कितने आजाद हम और हमारा स्वाभिमान ?

-अभिषेक कुमार तिवारी-

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हम एक आजाद देश में रहते हैं। हमारा देश एक गणतंत्र है। संविधान के कानूनों और नियमों के आधार पर सभी लोग बराबर हैं, ना कोई छोटा-ना कोई बड़ा। ये सब आपको भी पता है, है ना। लेकिन एक बात जो बहुत कम लोग जानते हैं वो ये है कि हम जिस भारत देश को आजाद समझ कर निश्चिंत हैं, बेखौफ हैं और अपनी दिनचर्या में भरपूर व्यस्त हैं, वो आजाद नहीं बल्कि लीज पर हैं।

अंग्रेजों और तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के बीच हुए ‘ट्रांसफर आॅफ पावर एग्रीमेंट’ समझौते के तहत 1500 छोटी-छोटी शर्तों के मुताबिक भारत 99 वर्षों के लिए अंग्रेजों द्वारा हस्तांतरित किया गया है। इस समझौते के दस्तावेज इस समय लंदन की हाउस आॅफ कॉमन लाइब्रेरी में मौजूद हैं। क्योंकि भारत लीज पर है, इसीलिए किसी भी प्रधानमंत्री ने अभी तक भारतीय संविधान के किसी भी कानून को नहीं बदला है।

उदाहरण के तौर पर देखें तो इनकम टैक्स कानून, आईपीसी, सीआरपीसी, सीपीसी, इंडियन एजुकेशन एक्ट, इंडियन सिटीजनशिप एक्ट और इस तरह के बहुत से कानून अंग्रेज द्वारा ही बनाए गए हैं। साथ कुछ कानून ऐसे भी अंग्रेज  बनाकर गए हैं जिसके तहत कुछ ब्रिटिशों को आज भी खास रियायतें दी जाती हैं। इसका उदाहरण हैं, इंग्लैण्ड की महारानी। 1 जनवरी 1877 को ‘दिल्ली दरबार’ का आयोजन कर महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित किया गया। वहीं इंगलैण्ड की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय को ये अधिकार है कि भे जब चाहे बिना वीजा के भारत आ सकती हैं। क्योंकि अंग्रेजों के मुताबिक भारत अभी भी उनकी प्रॉपर्टी है। भारत आने के लिए महारानी को भारत सरकार की अनुमति की आवश्यकता नहीं है। फिर चाहे वो 1961 में जवाहर लाल नेहरू के समय र्में आइं हों या फिर जब इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री थे, तब। हांगकांग को भी ब्रिटिशों ने लीज पर चीन को दिया था लेकिन 10 साल लगातार बहस करने के बाद चीन हांगकांग को ब्रिटिश से पूर्ण रूप से लेने में सफल रहा। लेकिन यहां हमारे देश में लोगों को इस सच्चाई से ही अनभिज्ञ रखा जा रहा है। कोई नेता इस मुद्दे पर बात करना नहीं चाहता। तो ऐसे में कितना संभव है कि हम भी चीन की तरह लीज से मुक्ति पा सकेंगे। आज सवाल ये नहीं है कि हम खुद को संवैधानिक रूप से आजाद माने या नहीं, क्योंकि इससे भी बड़ा सवाल कुछ और है और भे ये कि ऐसे कौन लोग थे जिनकी वजह से द्वितीय विश्व युद्ध में कमजोर हो चुकी ब्रिटिश सरकार से हमारे नेता पूर्ण आजादी ना ले पाए।

‘चाटुकारिता’ का भी अपना अलग मजा होता है। जिसे इसकी आदत हो जाए भे ये किसी भी शर्त पर अपना फायदा चाहता है। 1947, हमारे आजाद होने का वर्ष। लेकिन बात इससे भी पुरानी है। अंग्रेजों की चाटुकारिता या और सभ्य तरीके से कहें तो ‘पूर्ण समर्पण’ के भाव ने कुछ लोगों को तत्कालीन सुख-सुविधा तो दी, लेकिन उसके दुष्परिणाम आम जनता ने भुगते।

जब 22 मार्च 1911 को ब्रिटिश भारत का तत्कालीन राजा जार्ज पंचम ‘दिल्ली दरबार’ में शामिल होने के लिए भारत आया। तो जाहिर है ऐसे में समाज के कुछ प्रतिष्ठित लोगों ने जार्ज पंचम के स्भगत के लिए अपने-अपने स्तर से पूरी कोशिश भी की। लेकिन हमारे ‘गुरूदेव’ रवींद्रनाथ टैगोर ने तो समर्पण भाव की सीमा से बढ़कर जार्ज पंचम के स्वागत में एक ऐसा गीत लिख डाला जिसमें उसे भगवान का दर्जा दे दिया। वो गीत और कोई नहीं बल्कि हमारा वर्तमान राष्ट्रगान ‘जन-गण-मन…’ है। क्या आपने कभी ध्यान देने की कोशिश की कि टैगोर जी क्या कह रहे हैं इस गीत में? तो चलिए आज समझते हैं। दरअसल, आज हम जिस देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत होकर अपना राष्ट्रगान गाते हैं, उसके मूल में कुछ और ही सच छिपा हुआ है। इसकी पहली पंक्ति पर ध्यान दें तो पता चलता है कि रवींद्रनाथ कहते हैं- ‘‘हे जार्ज पंचम! तुम भारतीयों के मनों के अधिनायक हो, तुम सबके दिलों में बसते हो।’’ अब आप ही सोचिए जिसकी गुलामी से पूरा भारत त्रस्त था वो कैसे किसी भारतीय के दिलों में बस सकता है। और इसको भे अपनी नहीं बल्कि पूरे भारतवासियों की इच्छा बता रहे हैं। दूसरी पंक्ति पर ध्यान दें तो टैगोर जी आगे बखान करते हुए कहते हैं कि,‘‘हे जार्ज पंचम! आप हम भारतीयों के और इस भारत के ‘भाग्यविधाता’ हो।’’ मतलब कि टैगोर जी ने तो जार्ज पंचम को भगवान ही बना डाला था। इसके बाद वो कहते हैं कि,‘‘पूरा पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा(महाराष्ट्र), द्रविड़, उत्कल और बंगाल क्षेत्र के साथ-साथ विंध्य-हिमाचल से निकलने वाली गंगा-यमुना की लहरें भी आपके मंगल की कामना करती हैं। पूरा भारत आपके लिए आशीष मांग रहा है। आपकी जय हो, जय हो, जय हो।’’ इसकी प्रतिक्रिया में 28 दिसम्बर 1911 को ‘स्टेट्समैन’ और ‘इंग्लिश मैन’ व 29 दिसम्बर 1911 को ‘इंडियन’ अखबारों में रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा जार्ज पंचम के स्वागत में गाए गीत को लेकर खबर प्रकाशित हुई।

