घर के लड़का गौहीं चूसें, मामा खाए अमावट

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-लिमटी खरे

बुंदेल खण्ड की एक मशहूर कहावत है- ‘‘घर के लड़का गोहीं (आम की गुठली) चूसें, मामा खाएं अमावट (आम के रस से तैयार होने वाला एक स्वादिस्ट पदार्थ)।‘‘ जिसका भावार्थ कुछ इस प्रकार है कि घर में बच्चे भूख से परेशान होकर आम के रस निकालने के उपरांत बची गुठली को चूसने पर मजबूर हैं, किन्तु जब माता का भाई (मामा) आता है तो उसी रस को गाढ़ा करने के उपरांत बनाई गई आमवट उसके आगे परोस दी जाती है। इस तरह का सौतेला व्यवहार किया जाता है।

कमोबेश यही आलम देश की सबसे बड़ी पंचायत में बीते गुरूवार और शुक्रवार को देखने को मिला। दोनों ही दिन सांसदों ने अपने वेतन भत्तों को बढ़वाने के लिए जो नग्न नृत्य किया है, वह समूचे देश और दुनिया से छिपा नहीं है। सांसद कितनी संजीदगी के साथ अपने वेतन और भत्तों में कई गुना वृद्धि करवाना चाह रहे थे, और जब उन्हें वोट देने वाली जनता के अधिकार और कर्तव्यों पर बहस की बारी आती है, तो ये माननीय बगलें झांकने लगते हैं। मंहगाई पर संसद ठप्प नहीं होती है, महिला आरक्षण बिल परवान नहीं चढ़ पाता है पर जब अपने खुद के वेतन भत्तों के निर्धारण की बात आती है तब ये माननीय एक स्वर में चिल्ला कर सदन को सर पर उठा लेते हैं।

सवाल यह है कि खुद के वेतन भत्तों का निर्धारण कोई खुद कैसे कर सकता है? यह परंपरा तो कार्पोरेट सेक्टर में ही देखने को मिलती है कि किसी कंपनी का मालिक अपने वेतन भत्ते और सुविधाओं के मामले में स्वयं ही तय कर लेता है, और फरमान सुना देता है। ठीक इसी तरह देश के चुने हुए जनसेवक अपने वेतन भत्तों के बारे में फैसला ले लेते हैं मानो देश की सबसे बड़ी पंचायत एक प्राईवेट लिमिटेड कंपनी बनकर रह गई हो।

दरअसल सांसदों के मन में मेरी साड़ी तेरी साड़ी से सफेद कैसी की भावना घर कर गई है। यही कारण है कि लालू प्रसाद यादव जैसे सांसद सदन में चिल्ला चिल्ला कर यह स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं कि उनका ओहदा एक जूनियर क्लर्क से कम है। भले ही यह बात वे वेतन भत्तों के संदर्भ में कह रहे हों पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि सैद्धांतिक मामलों में जनसेवक को नौकरशाहों से कहीं उपर का दर्जा प्राप्त है।

सांसदों की इस दलील पर विचार किया जा सकता है कि उन्हें अपने विशाल संसदीय क्षेत्र में जाकर अपने मतदाताओं की पूछ परख और आवभगत में मौजूदा वेतन भत्तों के चलते काफी दिक्कत होती है। सांसद जब अपने संसदीय क्षेत्र में जाता है तो उसे 13 रूपए किलोमीटर की दर से वाहन का किराया मिलता है, जो बाजार दर के हिसाब से देखा जाए तो विलासिता वाले वाहनों की दर है। इसके अलावा कार्यालय भत्ता 20 हजार रूपए, निर्वाचन क्षेत्र भत्ता 20 हजार रूपए, सत्र के दौरान मिलने वाला भत्ता एक हजार रूपए प्रतिदिन, और वेतन 16 हजार रूपए। कुल मिलाकर एक सांसद को प्रतिमाह छप्पन हजार रूपए तो नकद मिल ही जाते हैं।

इसके आलवा अपनी पत्नी या किसी रिश्तेदार के साथ माननीय साल भर में 34 हवाई उड़ान, रेल गाड़ियों के प्रथम श्रेणी वातानुकूलित में पत्नि या एक रिश्तेदार के साथ असीमित मुफ्त यात्रा, दिल्ली में निशुल्क आवास, दो टेलीफोन जिसमें हर साल 50 हजार लोकल काल मुफ्त, एक अन्य टेलीफोन इंटरनेट के साथ, 04 हजार किलोलीटर पानी और 50 हजार यूनिट बिजली एकदम मुफ्त।

