ऋषि दयानन्द के जीवनकाल में लिखित व प्रकाशित उनकी प्रथम जीवनी दयानन्द दिग्विजयार्क

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-दयानन्द दिग्विजयार्क ग्रन्थ का महत्व एवं उसके प्रकाशन की आवश्यकता-

-मनमोहन कुमार आर्य,

आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द के अनेक जीवन चरित्र उपलब्ध हैं जो अनेक ऋषिभक्त उच्च कोटि के विद्वानों ने समय-समय पर लिखे हैं व प्रकाशित हुए हैं। इन जीवन चरितों में एक जीवन चरित ऐसा भी है कि जो उनके जीवन काल में ही लिखा गया। तीन खण्डों वाले उस जीवन चरित के दो खण्ड ऋषि के जीवन काल में ही तैयार होकर प्रकाशित भी हो गये थे। इस जीवन चरित का एक सम्पादित संस्करण डा. भवानीलाल भारतीय जी के सम्पादन में प्रसिद्ध ऋषिभक्त लाला दीपचन्द आर्य जी ने वर्ष 1974 में प्रकाशित किया था। अब यह ग्रन्थ लम्बे समय से अप्राप्य है। यह ग्रन्थ बाद के ऋषि जीवन चरितों के लेखकों व सम्पादकों के लिए सामग्री की दृष्टि से भी उपयोगी रहा है। इस ग्रन्थ की पृष्ठभूमिका व महत्व पर डा. भारतीय ने अपने सम्पादकीय वक्तव्य में प्रकाश डाला है। हम यहां उनके सम्पादकीय वक्तव्य से कुछ प्रमुख बातें प्रस्तुत कर रहे हैं। डा. भवानीलाल भारतीय लिखते हैं ‘यों तो ऋषि दयानन्द के विभिन्न भाषाओं के अनेक जीवन-चरित्र लिखे गये हैं परन्तु ये सभी ऋषि के परलोक-गमन के पश्चात् ही लिखे गये। ऋषि के जीवन काल में भी एक जीवन चरित्र लिखा गया था जिसके रचयिता एक महाराष्ट्रीय सज्जन थे–पं0 गोपाल राव हरि। पं0 गोपाल राव हरि फर्रुखाबाद में स्कूलों के सब-डिप्टी इन्सपैक्टर थे। स्वामी जी के दर्शन उन्होंने 1925 वि0 में किये तथा वे उनके दृढ़ अनुयायी एवं भक्त बन गये। आर्यसमाज फर्रुखाबाद के मासिक मुख पत्र ‘भारत सुदशा प्रवर्तक’ का सम्पादन भी पं0 गोपाल राव हरि ने किया तथा 1937 वि0 (सन् 1880-1881 ईस्वी) में दयानन्द दिग्विजयार्क का प्रणयन प्रारम्भ किया। प्रथम खण्ड की रचना 1938 वि0 (सन् 1881-82 ईस्वी) में समाप्त हुई । तत्पश्चात् द्वितीय खण्ड का लेखन प्रारम्भ हुआ। यह खण्ड भी उक्त वर्ष में ही समाप्त हो गया। इसके दो वर्ष पश्चात् 1940 वि0 (सन् 1883-1884 ईस्वी) में स्वामी दयानन्द का देहावसान हो गया। तदनन्तर 1945 वि0 (1888-89 ईस्वी) में लेखक ने ग्रन्थ का अवशिष्ट तृतीय खण्ड लिखकर समाप्त किया। प्रथम और द्वितीय खण्ड के दो-दो संस्करण (द्वितीय संस्करण 1944 वि0) प्रकाशित हुए किन्तु तृतीय खण्ड एक ही बार छपा।

 

इस ग्रन्थ की एक दुर्लभ प्रति (मात्र 2 खण्ड) मुझे जोधपुर के दुर्लभ पुस्तक विक्रेता (रेयर बुक डीलर्स) श्री तेजपाल से प्राप्त हुई। तृतीय खण्ड की एक जीर्ण-शीर्ण प्रति पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक ने पठनार्थ प्रदान की, जिसके प्रारम्भिक तथा अन्तिम अनेक पृष्ठ फट चुके थे। इस ग्रन्थ का आद्योपान्त अवलोकन करने से मुझे विदित हुआ कि दयानन्द दिग्विजार्क के लेखक ने पुण्यलोक महर्षि के इतिवृत्तों का संग्रह करने में अपूर्व श्रम किया है तथा पं0 लेखराम एवं पं0 देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय आदि जीवनीकारों ने अपने ग्रन्थों में इस पुस्तक का भरपूर उपयोग किया है।

