१९१६ के लखनऊ के कांग्रेस और मुस्लिम लीग के संयुक्त अधिवेशन में जो समझौता किया गया उसमे मुसलमानों और सिखों के लिए पृथक निर्वाचक-मंडलों के सिद्धांत को मान्यता दे दी गयी.उन्हें उनकी जनसँख्या के अनुपात से भी अधिक प्रतिनिधित्व दे दिया गया.मुसलमानों को विभिन्न प्रांतीय विधान सभाओं में क्रमशः पंजाब में ५०%,संयुक्त प्रान्त (यु.पी.)में ३०%,बंगाल में ४०%,बिहार में २५%,मध्य प्रान्त और बरार में १५%,मद्रास में १५%,बम्बई में ३३.५% प्रतिनिधित्व स्वीकार कर लिया गया.इसके अतिरिक्त इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल में मुस्लिम प्रतिनिधित्व एक तिहाई कर दिया गया.
लखनऊ समझौते में कांग्रेस द्वारा दो खतरनाक सिद्धांतों को मान्यता दे दी गई.प्रथम, पृथक सांप्रदायिक निर्वाचक मंडलों का मुसलिमों को अधिकार और प्रतिनिधित्व;द्वित्तीय,मुस्लिम लीग को भारत के सभी मुसलमानों की ओर से बोलने का अधिकार.केवल पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने ही इस समझौते का विरोध किया जिसने मुस्लिम अलगाववाद को जन्म दिया.
द्वित्तीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर अंग्रेजों ने तुर्की को विघटित कर दिया. पूरी दुनिया के मुसलमानों ने इसकी कोई परवाह नहीं की लेकिन भारत के मुसलमानों ने इसके विरुद्ध आवाज मुखर की.जबकि भारत में भी जो पढ़े लिखे मुस्लमान थे वो इसे सही नहीं मानते थे.जिन्नाह भी इसके विरुद्ध थे.और खिलाफत आन्दोलन को दकियानूसी,अन्धविश्वासी मुसलमानों का आन्दोलन मानते थे.भारत के मुसलमानों के इस फितूर पर पट्टाभि सितारामैय्या ने ”कांग्रेस का इतिहास” (पृष्ठ ३३५) में एक प्रसंग का उल्लेख किया है ”अगस्त १९२० में हजारों मुस्लमान अफगानिस्तान में बसने के लिए गए जो उनके अनुसार ’दारुल-इस्लाम’ था.अफगानों ने बड़ी निर्दयता से उन्हें अपनी सीमा पर रोक दिया,उन्हें जी भर कर लूटा और उन ’बिन बुलाये मेहमानों’ को धक्के मारकर वापिस खदेड़ दिया.अफगानिस्तान से मुस्लमान निराश व निर्धन होकर लौटे.
भारत के मुसलमानों को खुश करने के लिए गांधीजी ने मोतीलाल नेहरु के सुझाव पर कांग्रेस द्वारा खिलाफत के समर्थन की घोषणा कर दी.बिपिनचंद्र पाल,सी.आर.दास,रविन्द्र नाथ टेगोर,मुहम्मद अली जिन्नाह, डॉ.एनीबेसेंट,सी.ऍफ़.एंड्र्यूज लोकमान्य तिलक आदि ने इसका विरोध किया.लेकिन गांधीजी के असर से प्रस्ताव ८८४ के विरुद्ध १८८६ मतों से पारित हो गया.महात्मा गाँधी ने यहाँ तक कह दिया की ”यदि आवश्यक हुआ तो खिलाफत के प्रश्न पर सफलता प्राप्त करने के लिए मैं स्वराज्य के प्रश्न को भी टाल सकता हूँ”.खिलाफत आन्दोलन १ अगस्त १९२१ को शुरू हुआ और उससे एक रात पहले लोकमान्य तिलक जी का निधन हो गया.इस पर टिप्पणी करते हुए प्रसिद्द पत्रकार दुर्गादास ने अपनी पुस्तक ”इण्डिया फ्रॉम कर्ज़न टू नेहरु एंड आफ्टर”में लिखा की तिलक जी का जाना और खिलाफत आन्दोलन का शुरू होना ऐसा था जैसे नियति ने इस बात का संकेत दे दिया हो की अब कांग्रेस में राष्ट्रवादी धारा का युग समाप्त हो गया है और समझौते और मुस्लिम परस्ती का दौर शुरू हो गया है.
