छुट्टी का हक तो बनता ही है..

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vacationशर्मा जी बहुत दिन से घूमने नहीं आ रहे थे। न सुबह, न शाम। बाकी मित्र तो ज्यादा चिन्ता नहीं करते; पर मेरा मन उनके बिना नहीं लगता। बहुत दिन हो जाएं, तो बेचैनी होने लगती है। सो मैं उनके घर चला जाता हूं। मिलना का मिलना, और साथ में भाभी जी के हाथ के गरमागरम परांठे। गोभी से लेकर मूली तक, और आलू से लेकर पनीर तक, हर तरह के पंराठे बनाना कोई उनसे सीखे। रात के बचे सामान से नया व्यंजन बनाने में शर्मा मैडम पी-एच.डी. हैं।

खैर साहब, परसों शर्मा जी के घर पहुंचा, तो पता लगा कि वे छुट्टी पर हैं। कहां गये हैं और कब आएंगे, इसका जवाब भाभी जी ठीक से नहीं दे सकीं। बोलीं, ‘‘ये तो उन्हीं को पता होगा; पर फिलहाल वे बाहर हैं।’’ अब जो आदमी घर-परिवार के लिए दिन-रात खटता हो, उसका छुट्टी पर जाना अपराध तो नहीं है साहब; पर बिना घर में बताये, चुपचाप चले जाना भी तो ठीक नहीं है। शाम को पार्क में इसकी चर्चा हुई, तो गुप्ता जी बोले, ‘‘ये भी तो हो सकता है कि शर्मा मैडम को पता हो; पर वे बताना न चाहती हों।’’ ये बात भी ठीक ही थी। इसलिए सब लोग चुप होकर अपने काम में लग गये।

पर तीसरे ही दिन शर्मा जी अचानक प्रकट हो गये। हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। बिना बताये गये और बिना कहे ही लौट आये। पूछने पर पहले तो टालते रहे, फिर एक दिन बता ही दिया कि वे राजुल बाबा के साथ छुट्टियां बिता रहे थे।

– राजुल बाबा के साथ. ?

– हां, क्यों; उनके साथ छुट्टी बिताना पाप है क्या ?

– पाप तो नहीं है; पर उन्हें छुट्टी की क्या जरूरत पड़ गयी ?
– तुम क्या जानो वर्मा, काम का कितना दबाव है उन पर। ‘सोना एंड कम्पनी’ का खानदानी कारोबार, एक और दो नंबर की सम्पत्ति, घर के अन्दरूनी टकराव, मुकदमे, देश-विदेश में फैले मित्र और रिश्तेदार…; एक लफड़ा है क्या ? सब जिम्मेदारी अब उन्हीं पर है। इसी में दिन-रात लगे रहते हैं। कई-कई दिन तक तो नहाने-धोने और दाढ़ी बनाने का भी समय नहीं मिलता।

– तो वे काम बांटकर बोझ हल्का क्यों नहीं कर लेते ?

– यह काम भी तो आसान नहीं है। जिन्हें काम देते हैं, वे कुछ दिन में अपनी अलग ही दुकान खोल लेते हैं। कई साथियों ने तो पुरानी फर्म से ही नाता तोड़ लिया है। उनकी दुकानें भी ‘सोना एंड कम्पनी’ से अच्छी चल रही हैं।

– पर कारोबार में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं ?

– हां, पर कई पुराने ग्राहक कह रहे हैं कि यदि राजुल बाबा से काम नहीं संभलता, तो वे इसे पिंकी दीदी को सौंप दें।

– तो इसमें बुरा क्या है ?

– पर इसके लिए ‘माताश्री’ तैयार नहीं हैं। वे दीदी को तो चाहती हैं, पर दामाद को नहीं। उन्हें डर है कि इस बहाने दामाद जी ही कहीं फर्म पर कब्जा न कर लें। ऐसा हो गया, तो न कोई उन्हें पूछेगा और न राजुल बाबा को। नमाज के चक्कर में रोजे ही गले पड़ जाएं, तो इसे समझदारी कौन कहेगा ?

