नफ़रत की खाई पाटने में क़ानून कितना सक्षम?

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निर्मल रानी 
दलित समुदाय को देश का बड़ा वोट बैंक मानकर की जाने वाली राजनीति का सिलसिला इन दिनों पूरे शबाब पर है। सत्ता के ‘विशेष पारखी’ तथा सत्ता में बने रहने का हुनर बखूबी जानने वाले केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के दिल में 2019 में प्रस्तावित लोकसभा चुनाव आने से पूर्व एक बार फिर दलितों के प्रति उनका ‘अपार प्रेम’ झलकता दिखाई पड़ा। ऊना से लेकर सहारनपुर तक की घटनाओं पर अपनी चुप्पी साधने वाले तथा इन घटनाओं के समय दलितों पर होने वाले ज़ुल्म के संबंध में कोई वक्तव्य न जारी करने वाले इस ‘दलित’ नेता ने 9 अगस्त को ‘दलित प्रेम’ में अपने संगठन के बैनर तले भारत बंद का आह्वान कर डाला था। गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने इसी वर्ष मार्च महीने में दिए गए अपने एक निर्णय में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति कानून में हस्तक्षेप करते हुए इसमें दलित संरक्षण संबंधी कुछ उपाय शामिल किए हैं। न्यायलय के इस फैसले के बाद दलित नेता यह मान रहे थे कि उच्चतम न्यायालय द्वारा एससी एसटी एक्ट से छेड़छाड़ करना दलितों पर होने वाले अत्याचार को बढ़ा सकता है। लिहाज़ा दलित नेताओं की मांग थी कि उच्चतम न्यायालय के फैसले के विरुद्ध संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार रोकथाम कानून से संबंधित मूल प्रावधानों को बहाल किया जाए तथा इस संबंध में एक विधेयक संसद में लाया जाए जोकि उच्चतम न्यायालय के मार्च में दिए गए फैसले को खारिज कर सके।
हालांकि यह मांग देश के अनेक सत्ता विरोधी दलित नेताओं द्वारा की जा रही थी परंतु जैसे ही सत्ता के भागीदार रामविलास पासवान ने अपनी आंखें तरेरीं, फौरन ही मोदी सरकार के कान खड़े हो गए और मोदी सरकार के मंत्रिमंडल द्वारा इस विधेयक के प्रस्ताव को मंज़ूरी दे दी गई। कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि पासवान की धमकी व संसद में इस विधेयक पर मंज़ूरी देना दोनों ही मिलीभगत का नतीजा है। अन्यथा पासवान का दलित प्रेम ऊना व सहारनपुर जैसी घटनाओं के समय भी जाग सकता था। 2019 के चुनाव से ठीक पहले इस ‘दलित प्रेम’ के जागने का  आखिर  मकसद क्या है? बहरहाल वोट बैंक व अवसरवाद की इस नि मनस्तरीय राजनीति से अलग हटकर सबसे अहम सवाल यह है कि क्या दलित संरक्षण संबंधी विधेयक इस बात की गारंटी ले पाने में सक्षम है कि दलितों पर होने वाले अत्याचार इस विधेयक के पास होने से बंद हो जाएंगे? उच्चतम न्यायालय ने जब इस विधेयक में संशोधन नहीं किया था क्या उस समय दलितों पर अत्याचार होने बंद हो गए थे? क्या हमारे पारंपरिक धार्मिक व सामाजिक संस्कारों में मिले ऊंच-नीच के जाति आधारित संस्कार, भेदभाव की इस गहरी खाई को पाट सकेंगे? यदि दलितों के संरक्षण हेतु बनाए जाने वाले कानूनों से दलितों के प्रति न$फरत व अत्याचार कम होते तो शायद स्वतंत्रता के 70 वर्षों में अब तक यह यदि पूरी समाप्त नहीं तो कुछ कम तो ज़रूर हो गए होते। परंतु हकीकत में ऐसा नहीं है। नफरत की यह खाई दिन-प्रतिदिन और गहरी होती जा रही है। हां दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले पक्ष-विपक्ष के नेतागण स्वयं दलितों के हमदर्द होने के नाम पर चांदी ज़रूर काट रहे हैं।
इसी वर्ष राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद अपने परिवार के साथ राजस्थान में एक मंदिर में आशीष लेने चले गए। उनके इस दौरे के बाद कई तरह की चर्चाओं का बाज़ार गर्म रहा। इनमें एक चर्चा यह भी थी कि दलित होने के कारण उन्हें मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करने से रोक दिया गया। जबकि मंदिर के पुजारी के अनुसार उसने राष्ट्रपति महोदय से गर्भगृह में जाने का आग्रह किया परंतु उन्होंने स्वयं ही भीतर जाने से मना कर दिया। राष्ट्रपति महोदय को रोका गया हो या वे स्वयं न गए हों इन दोनों ही परिस्थितियों में ज़ाहिर है सब