इस आन्दोलन के दौरान खुले आम अल्लाहो अकबर के नारे लगाये गए.और मुस्लिमों की धार्मिक भावनाएं भड़काई गयीं.इस पर मालवीय जी और अन्य विरोधियों ने चेतावनी दी थी की ”खिलाफत आन्दोलन की आड़ में मुस्लिम भावनाएं भड़काकर भविष्य के लिए खतरा पैदा किया जा रहा है.”लेकिन उनकी एक न सुनी गयी.भले ही इस आन्दोलन से अंग्रेजों का बाल भी बांका नहीं हो पाया लेकिन इसने पूरे भारत में मुस्लिम कट्टरपंथ के जहरीले सांप को जिन्दा कर दिया.खिलाफत आन्दोलन की असफलता से चिढ़े मुसलमानों ने पूरे देश में दंगे करके अनगिनत हिन्दुओं की हत्याएं कर डालीं.२९ नवम्बर १०२१ को डॉ एनीबेसेंट, जो कांग्रेस की अध्यक्ष भी रह चुकी थीं,ने दिल्ली में एक बयान जारी करके कहा की,”असहयोग आन्दोलन को खिलाफत आन्दोलन का भाग बनाकर गांधीजी तथा कुछ कांग्रेसी नेताओं ने मजहबी हिंसा को पनपने का अवसर दिया.एक ओर खिलाफत आन्दोलनकारी मोपला मुस्लिम मौलानाओं द्वारा मस्जिदों में भड़काऊ भाषण दिए जा रहे थे दूसरी ओर असहयोग आन्दोलनकारी हिन्दू जनता से यह अपील कर रहे थे की हिन्दू-मुस्लिम एकता को पुष्ट करने के लिए खिलाफत वालों को पूर्ण सहयोग दिया जाये”.
मालाबार में मोपलों द्वारा किये गए अत्याचारों के विरुद्ध पीड़ित महिलाओं ने तत्कालीन वायसराय लार्ड रीडिंग की पत्नी को ज्ञापन दिया लिसमे लिखा,”हमारे निकट सम्बन्धियों पर मोपलों ने ’अल्ला-हो-अकबर’ के नारे लगाते हुए आक्रमण किये,उनके तलवारों व बरछों से अंग-भंग कर उन्हें अधमरा कर कुओं और तालाबों में फेंक दिया गया.गर्भवती महिलाओं के पेट में खंजर भोंककर उन्हें तडपा-तडपा कर मार गया.हमारे दुधमुंहे छोटे-छोटे बच्चों कोभी मुस्लिम आततायियों ने हमारी गोदी से छीनकर उनके टुकड़े कर फेंक दिए.हमारे वृद्ध माता पिताओं को इस्लाम मजहब ग्रहण करने से इंकार करने के कारण यातनाएं दे देकर मार डाला गया.युवतियों को पकड़कर एकांत में ले जाकर उन पर अमानवीय यातनाएं ढाई गईं.”आगे लिखा गया की,”हमारे मंदिरों पर हमले कर मूर्तियाँ तोड़ डाली गयीं.गायों की हत्याएं कर उनका रक्त, आँखें तथा मांस मूर्तियों पर चढ़ाया गया.कालीकट जैसे नगर में धनाढ्य हिन्दुओं को लूटकर उन्हें दर-दर का भिखारी बना दिया गया.”
सर्वेन्ट्स ऑफ़ इण्डिया सोसाईटी ने जांच के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा की ’हजारों हिन्दुओं की नृशंस हत्याएं की गयीं,तथा बीस हजार हिन्दुओं को धर्मान्तरित कर बलात मुस्लमान बनाया गया.’ इस बारे में डॉ आंबेडकर जी ने भी अपनी पुस्तक ”भारत का विभाजन” में बहुत तीखी टिप्पणियां की हैं और गांधीजी के रवैय्ये की भी आलोचना की थी.
दिसम्बर १९२ में मालवीय जी ने और १९२५ में लाला लाजपतराय ने कांग्रेस की उस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर कड़े प्रहार किये और हिन्दुओं को राजनीतिक दृष्टि से संगठित होने पर बल दिया गया.गांधीजी द्वारा की जा रही हिन्दू-मुस्लिम एकता की कोशिशों को इन्होने असंभव और अव्यवहारिक बताया था……..क्रमशः