घर

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घर ऐसा परिवेश है, जो एकान्तता और भागीदारी ( privacy and sharing) के घिरे स्थान को समेटे हुए होता है

homeआदिम मनुष्य जानवरों की तरह ही जंगलों में रहता था। अपना भोजन जंगलों से खाद्य संग्रह और शिकार के द्वारा जुटाता था। फिर उसने खेती करना सीख ही नहीं लिया, अपना भी लिया। इसके साथ पशुपालन भी शुरु हुआ। साझा करना अनिवार्य़ हो गया। पुरुष और नारी के बीच सहजीविता के सरोकार में प्रगाढ़ता का विकास हुआ। पुरुष खेतों में काम करता, फसल उगाता, जबकि नारी  आवास में रहकर फसल और शिकार को पकाकर घरवालों के लिए भोजन तैयार करती, बच्चों की देखभाल करती। पुरुष सत्ता और नारी सत्ता की सीमाएँ निर्धारित हुईं । श्रम के बँटवारे की अवधारणा प्रतिष्ठित हुई। साझा करना जीने को सहजता और सुरक्षा देता। एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के लिए लगाव विकसित हुआ। व्यक्ति को अपनी जरूरतों के ऊपर अपनों की जरूरत को प्राथमिकता देना आनन्द देने लगा। रिश्ते बने और सम्मानित हुए।  आवास का विकास घर की सत्ता में हुआ।

साथ साथ कबीलों का रुपान्तरण होता रहा। अब कबीले समाज और समुदायों में विकसित होते गए तो निजता (प्राइवेसी) की अवधारणा उभड़ी और सम्मानित होती गई।

तब घरों में आँगन होता था। आँगन परिवार की अस्मिता को परिभाषित करता था। परिवार को पड़ोस तथा समाज से प्राइवेसी देता।  परिवार के सदस्यों के लिए साझेपन का स्पेस हुआ करता था आँगन।  घर की छत के नीचे तीन या अधिक पीढ़ियों के सदस्य हुआ करते थे। परिवार के सभी सदस्यों के बीच रिश्तों की मजबूत डोर होती थी। इसके फलस्वरुप लोग एक दूसरे की जरूरत को अपनी व्यक्तिगत जरूरत के आगे प्राथमिकता दिया करते। आँगन का परिवेश रिश्तों की हलचल एवम् परस्पर के प्रति समर्पण से भरा होता था। टकराव भी होते थे पर एक दृढ़ लचीलापन आघात अवशोषक का काम करता था। प्राइवेसी घर-परिवार के लिए सम्मानित थी, लेकिन व्यक्ति की प्राइवेसी को स्वीकृति नहीं थी। वक्त के साथ सदस्यों की संख्या बढ़ा करती थी और घर में सदस्यों के लिए प्राइवेसी की गुञ्जाइश घटती जाती थी। ऐसी स्थितियाँ भी असामान्य नहीं थीं जब पति-पत्नी को घनिष्ठतम क्षणों के लिए प्राइवेसी के लिए जदेदोजहद करनी पड़ती।

परिवार के सदस्यों के लिए परम्परा से हस्तान्तरित एक सुस्पष्ट आचरण संहिता हुआ करती थी। सत्ता परिवार के वरिष्ठतम सदस्य में केन्द्रित हुआ करती थी।  घर परिवार बच्चों पर केन्द्रित हुआ करता। परिवार एक जीवित प्राणी की भाँति हुआ करता था, जिसके विभिन्न अंग इसके सदस्य हुआ करते। घर परिवार के सदस्यों के लिए एक अलिखित आचार संहिता थी, जिसके अनुसार घर के बूढ़े और कमजोर सदस्यों के लिए सेवा,सम्मान और सुरक्षा का सहज आश्वासन उपलब्ध था। घर नई पीढ़ी को जीवनमंत्र से दीक्षित करता था। पारस्परिकता में किसी समझौते को सम्मान नहीं था। घर स्वस्ति, स्वीकृति, सुरक्षा और अपनेपन का एहसास देता है। घर जीवन के अर्थ और उद्देश्य के प्रति सजग रखता है।

लेकिन कृषि आधारित समाज व्यवस्था से उद्योग आधारित समाज में संक्रमण से रोजगार के वैकल्पिक अवसर उभड़े । फलस्वरुप परिवार में आय के स्रोत का विकेन्द्रीकरण हुआ  और साथ साथ सत्ता का भी। घर की संरचना और स्वरुप पर दूरगामी प्रभाव पड़ता रहा।

