मैं कैसे करूँ गर्व !

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मैं कैसे करूँ गर्व, 

सर्व उसका जब रहा;

दर्पण में रूप लखके कहूँ,

मेरा कब रहा !

है कथानक उसी का,

चर्म उसका ही रहा;

हर मर्म पीछे झाँका वही,

कर्त्ता वो रहा !

भरता उमँग औ तरंग, 

वह-ही तो रहा;

हर ताल लय में नृत्य देखे,

चाहे वो रहा !

वर्चस्व जो भी बचा रहा,

उसके तरासे;

कर्त्तव्य जो भी होता रहा,

उसके भरोसे !

मैं उसका यंत्र उसके तंत्र,

योग वश रहा;

‘मधु’ माधवी सुधा में बहा,

हर घड़ी रहा ! 

✍? गोपाल बघेल ‘मधु’ 

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