 

जब मैं सन् 1969 में अजमेर आया तो परोपकारिणी सभा के पुस्तकालय में दयानन्द दिग्विजयार्क के तृतीय खण्ड को समग्र रूप में देखा। तब मेरा सुनिश्चित विश्वास हो गया कि यदि इस ग्रन्थ को पुनः प्रकाशित किया जाय तो यह अतीव उपयोगी, ज्ञानवर्धक एवं लाभप्रद सिद्ध होगा। सौभाग्य से आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट के संस्थापक श्री दीपचन्द जी आर्य का भी यही विचार था और अब श्री आर्य जी के ही सत् प्रयास से यह ग्रन्थ पुनः सम्पादित होकर आर्य जनता एवं पाठको के समक्ष आ रहा है। ग्रन्थ की महत्ता एवं ऐतिहासिकता का अनुमान तो पाठक उसे पढ़ कर ही कर सकेंगे, यहां इतना लिख देना ही अलं है कि लेखक ने जो सामग्री संचित की है वह उसकी (फस्ट हैंड नालेज) पर आधारित है। स्वयं स्वामी जी के समकालीन होने तथा उनके विश्वासभाजन होने के कारण पं0 गोपाल राव हरि ने स्वामी जी के जीवनवृत, उनके कार्यों तथा प्रवृत्तियों का जो विवरण उपलब्ध किया है वह सर्वथा प्रामाणिक एवं विश्वसनीय है।’ डा. भवानी लाल भारतीय जी ने अन्त में यह भी अनुमान किया है उनके द्वारा सम्पादित इस ग्रन्थ से महर्षि के जीवन एवं व्यक्तित्व के मूल्यांकन में विद्वानों एवं शोध-कर्ताओं को इससे प्रभूत सहायता मिलेगी।

 

इस ग्रन्थ का प्रकाशकीय आर्य विद्वान एवं ऋषिभक्त श्री दीपचन्द आर्य जी ने लिखा है। इस ग्रन्थ के विषय में वह लिखते हैं कि सर्वप्रथम मैंने ‘परोपकारी’ पत्रिका में इस पुस्तक के विषय में पढ़ा। जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि मैं इसका अध्ययन करूं। पुस्तक यहां अनुपलब्ध थी अतः कुछ कालान्तर में जब डा0 भवानीलाल जी भारतीय से मेरा सम्पर्क हुआ तो मैंने अपनी अभिलाषा को उनके सामने रखा। उन्होंने इस पुस्तक की प्रतिलिपि बड़े परिश्रम से तैयार की। ऋषि के ही जीवन काल में एकत्रित वृत्तान्तों के विशेष महत्व को देखते हुए पुस्तक की सुरक्षा का ध्यान आया। यह जीवन चरित्र तो सुरक्षित ही रहना चाहिए यह भावना उत्पन्न हुई। अतः श्री डा0 भवानीलाल जी भारतीय से इसके सम्पादनार्थ प्रार्थना की जिसको उन्होंने बड़े परिश्रम व योग्यता से सम्पादित किया जिसके लिए मैं उनका हृदय से आभार प्रकट करता हूं। पांच हजार वर्ष के बाद एक ऋषि का पृथिवी पर जन्म हुआ जिसने मानव मात्र को सत्य का मार्ग बताया। ऐसे ऋषि की अमर जीवन गाथा की एक-एक घटना एक विशेष महत्व रखती है और मानव मात्र के लिये एक आदर्श उपस्थित करती है। महर्षि ने इस अन्धकारमय युग में किस प्रकार सत्यार्थ के फैलाने में दिग्विजय प्राप्त की इसका आभास इस पुस्तक से पाठकों को भलीभांति हो जाएगा। जिस प्रकार राम का सच्चा चरित्र मूल रूप से वाल्मीकि रामायण में ही मिलता है इसी प्रकार ऋषि जीवन के मूल ग्रन्थों में यह पुस्तक अपना विशेष महत्व रखती है।

 