मौजूदा सिफारिशों के अनुसार वेतन पचास हजार रूपए, कार्यालय खर्च चालीस हजार रूपए, संसदीय क्षेत्र भत्ता चालीस हजार रूपए, वाहन का माईलेज 16 रूपए प्रति किलोमीटर तय किया गया है। पूर्व सांसदों को पेंशन आठ के बजाए अब बीस हजार रूपए मिलेगी। इस तरह एक सांसद को प्रतिमाह मिलने वाला कुल वेतन एक लाख तीस हजार रूपए है। क्या यह वेतन उनकी जरूरतं पूरी करने के लिए नाकाफी है।

सांसदों के वेतन भत्ते बढ़ाने की मांग गांधीवादी सोच को तजने और कार्पोरेट सेक्टर की अवधारणा से प्रेरित होने के कारण ही उपजी है। वर्तमान सांसदों को यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि लगातार लंबे स्वतंत्रता संग्राम के जिन नैतिक आदर्शों और मूल्यों से भारत का लोकतंत्र और संघीय संसदीय ढांचा पैदा हुआ है, उनमें बहुतेरे सांसद एसे भी हुए हैं जिनके निधन के बाद उनकी कोई संपत्ति तक नहीं थी।

इस मामले में कांग्रेस अध्यक्ष का कथन स्वागतयोग्य है कि जिस समय श्रीमति इंदिरा गांधी सांसद थीं, तब उनका वेतन उनके पायलट पुत्र राजीव गांधी से कम था। जनसेवकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के पास प्रधानमंत्री रहते हुए भी फिएट कार खरीदने के पैसे नहीं थे। सरदार वल्लभ भाई पटेल से उन्हें सीख लेना होगा जिनके निधन के उपरांत उनके बैंक खाते में महज 259 रूपए थे। डॉ.राम मनोहर लोहिया के निधन के वक्त उनके पास भी न तो बैंक बेलेंस ही था और न ही उनका घर द्वार था। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी आनंद भवन जैसी इमारत को भी राष्ट्र को समर्पित करने में संकोच नहीं किया था।

भारत गणराज्य में 85 करोड़ लोगों की प्रतिदिन की आय 20 रूपए से भी कम है, और सरकार इन्हें प्रस्तावित कर रही है कि ये माननीय प्रतिदिन चार हजार 33 रूपए की दिहाड़ी पर काम करें, जनता के द्वारा ही चुने गए ये माननीय चाहते हैं कि इन्हें पांच हजार पांच सौ रूपए से अधिक की दिहाड़ी मिले। यह कहीं भी संभव नहीं है, किन्तु कांग्रेस के राज में एसा चमत्कार अवश्य ही हो रहा है कि देश की सत्तर फीसदी आबादी महज बीस रूपए कमाने के लिए सारा दिन मेहनत मजदूरी करने पर विवश है और उसी जनता के गाढ़े पसीने की कमाई पर टेक्स लगाकर जमा की गई रकम से जनता के चुने हुए नुमाईंदो को हजारों रूपए रोज की दिहाड़ी मुहैया करवाई जा रही है।

कांग्रेसनीत केंद्र सरकार के इस कदम से निश्चित तौर पर अमीर और गरीब के बीच की खाई में जबर्दस्त इजाफा होने के मार्ग ही प्रशस्त होंगे। होना यह चाहिए था कि संसद में बहस इस बात को लेकर की जाती कि किस तरह देश में मंहगाई कम हो, जनता पर टेक्स का भार कम किया जाए। रोजगार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं। वस्तुतः एसा हुआ नहीं, संविधान के नीति निर्देशक तत्वों मंे इस बात का उल्लेख साफ तौर पर किया गया है कि सरकार का कोई भी कदम देश में आर्थिक विषमता को बढ़ावा न दे।

देश में बढ़ रही मंहगाई को भी षणयंत्र के तौर पर देखा जाना चाहिए। भारत गणराज्य के नीति निर्धारक यह नहीं चाहते कि गरीब गुरबो में से योग्य लोग आगे आएं। जब मंहगाई अधिक होगी, लोगों की क्रय शक्ति का हास होगा, तो गरीब गुरबा चुनाव लड़ने की सोच ही नहीं सकेगा। गरीबों की मजबूरी होगी कि वे अमीरों और संपन्न लोगों के सामने नतमस्तक हो जाएं। इन परिस्थितियों में भारत गणराज्य की सबसे बड़ी और सूबों की पंचायतें साधन संपन्न और अमीरों की लौड़ी बन ही जाएगी।