मानव समाज के क्रम-विकास के फलस्वरुप घर के आयाम में दूरगामी परिवर्तन आए हैं।  खासकर विगत दिनों में अकल्पनीय प्रौद्योगिक प्रगति के फलस्वरूप परिवार की संरचना और क्रिया-पद्धति में अन्तर आए हैं । व्यक्तिवाद के हावी होने से घर (home) की पारम्परिक अवधारणा लुप्त-प्राय और आप्रासंगिक होने को है । अब परिवार के केन्द्र में सन्तान नहीं होती,वयस्क होते हैं, सन्तान तो बस आनुषंगिक प्रसंग की तरह होते हैं। बूढ़े माँ-बाप का घरों में रहना उलझन पैदा करता है। टाट में पैबन्द की तरह। आज DINK (double income no kid )तथा DISK ( double income single kid ) परिवारों का जुनून है । यह इस स्थिति का संकेत तो नहीं है कि सन्तान घर-परिवार के केन्द्र में नहीं रह गए हैं? माँ-बाप   आज आत्मविवर्धन तथा आत्म-परितुष्टि (self -aggrandizement and self- fulfillment ) की प्रवृत्तियाँ प्रभावी होती हैं।

आज की नारी का कार्यक्षेत्र घर की चाहरदिवारी से सीमाबद्ध नहीं रह गया है ।आज के पहले की सामान्य नारी की सत्ता पिता, पति और पुत्र के सन्दर्भ में परिभाषित होती थी। अब वह व्यक्ति की स्वतंत्र पहचान पा रही है।इन दो सत्ताओं के बीच का द्वन्द्व तीखा हुआ है। स्वभावतः घर के प्रबन्धन के लिए उसके पास समय तथा प्राथमिकता में  कमी है । नई स्थितियों का उभड़ने का सिलसिला शुरु होना लाजिमी है ; आचार-संहिता के रुप में परम्परा की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगने लगता है । आज के upward mobile मध्यवर्ग के लिए यह बात घिसी-पिटी और स्वयंसिद्ध प्रतीत होती है कि मँहगाई की मार को झेलने के लिए औरतों को घर से बाहर निकलकर परिवार की आय में योगदान करने की बाध्यता हो गई है । अधिक सही निष्कर्ष होगा कि व्यक्तिवाद की माँग की प्रतिबद्धता में हर कोई अपने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के साथ समझौता करने से इनकार करता है।

अब हमारे घर पहले से बड़े हैं और परिवार छोटे। हमारे मकान अधिक शानदार हैं पर घर टूटे हुए ।  सुविधाएँ अधिक हैं पर समय कम। अब हम अपने अपने सपनों के लिए संघर्ष करते हैं। घर के अन्दर सजनेवाले सपने बदले हैं। हमारे संघर्ष बदले हैं । हर किसी के व्यक्तिगत अपने ही सपने होते हैं, हर कोई अपने ही सपनों को पूरा करने के लिए परेशान रहता है। सपनों की साझीदारी नहीं होती। संघर्षों की भी साझेदारी नहीं होती। हर किसी का संघर्ष उसका अपना होता है।  प्यार नहीं, प्रयोजन ही घर के लोगों को सूत्रबद्ध किए रहता है। आज के घर सुख के कंगाल होते हैं, इनमें दुख के लिए स्थान नहीं होता। जबकि

बचपन के घर को एक दिन होना ही है, इतना बड़ा

जहाँ समा सके हमारे सारे दुख, थोड़े सुख के साथ ।–

 

महिला के लिए बाहर काम करना अपनी पहचान का साधन है जब कि पुरुष के लिए परिवार की कुल आय तथा स्टैटस में अतिरिक्त वृद्धि का । पुरुष के लिए घर के काम में भागीदारी करना पुरुष-सत्ता की अवमानना है।  इस मानी में वे अपने आप को परम्परावादियों की जमात में होने में कोई विरोधाभास नहीं देखते। कमाऊ पत्नी से उनकी वे अपेक्षाएँ तो हैं ही, जो पारम्परिक गृहिणी (housewife ) से हो सकती है , बल्कि पढ़ी लिखी होने के कारण सन्तान की देखरेख, पढ़ाई लिखाई के लिए जिम्मेवार होने का भी ।  ऐसे में घर की सत्ता पर संकट का गहराना लाजिमी है ।

एक अन्य अवलोकन में पाया गया कि छोटा बच्चा अपने आपको घर की problem (समस्या) समझने  लगता है। माँ-बाप घर से सुबह निकल कर शाम को आते हैं, अक्सर शहर के बाहर काम से जाना पड़ता है। बच्चे को स्कूल बस स्टॉप से लाना पहुँचाना है और आवास पर उसकी देखभाल करनी है। कामवाली की सुविधा हर वक्त उपलब्ध नहीं रहती। माँ-बाप परेशान रहते हैं और एक दिन बच्चे के सामने बोल उठते हैं- “बड़ा problem है।“ बच्चा जैसे प्रेरित हो जाता है—“मैं ही problem हूँ.।“ माँ-बाप हक्केबक्के हो जाते हैं।

लगातार संघर्षों के बाद जब हारता है कोई घर,

पृथ्वी तनिक और उदास हो जाती है

 

 

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