कालाधन के खि़लाफ़ जारी अपनी मुहिम को मूर्तरुप देते हुए प्रधानमन्त्री मोदी द्वारा अचानक ही 500 और 1000 रुपये के नोटों के चलन पर रोक लगाकर पूरे देश को सकते में डाल दिया गया। प्रधानमन्त्री का यह क़दम निःसन्देह प्रशंसनीय है जिसका स्वागत किया ही जाना चाहिए क्योंकि इस निर्णय से ये बात साबित हो जाती है कि उनकी कथनी और करनी में कोई फ़र्क नहीं। साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अपने संकल्प और कर्तव्यों का वे पूरा सम्मान करते हैं और उनका निर्वाह करना उन्हें आता है। पिछले माह वड़ोदरा के एक विवाह समारोह में काले धन के खि़लाफ़ सर्जिकल स्ट्राइक की बात करने वाले मोदी ने अन्ततः ये सच कर दिखाया। 8 नवंबर की रात्रि आठ बजे प्रधानमन्त्री ने अचानक ही राष्ट्र के नाम संबोधन के बाद 500 और 1000 के नोटों पर पाबंदी का ऐलान कर दिया जो देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की दीमक व काले धन को जड़ से उखाड़ फेंकने की दिशा में निश्चित ही एक अमोघ अस्त्र का काम करेगा। नरेन्द्र मोदी ने सत्ता प्राप्ति से पहले जनता से भारतीयों द्वारा विदेशों में जमा की गई काली कमाई को भारत वापस लाने और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने का वादा किया था। नोटबन्दी की ये घोषणा इसी क्रम में की गई एक सराहनीय पहल है जिसके दूरगामी परिणाम होंगे। प्रधानमन्त्री के इस कथन में दम नज़र आता है कि सीमा पार से हमारा दुष्मन जाली नोटों को भारत में भेजता है और आतंकवादी गतिविधियों में इनका इस्तेमाल होता है। पुराने नोटों को गैरक़ानूनी घोशित करने पर आतंकवादियों की कमर टूट जाएगी। एक ओर जहां नकली नोटों के कारोबार पर अंकुश लगेगा तो दूसरी तरफ़ इनका नेटवर्क नेस्तनाबूद हो जाएगा।
सरकार द्वारा प्रचलित मुद्रा का विमुद्रीकरण या कालाधन को उजागर करने की कोशिशें कोई नई बात नहीं है। प्राचीन भारत का इतिहास विमुद्रीकरण व मुद्रा सुधारों से भरा पड़ा है। सनकी बादशाह के नाम से विख्यात मुहम्मद बिन तुगलक अपनी मुद्रा नीति और उसमें किये गए सुधार एवम् परिवर्तन के लिए प्रसिद्ध है। तुगलक ने 1325 से 1351 के बीच सोने,चाँदी के स्थान पर ताँबा,पीतल,निकिल और गिलट से बनी सांकेतिक मुद्रा का चलन प्रारम्भ किया। मुद्रा के इस वैज्ञानिक चलन से उसने अपने राजकोश में वृद्धि के उद्देश्य को सफ़लतापूर्वक अंजाम भी दिया। 1540-1545 में विशुद्ध रुप से भारतीय शासक शेरशाह सूरी ने पूर्व प्रचलित मुद्रा में सुधार करके तीन धातुओं की सिक्का प्रणाली लागू की जो बाद में मुग़लों की पहचान बनी। आज के रुपये का अग्रदूत रुपया भी शेरशाह सूरी के शासन में ही जारी हुआ। भारत के अलावा रुपया नेपाल,श्रीलंका,इंडोनेषिया,मालदीव,माॅरीशस व सेशेल्स में राष्ट्रिय मुद्रा के रुप में प्रचलन में है। मुग़ल सम्राट अकबर ने भी अपने काल में मुद्रा में कई बदलाव किए। उसने खुली टकसाल व्यवस्था की शुरुआत की जिसके अनुसार टकसाल शुल्क देने में सक्षम व्यक्ति किसी दूसरी मुद्रा या सोने से अकबर की मुद्रा को परिवर्तित कर सकता था। अकबर की मंशा पूरे साम्राज्य में एक ही मुद्रा चलाने की थी। स्वतन्त्रता के बाद 1978 में भी विमुद्रीकरण की नीति पर अमल करते हुए उच्च मूल्यवर्ग के नोटों को बन्द कर दिया गया। भ्रष्टाचार के डंक से पीड़ित भारतवर्ष को एक लम्बे अरसे से एक आर्थिक क्रान्ति की आवश्यकता थी। मोदी ने राष्ट्र की ज़रुरत को भाँपते हुए सही समय पर इस मुहिम का आग़ाज़ कर दिया जिसका अंजाम अभी बाक़ी है।
