग्रेजी भाषा में कोई भी व्यक्ति आप की सहायता के लिए तैयार नहीं होता वरन वे सब आप की ओर हेय दृष्टि से देखते हैं। मुझे बैंक की तलाश थी। चौराहे की एक बिल्डिंग पर मुझे बैंक का बोर्ड दिखाई दिया- फ्रेंच में Banque लिखा हुआ। बिल्डिंग काफी बड़ी थी- चौराहे पर दो सड़कों को जोड़ती हुई। बिल्डिंग के दोनों तरफ घूमने पर कहीं भी बैंक का गेट नहीं मिला। कोने पर एक फलों की दूकान थी और उस पर एक बुज़ुर्ग सा व्यक्ति बैठा था। साथ में उस की 15/16 वर्षीया बेटी बैठी थी। मैंने सोचा इस व्यक्ति की मदद ली जाये। मैंने अपनी विवशता बताने की कोशिश में जल्दी से कहा- I don’t know French – I want to know the gate of this Bank. बुज़ुर्ग व्यक्ति एक दम आग बबूला हो गया- ज़ोर से बोला- Go Go लेकिन उस की बेटी ने मेरी परेशानी भांप ली और बैंक का गेट दिखाया।

काश हम भी अपनी भाषा के प्रति ऐसा भाव पैदा कर सकते।
शायद मोदी युग में यह संभव हो सके।

Previous articleधर्म, हिंसा और आतंक
Next articleपार्क की महफिल में
बी एन गोयल
लगभग 40 वर्ष भारत सरकार के विभिन्न पदों पर रक्षा मंत्रालय, सूचना प्रसारण मंत्रालय तथा विदेश मंत्रालय में कार्य कर चुके हैं। सन् 2001 में आकाशवाणी महानिदेशालय के कार्यक्रम निदेशक पद से सेवा निवृत्त हुए। भारत में और विदेश में विस्तृत यात्राएं की हैं। भारतीय दूतावास में शिक्षा और सांस्कृतिक सचिव के पद पर कार्य कर चुके हैं। शैक्षणिक तौर पर विभिन्न विश्व विद्यालयों से पांच विभिन्न विषयों में स्नातकोत्तर किए। प्राइवेट प्रकाशनों के अतिरिक्त भारत सरकार के प्रकाशन संस्थान, नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए पुस्तकें लिखीं। पढ़ने की बहुत अधिक रूचि है और हर विषय पर पढ़ते हैं। अपने निजी पुस्तकालय में विभिन्न विषयों की पुस्तकें मिलेंगी। कला और संस्कृति पर स्वतंत्र लेख लिखने के साथ राजनीतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक विषयों पर नियमित रूप से भारत और कनाडा के समाचार पत्रों में विश्लेषणात्मक टिप्पणियां लिखते रहे हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here