हे मधु मक्खी कुछ तो बोलो,
कला कहाँ यह तुमने सीखी|
कैसा जादू कर देती हो,
मधु बन जाती मीठी मीठी|
बूंद बूंद मधु की आशा में,
तुम मीलों उड़ती जाती हो|
अपनी सूंड़ गड़ा फूलों पर,
मधुरिम मधुर खींच लाती हो|
फिर छत्तों में वह मीठा रस,
बूंद बूंद एकत्रित करना|
किसी वीर सैनिक की भाँति
तत्पर होकर रक्षा करना|
भीतर बाहर हे मधु मक्खी,
तुमने बस मीठापन पाया|
पर इतना तो बोलो हे प्रिय,
डंक मारना कैसे आया|
क्या तुम भी हो इंसानों सी,
जो बाहर मीठे होते हैं|
अपने मन के भीतर हर दम,
तीखा जहर भरे होते हैं|
इतनी मीठी मधु देती हो,
तो तुम भी मीठी बन जाओ|
किसी वैद्य के शल्य कक्ष में,
जाकर डंक कटाकर आओ|
Very nice and original .Its wonderful.
धन्यवाद