एक समय था जब राजनीति को सेवा भाव की दृष्टि से देखा जाता था। जो भी देश के लिए जनता के लिए समर्पण का भाव रखता था, उसे लोग अपना अगुआ (पायोनियर) मानते थे। आजादी की लड़ाई हो या आजादी के उपरांत के साठ के दशक तक देश के नेताओं में नैतिकता का आभास होता था, उस समय नेताओं द्वारा नैतिक मूल्यों को बरकरार रखकर राजनीति की जाती थी, किन्तु अब इस सबकी परिभाषाएं बदल गई हैं। जब राजनीति सेवा के बदले व्यवसाय हो जाए तब एसी स्थिति बनना स्वाभिवक है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि मलाई खाएं और निरीह बेबस जनता उनका मुंह ताकती रह जाए।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

5 COMMENTS

  1. प्रथम दृष्टया तो यही लगता है की इन सांसदों और नेताओं ने देश का बेडा गर्क कर दिया है ;किन्तु यह एक ऐसा अर्ध सत्य है जिसे गोयबल्स के सिधांत का ताप चढ़ा और पारा १०० डिग्री के ऊपर जा पहुंचा ;यदि प्रश्न किया जाए की वो कौन -कौन धर्मात्मा हैं जिनको रेवड़ी नहीं मिली तो चारों और से जबाबों के बौछार पड़ेंगे .
    एक -संगठित क्षेत्र के executive तो क्या नॉन -executive भी ५०;००० रूपये प्रति माह पा रहे हैं .
    दो .निजी क्षेत्र में पांच लाख से लेकर १५ करोड़ प्रति माह पाने भी इस देश में हजारों में हैं .
    तीन -केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों तथा केंद्रीय सरकारी कर्मचारी की तो कहावत ही चल पड़ी की वे तो सरकारी जमाई हैं .

    अब यदि देश के ४० करोड़ लोग आज़ादी के ६३ साल बाद भी गरीबी की रेखा के नीचे हैं तो यह उनकी अपनी जिम्मेदारी है .की आयें संघर्स के मैदान में .

    ये गरीब सिर्फ इसलिए नहीं की सांसदों को वेतन बढ़ने का आज प्रस्ताव भर आया है ;बल्कि इनकी गरीबी का कारण है -संगठित na hona .ये तो unhi poonjeepatiyon को vot dene के liye utawale rahte है jinki tnkha badhne से देश में kohram mach gaya

  2. sach bhi yahi he ki hamari sarkar samajik sarokar wali na hokar corprate swrthon ko pura karne wali hee he| ydypi PM ek rupia wetan lete he parantu wishwabank ka pension se ghar chalate he aur corporate dunia ki patrika main pahla sthan pate he| ek sach yeh bhi he ki Venejuala ke PM sabse battamiz kahe gaye jinke desh ki garibi sabse adhik kam huyi uske ulat bharat me gribi badhi. is desh ki sansad bhi jab corporate paise se chun kar ate he to unka vyohar bhi waisa hi he| ab yeh to hamko tay karna he ki hamare desh ki disha kya ho

  3. धन्यवाद खरे जी, वाकई हमारी विडम्बना है की हमें इस प्रकार की स्तिथि झलनी पड़ रही है. शर्म आती है हमें इन्हें अपना नेता कहते हुए. आम आदमी रोटी, पानी के लिए मोहताज है और इन्हें आयाशी भरा जीवन चाहिये. कौन कहता है ये जन सेवक है, ये तो लुटेरे हैं. ये तो चोर चोर मोसेरे भाई है. काश की हम वोट देते समय इनका चुनाव ठीक से करे.

  4. इस देश की चुनाव व्यवस्था फेल हो चुकी है।

    ये सब शकुनि मामा ही हैं । महाभारत चल रही है फर्क यह है की कभी कोई कौरव तो कभी कोई और। सब कौरवीय सुख भोगने में लिप्त हैं । जनता रूपी द्रौपदी का खुले आम चीरहरण हो रहा है । हे पार्थ तुम कब आओगे।

    “घर के लड़का गौहीं चूसें, मामा खाए अमावट”
    सड़ा दूँगा अनाज, मर जाए मरती है जनता तो
    कल मरे या आज
    सड़े हुए अनाज से दारू मैं बनवाऊंगा
    मरना है तो शान से दारू पीके मरो
    क्या मरतों हो भूख से

  5. जब इस देश का हर नागरिक इन नेताओं से त्रस्त है तो…हम इनको क्यों झेल रहे हैं…क्या इनको ठीक नहीं किया जा सकता… देश की १ अरब की जनता की औकात क्या सिर्फ कीड़े मकोड़ों की है…हम इन्सान नहीं है कीड़े मकोड़े हैं…

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