अब बताइए, कोई पराधीनता के प्रति कितना अनुराग रख सकता है। लेकिन ऐसा नहीें है कि इसके बदले टैगोर जी को कुछ मिला नहीं। हमारे भारत में प्राचीनकाल से चारण-भाठों को राजा के गुणगान करने के ऐवज में पुरस्कार तो हमेशा से मिलता ही था। उसी तर्ज पर इसी गुणगान के बाद ही रवींद्रनाथ टैगोर को कथित रूप से गीतांजलि के लिए ‘नोबल पुरस्कार’ और राय बहादुर की उपाधि से नवाजा गया। अपने हित के लिए जो गीत इन्होने बनाया वो ही आज हमारा राष्ट्रगान बना हुआ है, कितने गर्व की बात है। ये सिर्फ एक उदाहरण भर है कि, अगर गुलामी हमारे दिल में बस जाए तो उसके क्या परिणाम हो सकते हैं। ‘वन्दे मातरम’ जैसे महान गीत को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिलाने में सरकार को 50 साल लग गए लेकिन किसी की चाटुकारिता में पढे गए उस जन-गण-मन को आजादी के तुरंत बाद ही राष्ट्रगान का दर्जा मिल गया। हमारे वन्दे मातरम गीत की उपेक्षा का मूल कारण ये राष्ट्रगान जन-गण-मन ही है।

इन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए एक और महान शख्सियत ने हमारे महान भारत में जन्म लिया था। वो थे हमारे पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू। मोतीलाल नेहरू के तीसरे पुत्र जवाहर लाल तन से तो भारतीय थे किंतु मन से पूर्ण ब्रिटिश। उनकी आसक्ति ब्रिटिशों के प्रति कूट-कूट कर भरी हुई थी। एडविना माउंटबेटेन के प्रति उनका और जिन्ना का लगाव ही भारत-पाकिस्तान के बंटवारे का प्रमुख कारण रहा। जवाहर लाल और मोहम्मद अली जिन्ना के बचपन की सहपाठी रही एडविना को ब्रिटिश सरकार ने भेजा ही था दोनों के बीच दरार डालने के लिए। जिसमें भे सफल भी रही।

नेहरू की अंग्रेजों के प्रति स्भमीभक्ति से अंग्रेज भलीभांति परिचित थे। इसीलिए अंग्रेजों ने ब्रिटेन के कोर्ट से इस बात की मंजूरी ले ली थी कि जब भी कभी भारत की सत्ता को सौंपने का प्रश्न आएगा तो नेहरू ही हमारे एकमात्र विकल्प होंगे। क्योंकि वो जानते थे कि नेहरू से हम अपनी शर्तों पर काम करवा सकते हैं। इस बात को नेहरू भी जान गए थे और इसके बाद ही महात्मा गांधी जी से जिद करके वो प्रधानमंत्री पद के लिए जोर देने लगे। वहीं दूसरी ओर एडविना माउंबेटन के जोर देने पर नेहरू और जिन्ना बंटवारे के लिए राजी हुए और अंग्रेज अपनी चाल में सफल हो गए।

अगर उस समय हमारे देश में चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, तात्या टोपे जैसे क्रांतिकारी 1947 तक जीवित होते तो संभव था कि अंग्रेजों की दाल गलनी मुश्किल थी। लेकिन ये भारत का दुर्भाग्य ही था कि हर तरफ से कमजोर पड़ चुकी ब्रिटिश सरकार भारत में अपना प्रभुत्व जाते-जाते भी कायम रखने में सफल रही। प्रधानमंत्री बनाने से पहले अंग्रेजों ने नेहरू से 99 वर्षों के लीज की संधि करवा ली और कुर्सी के लोभ में उन्होनें इसका विरोध भी नहीं किया।

हमें अब तो जागना ही होगा, संभलना होगा और ढृढ निश्चय करना होगा कि किसी भी ऐसी सत्ता के प्रति जो हमें तो लाभ दे मगर बाकी सबके लिए हानिकारक हो, आसक्त नहीं होना है। क्योंकि ना उस समय भे दिल से आजाद थे जो सत्ता में आए और ना ही भे जो उनकी चाटुकारिता में नतमस्तक हुए थे। इसलिए अपने स्वाभिमान से कभी समझौता मत कीजिए और बस इंतजार कीजिए 2046 का।

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