नमो सरकार का यह फ़ैसला स्वतन्त्र भारत के इतिहास में आर्थिक सुधारों की दृष्टि से एतिहासिक है। इसमें कोई षक़ नहीं कि मोदी सरकार का यह निर्णय अत्यन्त महत्वपूर्ण है और राष्ट्र निमार्ण में यह एक मील का पत्थर साबित होगा। यद्यपि इसके दूरगामी परिणाम देश के आर्थिक विकास में अहम योगदान देने का कार्य करेंगे तथापि इसके नकारात्मक प्रभावों को मद्देनज़र रखते हुए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि यह जल्दबाज़ी में उठाया गया पूर्वनियोजित मगर कारगर क़दम है। ग़लतियां शायद इसलिए हो गईं चूंकि सम्भवतः सम्पूर्ण प्रक्रिया को पूर्ण रुप से गुप्त रखा गया और इसमें अधिक सलाह नहीं ली गई। ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी ने रहस्य उजागर होने पर कालाधन के खि़लाफ़ पूरी मुहिम धराशाही हो जाने के डर से पहले स्वयं और बाद में एक सीमित मगर विशवस्त टीम के साथ चरणबद्ध रुप से प्रक्रिया को नियन्त्रित किया। पहले चरण के रुप में प्रधानमन्त्री ने जन-धन योजना के तहत एक अभियान चलाकर बैंक सुविधाओं तक हर व्यक्ति की पंहुच बनाने का लक्ष्य पूर्ण किया जिसमें बड़े पैमाने पर उन गरीब वर्ग के लोगों ने भी बैंक खाते खुलवाए जिनमें जागरुकता का अभाव था। योजना से अधिक से अधिक खाते खुल सकें इसलिए जानबूझ कर ज़ीरो बैलेंस से खाता खोलने की सुविधा दी गई। 28 अगस्त 2014 से सितम्बर 2016 तक लगभग 17.90 करोड़ बैंक अकाउंट खुले। प्रधानमन्त्री को निश्चित ही ये आभास था कि जन-धन खातों के ज़रिये अधिकांश ग़रीब,मज़दूर,दबे-कुचले और मध्यम वर्ग की जनता बैंकिग प्रणाली से जुड़ेगी। दूसरी ओर घोषणा के तीसरे दिन ही बैंकों में 500 व 2000 के नये नोट आ जाने से यह अनुमान प्रबल हो जाता है कि काला धन पर नकेल कसने का यह मोदी प्लान पूर्वनियोजित था। सम्पूर्ण प्रक्रिया कई माह से जारी होगी। राज़फ़ाश से इच्छित लक्ष्य स्वाहा हो जाने की आशंका के चलते गोपनीयता बरकरार रखना एक बड़ा कारण बना।
वैसे तो मुद्रानियन्त्रण सरकार का संवैधानिक अधिकार है मगर दूसरी ओर भारतीय लोकतन्त्र आम जनता के हितों की अनदेखी की इजाज़त भी केन्द्र को नहीं देता। मोदी सरकार से आम जनता की अपेक्षाएं इसलिए भी बढ़ जाती हैं चूंकि इसी अवाम ने भाजपा को प्रबल जनादेश देकर ये भूमिका सौंपी। मगर ये देखकर हैरानी हुई कि इतना बड़ा फ़ैसला लेने से पहले जनता की सम्भावित दिक्कतों का तनिक भी ख़याल नहीं रखा गया। सरकार को छोटे नोटों की अपेक्षाकृत कम उपलब्धता को ध्यान में रखकर भी जनहित के दृष्टिगत आने वाली समस्याओं का त्वरित समाधान ढंूढना था। फिर भी हिन्दुस्तान की ईमानदार जनता ने काली कमाई करने वालों के खि़लाफ़ इस सर्जिकल स्ट्राइक का खुले दिल से स्वागत किया तो दूसरी ओर माफ़िया,आतंकवादियों,सफ़ेदपोषों,भ्रष्टाचारियों और अनाधिकृत रुप से अकूत धन जमा करने वालों की दुनिया ही लुट गई। काले धन का संग्रहण करने वाले अब इस अकूत धन को ठिकाने लगाने के नये-नये तरीके खोज रहे हैं। इस निर्णय से न जाने कितने ही करोड़पति,धनाढ्य और पूंजीपति कुछ ही पलों में कंगाल हो गए। भले ही फ़ैसले ने भारत के हर छोटे-बड़े उस तबके को भी प्रभावित किया जो कि पूरी तरह निर्दोश,शरीफ़ और ईमानदार था। मगर इसके महान मक़सद को देखते हुए यह हर लोकतन्त्र प्रेमी का फ़र्ज़ बनता है कि वो देश के लिए इन्हें हृदय से भुला दे। ऐलान के पाँच दिन बीतने के बाद भी सरकार के लाख दावों के बावजूद आम जनता को रेलों,निजी व सरकारी यात्री वाहनों,पैट्रोल पम्पों,मेडिकल स्टोर्स और प्राइवेट अस्पतालों में भारी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। ग़रीब-मज़दूरों का ऐसा तबका़ जो दो जून की रोटी का इंतज़ाम रोज ही करने को अभिशप्त है और जिसे कोई उधार सामान भी नहीं देता उसको तमाम दिक़्कतों से जूझना पड़ रहा है। अन्ततः कुछ छोटी बड़ी परेशानियों को नज़रअंदाज़ करने के बाद एक स्वस्थ,स्वच्छ और विकसित राष्ट्र की स्वप्नपूर्ति में नागरिकों को सहयोग देने को तत्पर रहना ही चाहिए। देश हमसे आज बलिदान मांग रहा है। ख़ून नहीं बल्कि मात्र तुच्छ दिक़्क़तों का त्याग। क्या राष्ट्र के नवर्निमाण और राष्ट्रहित में हम अदना सी परेशानियों की क़ुर्बानी नहीं दे सकते ? यदि नही ंतो हमें भारतीय कहलाने का भी कोई हक़ नहीं!