ऑनर किलिंग का सामाजिक पक्ष, जातीय जनगणना और आरक्षण

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-सतीश सिंह

तथाकथित ऑनर किलिंग की संकल्पना के तहत बिहार के जहानाबाद से 13 मार्च, 2009 को भागे हुए प्रेमी युगल को पंजाब में हाल ही में मार डाला गया। शक के दायरे में लड़की (जिसका नाम खुशूब शर्मा है) के परिवार वाले हैं।

खुषूब शर्मा बिहार के सवर्ण दबंग जाति भूमिहार से संबंध रखती थी और कमलेश यादव पिछड़े वर्ग के यादव समाज से। अपनी लड़की की करतूत से अरविंद शर्मा और माँ शोभा शर्मा दोनों बहुत नाराज थे। दोनों की नाराजगी इस कदर है कि वे अपनी मृत लड़की का शक्ल तक देखना नहीं चाहते हैं।

अपनी मर्जी से विवाह करने के एक दूसरे वाकये में 18 जून को दिल्ली की एक अदालत ने एक लड़की को उसके परिवार के खिलाफ अपने प्रेमी से शादी करने को लेकर धमकाने के मामले में लड़की के परिजनों, एक वकील और एक पुलिस अधिकारी की भूमिका की जाँच करने को कहा है।

अवकाश प्राप्त न्यायधीश कामिनी लाऊ ने वकील की भूमिका पर अफसोस और चिंता जताई है। ज्ञातव्य है कि वकील ने लड़की के माता-पिता को इज्जत बचाने की खातिर लड़की की हत्या करने की सलाह दी थी।

प्रेम विवाह से ही जुड़े हुए एक तीसरे मामले में अदालत ने एक गोत्र में विवाह रोकने संबंधी याचिका को खारिज कर दिया और साथ ही याचिकाकर्ता नरेश कादयान को यह चेतावनी भी दी कि अदालत का समय बर्बाद करने के लिए उस पर भारी जुर्माना लगाया जा सकता है।

भले ही तीनों घटनाएँ देखने और सुनने में अलग-अलग प्रतीत हो रही हैं, पर तीनों में समानता यह है कि तीनों घटनाएँ हमारे समाज में आ रहे परिवर्तन के परिचायक हैं।

भारतीय कानून के अनुसार भारत का हर बालिग नागरिक अपनी पसंद से विवाह करने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन जाति और वर्तमान सामाजिक ताना-बाने की व्यवस्था के अंतगर्त इस तरह की बेलगाम स्वतंत्रता की इजाजत नहीं है।

इस तरह की सामाजिक संरचना को हमारे समाजविज्ञानी अंग्रेजी में इन्डोगेमी कहते हैं और हिन्दी में भी आजकल यह शब्द स्वीकार्य है। यह वस्तुत: जाति के अंदर विवाह करने का सिंध्दात है। इस तरह के सिंध्दात को हमारे समाज में पारंपरिक मान्यता मिली हुई है तथा इसकी महत्ता स्वंयसिद्व भी है। बावजूद इसके पश्चिमीकरण और आधुनिकता की बयार में तकरीबन सौ-दो सौ बरसों से इस तरह की सड़ी-गली मान्यताओं को हमारे युवा वर्ग चुनौती दे रहे हैं। वे अपनी स्वंय की पंसद से जाति व धर्म के बाहर जाकर विवाह करने के अधिकार का उपयोग करना चाहते हैं।

इस संकल्पना के बरक्स में एक लंबे अरसे से हमारे समाज के युवा वर्ग संघर्ष कर रहे हैं। उनके लगातार संघर्ष का ही परिणाम है कि आज इस मुद्दे पर हमारे समाज का नजरिया कुछ हद तक बदला है। ऑनर किलिंग की घटनाएँ आज भी जरुर घटित हो रही हैं, किन्तु पहले के बनिस्पत इस तरह की घटनाओं में भारी कमी आई है।

अब यहाँ सवाल उठता है कि जातीय जनगणना का अंतरजातीय विवाह से क्या संबंध है? वस्तुत: अंतरजातीय विवाह की राह में सबसे बड़ी बाधा जातीय जनगणना और आरक्षण है।