– तो उन्हें फर्म के पुराने खानदानी मुनीमों से सलाह लेनी चाहिए।

– यही तो मुसीबत की जड़ है। पुराने लोग नहीं चाहते कि अभी से राजुल बाबा ‘सोना एंड कम्पनी’ के सर्वेसर्वा बन जाएं। वे कहते हैं कि बाबा अभी छोटे हैं। उन्हें कुछ साल काम सीखना चाहिए; पर माताश्री को डर है कि यदि फर्म किसी और को दे दी, तो कहीं वे राजुल बाबा को ही बेदखल न कर दें। तब तो हाथ में कुछ भी नहीं रहेगा। राज घरानों में यह मारामारी आम बात है। फिर ‘माताश्री’ का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता। वे अपनी आंखों के सामने ही बेटे को फर्म संभलवा देना चाहती हैं।

– लेकिन दो-चार साल काम सीखने में क्या बुरा है ?

– पुश्तैनी काम तो बच्चे हसंते-खेलते ही सीख जाते हैं। राजुल बाबा भी इसी तरह बचपन से सीख रहे हैं। पिछले दो-तीन साल से तो ‘माताश्री’ ने पूरा धंधा उन्हें ही सौंप रखा है। वे खुद तो नाममात्र की मुखिया हैं। असली मालिक तो राजुल बाबा ही हैं। वे काम में काफी मेहनत भी कर रहे हैं।

– युवा हैं, तो मेहनत करेंगे ही।

– पर उनका कहना है कि उन्हें काम करने नहीं दिया जा रहा। जड़ों में घुसे खूसट बूढ़े उनके युवा साथियों को बढ़ने नहीं देते। राजुल बाबा एक झटके में सब पुरानी धूल साफ कर देना चाहते हैं; पर इसके लिए ‘माताश्री’ भी तैयार नहीं हैं।

– शर्मा जी, महत्व तो पुराने और नये दोनों का ही है। किसी ने कहा भी है कि ‘आंवले का खाया और बुजुर्गों का बताया’ बेकार नहीं जाता। ‘नींव के बिना निर्माण’ नहीं होता।

– पर ये बात उन्हें कौन समझाए ?

– तो उनके परिश्रम से काम कितना बढ़ा है ?

– बस यही तो परेशानी की जड़ है।

– क्या मतलब.. ?

– जब से उन्होंने काम संभाला है, सब तरफ घाटा हो रहा है। असल में घाटा तो ‘माताश्री’ के सामने ही होने लगा था। बंगाल, उ.प्र., म.प्र., छत्तीसगढ़, बिहार, उड़ीसा, पंजाब.. आदि में फर्म लुट गयी। रही-सही कसर बाबा के हाथ में काम आने से पूरी हो गयी। अब तो राजस्थान, तेलंगाना, आंध्र, हरियाणा, झारखंड, जम्मू-कश्मीर,  महाराष्ट्र, दिल्ली आदि में भी डब्बा गोल है। कहीं दूसरी फर्में बढ़ रही हैं, तो कहीं अपने से अलग हुए साथी। फर्म का मुख्यालय दिल्ली में है। माता से लेकर बेटा-बेटी और जीजाश्री तक सब यहीं रहते हैं; पर यहां वालों ने तो पिछले दिनों खाता ही बंद कर दिया। अब तो डर ये है कि कहीं फर्म के डेरे-तम्बू ही समेटने की नौबत न आ जाए। और फिर ऊपर से राजुल बाबा की बार-बार की ये छुट्टी।

– शर्मा जी, बुरा न मानें तो एक बात कहूं ? फर्म चौपट करने में जब राजुल बाबा इतनी मेहनत कर रहे हैं, तो उनका कुछ दिन छुट्टी लेने का हक तो बनता ही है।

शर्मा जी मेरा मुंह देखते रह गये।

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