कुछ सामान्य नज़र नहीं आता। चूंकि बात महामहिम से जुड़ी थी इसलिए इस विषय पर अधिक बहस करना या इस मुद्दे को गंभीरता से उठाना हमारे देश के मीडिया व बुद्धिजीवियों ने मुनासिब नहीं समझा। परंतु भेदभाव व न$फरत की ऐसी घटनाएं हमारे देश में थमने का नाम नहीं ले रही हैं। दलित समाज के उत्साही युवक प्रत्येक वर्ष देश के कोने-कोने से शुरु होने वाली कांवड़ यात्रा में शरीक होते हैं। सैकड़ों किलोमीटर लंबी पदयात्रा कर, मौसम संबंधी परेशानियां उठाकर व अपने शरीर को कष्ट में डालकर भगवान शंकर की आराधना करने हेतु गंगा नदी से तथा अन्य दूसरी पवित्र नदियों से जल ले जा कर पूरी श्रद्धा के साथ अपने निवास के आस-पास के किसी मंदिर में जल चढ़ाते हैं। परंतु प्रत्येक वर्ष देश के किसी न किसी राज्य से ऐसी खबरें ज़रूर आती हैं जिनसे यह पता चलता है कि किसी दलित कांवड़िये को किसी मंदिर के पुजारी द्वारा मंदिर में प्रवेश करने व जल चढ़ाने से रोक दिया गया। दलितों को मंदिर में नियमित रूप से प्रवेश करने व पूजा करने से रोकने की घटनाएं तो आए दिन होती ही रहती हैं।
दलितों के प्रति तथाकथित उच्च जाति के लोगों में बसी नफरत की इंतेहा तो यह है कि चाहे दलित समाज का कोई व्यक्ति आईएएस आफिसर  बन जाए या मंत्री, सांसद अथवा विधायक बन जाए चाहे वह सरपंच चुन लिया जाए परंतु इसके बावजूद भेदभाव तथा वैमनस्य का सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता। आज सत्ता की गोद में बैठे उदित राज जैसे नेता अपने सरकारी सेवाकाल के समय अपने साथ होने वाले भेदभाव को स्वयं मीडिया से कई बार सांझा कर चुके हैं। गुजरात में अमरेली जि़ले में वरसादा गांव के 25 वर्षीेय सरपंच जयसुख मधाड की हत्या कर दी गई। उसे चुनाव लड़ने के समय ही जाने से मारने की धमकी मिल गई थी। गुजरात में ही दलित सरपंच को राष्ट्रीय ध्वज फहराने से रोका गया। ऊना कांड में दलित युवकों की बेरहमी से की गई पिटाई तथा उसके बाद दलितों का सड़कों पर उतरना तो पूरे देश को याद ही होगा? राजस्थान में भी इसी वर्ष दलित सरपंच को तथाकथित उच्च जाति के लोगों द्वारा बेरहमी से पीटने का समाचार सामने आ चुका है। उत्तर प्रदेश में रामराज्य का दावा करने वाली योगी सरकार के शासनकाल में एक ऐसा समाचार प्राप्त हुआ जो इस जातिगत नफरत का सबसे बड़ा उदाहरण है। यहां की एक पंचायत द्वारा एक दलित व्यक्ति को ज़मीन पर थूक कर उसे चाटने का फरमान सुनाया गया। अहमदाबाद के निकट बालखेरा गांव में एक दलित महिला उसके पति व पुत्र को तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने केवल इसलिए लाठियों से इसलिए पीटा कि वह आधार कार्ड बनवाने हेतु कुर्सीे पर बैठी हुई थी। राजस्थान, छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश सहित देश के कई राज्यों में दलितों को अपनी शादी में घोड़ी पर न चढ़ने देना, घोड़ी से उतारकर पीटना, मिड डे मील या आंगनवाड़ी में दलित कर्मियों या सेविकाओं के हाथों का भोजन खाने से तथाकथित उच्च जाति के बच्चों द्वारा इंकार करना आदि तो हमारे देश में रोज़मर्रा की बातें बनकर रह गई हैं।
क्या उपरोक्त घटनाएं एससी एसटी $कानून में उच्चतम न्यायलय द्वारा हस्ताक्षेप किए जाने से पहले नहीं हुआ करती थीं या संसद में पुन: संशोधन हो जाने के बाद रुक सकेंगी? क्या जातीय वैमनस्य फैलाने या जाति के आधार पर किसी व्यक्ति को मारने-पीटने, उसे हद दर्जे तक अपमानित करने या उसे बार-बार नीचा दिखाने की कोशिश करने वाले लोगों को ज़मानत न देने या दंडित करने मात्र से वैमनस्य की यह खाई भर सकेगी? ऐसा नहीं लगता कि हमारी पारंपरिक, प्राचीन, धार्मिक, पौराणिक व शास्त्रों में वर्णित वर्ण व्यवस्था जोकि हमारे समाज में संस्कारित कर दी गई है और हमारे रक्त व हमारे सोच-विचारों में वह सहस्त्राब्दियों से प्रवाहित होती आ रही है उसे कोई कानून समाप्त नहीं कर सकता। केवल धार्मिक व सामाजिक जागरूकता तथा ऐसी पाखंडपूर्ण शिक्षाओं का बहिष्कार ही इसका एकमात्र उपाय है।

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