मधु मक्खी

madhumakhi
हे मधु मक्खी कुछ तो बोलो,
कला कहाँ यह  तुमने सीखी|
कैसा जादू कर देती हो,
मधु बन जाती मीठी मीठी|

बूंद बूंद मधु की आशा में,
तुम मीलों उड़ती जाती हो|
अपनी सूंड़ गड़ा फूलों पर,
मधुरिम मधुर खींच लाती हो|

फिर छत्तों में वह मीठा रस,
बूंद बूंद एकत्रित करना|
किसी वीर  सैनिक की भाँति
तत्पर होकर रक्षा करना|

भीतर बाहर हे मधु मक्खी,
तुम‌ने बस मीठापन पाया|
पर इतना तो बोलो हे प्रिय,
डंक मारना कैसे आया|

क्या तुम भी हो इंसानों सी,
जो बाहर मीठे होते हैं|
अपने मन के भीतर हर दम,
तीखा जहर भरे होते हैं|

इतनी मीठी मधु देती हो,
तो तुम भी मीठी बन जाओ|
किसी वैद्य के शल्य कक्ष में,
जाकर डंक कटाकर आओ|

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