हमारे देश के सभी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के सदस्य इन्डोगेमस वर्ग से संबंध रखते हैं। सभी को इस वर्ग की सदस्यता जन्म के आधार पर मिलती है। बच्चे में पैतृक गुण माता-पिता से मिलता है, जिसका आधार वैधानिक विवाह होता है। वैधानिक विवाह का खिताब उसी को मिलता है जो एक जाति के अंदर विवाह करता है। यही वह प्रक्रिया जिसके माध्यम से व्यक्ति अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या फिर अन्य पिछड़ा वर्ग का सदस्य बनता है।

जब भी कोई आरक्षण की मांग करता है तो उसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या फिर अन्य पिछड़ा वर्ग का सदस्य होने का प्रमाणपत्र प्रस्तुत करना पड़ता है।

अगर इन वर्गों के किसी सदस्य द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रमाणपत्र के बाबत कोई विवाद सामने आता है तो अदालत उसके माता-पिता के विवाह की वैधानिकता और उसके अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या फिर अन्य पिछड़ा वर्ग के वैधानिक सदस्य होने की जाँच करती है।

वस्तुस्थिति से स्पष्ट है कि जब तक अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या फिर अन्य पिछड़ा वर्ग की उपस्थिति हमारे समाज में है तब तक एक जाति के अंदर विवाह होना लाजिमी है। जातीय जनगणना से भी स्वजातियों के बीच विवाह को ही बढ़ावा मिलेगा। पड़ताल से स्पष्ट है कि जातीय जनगणना का उद्देष्य विविध जातियों की वास्तविक संख्या को निर्धारित करना है। जातीय जनगणना के द्वारा ही यह तय किया जा सकता है कि किस जाति को कितना प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए। इस तरह से देखा जाए तो दोनों सिद्धांत स्वंय की मर्जी से अपना जीवन साथी का चुनाव करने की मंशा के खिलाफ है।

कहने के लिए तो हमारी न्यायपालिका देश के नागरिकों की अपनी पसंद से विवाह करने के अधिकार का बचाव करती है, पर साथ में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या फिर अन्य पिछड़ा वर्ग जैसी सामाजिक संस्थाओं को मान्यता देकर इन्डोगेमी के सिध्दांत को भी मजबूत करती है। यह विरोधाभास सचमुच चौंकाने वाला है और साथ ही यह हमारी व्यवस्था की लाचारगी को भी जाहिर करता है।

दरअसल हमारी आधुनिक न्यायपालिका की नीति-निर्देषिका आजादी के बाद नहीं बनी है। उसका आधार हमारे देश के प्राचीन काल से चले आ रहे परम्परा और कानून रहे हैं। समय-समय पर संशोधन की आवष्यकता थी, परन्तु वास्तव में ऐसा हो नहीं सका।

वर्तमान न्ययायपालिका में भी जाति की परिभाषा इन्डोगेमस वर्ग के सिद्धांत के आधार पर बनाई गई है, जोकि प्राचीन काल व मध्‍यकाल में पंडितों, शास्त्रियों, हिन्दु कानून और समाज में चल रही अन्यान्य परम्पराओं के आधार पर गढ़ी गई थी।

किसी भी मुद्दे पर जब हाई और सुप्रीम कोर्ट सरकार से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या फिर अन्य पिछड़ा वर्ग की वास्तविक संख्या के बारे में जानकारी तलब करता है तो उसके पीछे न्यायपालिका की यह अवधारणा रहती है कि इन वर्गों की एक इन्डोगेमस यूनिट के रुप में हमारे समाज में स्थिति साफ है और उसकी गणना आसानी से की जा सकती है। देश के राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री एवं तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग एक तरफ तो वैयक्तिक स्वतंत्रता की बात करते हैं तो दूसरी तरफ जाति और जनजाति पर आधारित आरक्षण की भी बात करते हैं। हमारे देश की व्यवस्था में विरोधाभास यही है। दानों स्थिति विवाह की स्वतंत्रता को बाधित करने वाले हैं। इससे जातिवाद को भी बढ़ावा मिलता है। साथ ही कई तरह की सामाजिक कुरीतियाँ भी इसके कारण पनपती हैं।

अक्सर देश के राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री एवं तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग यह तर्क देते हैं कि वे जाति में सिर्फ राजनीति को देखते हैं। इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है, पर उनके विचारों, कार्यकलापों और अवसरवादिता वाली मानसिकता से एक आम इंसान कई तरह के संवैधानिक अधिकारों से वंचित हो जाता है। लिहाजा इन पहूलओं पर विचार करते हुए शीघ्रताशीघ्र कुछ सकारात्मक कदम उठाने की जरुरत है।

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