पं. गोपाल राव हरि जी लिखित ऋषि जीवनी की पृष्ठ भूमि, महत्व आदि से पाठक डा0 भवानीलाल भारतीय जी एवं ऋषिभक्त श्री दीपचन्द आर्य जी के विचार पढ़कर परिचित हो गये होंगे। यह बता दे कि ऋषि जीवनी का यह संस्करण आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली की ओर से सितम्बर, 1974 में प्रकाशित किया गया था। पुस्तक में कुल 300 पृष्ठ हैं। पुस्तक में ग्रन्थकार पं. गोपाल राव हरि प्रणतांकर जी का डा0 भवानीलाल भारतीय लिखित परिचय भी दिया गया है। पं0 गोपाल राव हरि जी की अन्य रचनायें हैं: पाखण्ड-तिमिर-नाशक-पत्र-चन्द्रिका, तिमिरनाशक तृतीय खण्डसार, प्रस्ताव रत्नाकर तथा ज्ञान सागर एवं सुन्दरी सुधार। सुन्दरी सुधार ग्रन्थ नारी शिक्षा का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ सन् 1895 में गोधर्म प्रकाश मंत्रालय फर्रुखाबाद से छपा था।

 

इस पुस्तक के अन्त में आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली के उन दिनों प्रकाशित ग्रन्थों की सूची भी प्रकाशित की गई है। इस सूची व पुस्तक के अन्तिम कवर पृष्ठ पर ट्रस्ट के प्रकाशन ‘प्रमाण सूची’ का भी विज्ञापन है। इस महत्वपूर्ण पुस्तक के विवरण में कहा गया है कि महर्षि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश से लेकर वेदभाष्य पर्यन्त तथा समस्त जीवन-चरित्रों, पत्र-व्यवहार, उपदेश और शास्त्रार्थों से उद्धृत ग्रन्थों के क्रम से तथा मतवादियों के ग्रन्थों के अप्रमाण वचनों की पृथक-पृथक ग्रन्थ के नाम उल्लेखपूर्वक प्रकरणादि क्रम से बड़े पुरुषार्थ से यह सूची तैयार की गई है। इसकी सहायता से स्वाध्यायशील आर्य विद्वान किसी प्रामाणिक तथा अप्रामाणिक वचन का व्याख्यान बड़ी सरलता से प्राप्त कर सकते हैं। इसके लेखक हैं यशस्वी आर्य विद्वान एवं महात्मा दीपचन्द आर्य जी के सुयोग्य पुत्र श्री धर्मपाल व्याकरणाचार्य जी। ट्रस्ट ने दयानन्द-यजुर्वेद-भास्कर नाम से महर्षि दयानन्द कृत यजुर्वेदभाष्य को समझने में जो कठिनाइयां सामने थी उनका निराकरण ‘भास्कर’ नामक इस व्याख्या में पाठकों को उपलब्ध होगा। भाषा का परिष्कार किया गया है तथा महर्षि का भी भाष्य अविकलरूपेण रखा गया है। मन्त्र में आए भावों को भाष्यसार सन्दर्भ में साररूपेण प्रस्तुत किया गया है। यत्र-तत्र अन्य भाष्यकारों द्वारा किए अनर्थ का भण्डाफोड़ तथा महर्षि दयानन्द द्वारा किए गए अर्थ का समर्थन किया गया है। उपदेशकों व स्वाध्यायशील वेद-जिज्ञासुओं के लिए अत्यन्त उपयोगी चार भागों में बढ़िया मैपलीथो कागज पर प्रकाशित ग्रन्थ का मूल्य 60 रुपये मात्र है। यजुर्वेद भाष्य का भाषानुवाद टीका भी दो खण्डों में प्रकाशित हुई थी। इसें हमें पढ़ने का अवसर मिला है।

 

पं. गोपाल राव हरि जी लिखित ऋषि दयानन्द का प्रथम जीवन चरित्र लम्बे समय से अनुपलब्ध है। हम अनुभव करते हैं कि इसका नया संस्करण शीघ्र प्रकाशित किया जाना चाहिये। हम यह भी अनुभव करते हैं कि प्रमाण सूची एवं दयानन्द-यजुर्वेदभाष्य-भास्कर व भाषानुवाद टीका ग्रन्थों का प्रकाशन भी शीघ्र किया जाना चाहिये। यदि इनका प्रकाशन नहीं होता तो स्वाध्यायशील ऋषिभक्त जनता इन ग्रन्थों से होने वाले लाभों से वंचित रहेगी। इन महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन न होना आर्यजगत के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है। इसी के साथ हम इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

 

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