कितने सार्थक रह गए हैं चुनावी घोषणा-पत्र

 दीनानाथ मिश्र

वर्तमान चुनाव में घोषणा-पत्र निरर्थक सा हो गया है? चुनाव घोषणा-पत्र की करोड़ों प्रतियां छपती हैं लेकिन न तो मतदाता ध्यान देता है और न राजनैतिक पार्टियां। किसी भी पक्ष से कोई ईमानदारी नहीं होती। लोक-लुभावन नारों की बात अलग है। मतदाताओं को किसी तरह आकृष्ट करने का तरीका अलग है। आज चुनाव घोषणा-पत्र पर मत नहीं डाले जाते हैं। मतदाताओं के आधार पर भी चुनाव घोषणा-पत्र, एक अर्थ में निरर्थक ही होते हैं। लोग जो वोट डालते हैं वह अपनी जाति के आधार पर, वर्ग के आधार पर, समुदाय के आधार पर या मजहब के आधार पर डालते हैं। उसको लोग अपना वोट समझते हैं। अपने बिरादरी का, न कि चुनाव घोषणा-पत्र के आधार पर। चुनाव घोषणा-पत्र की कोई जरूरत ही नहीं समझी जाती है। जरूरत है तो विश्वास-पात्र वोट बैंक की।

भला घोषणा-पत्र के आधार पर वोट मिलते हैं क्या, किसी को पूछ लीजिए। वोट की तो तकनीक ही कुछ और है। वोट छल-प्रपंच के आधार पर मिलते हैं। वोट बाजार के बिकाऊ होते हैं। वोट के ठेकेदार होते हैं। बाकायदा उनका ठेका बनता है। अलबत्ता कुछ विचारधारा-परक पार्टियों के वोट होते हैं। कुछ जातियों के वोट होते हैं। संविधान में वोट का अधिकार प्रत्येक बालिग मताधिकारियों को है। जातियों को नहीं ही है। लेकिन वोट जातियों, समुदायों, मजहबों के आधार पर देने का रिवाज चल पड़ा है। संगठन के अभाव में जातियां बनी बनाई संगठन हैं।

 

वोट खरीदने की चीज हो गई है। लुभावने नारों की चीज हो गई है। जो वोट खरीदेगा वह जरूर सत्ता बेचेगा। आखिर तो आज देश की हालत में इतना भ्रष्टाचार-प्रदूषण और चुनावी पापाचार चलता है। उससे पूरे समाज में व्यापक असंतोष, घोर निराशा, भ्रष्टाचार और वोट का लूटतंत्र विकसित हुआ। ऐसे में दस में पांच लोग भी चुनाव घोषणा-पत्र के आधार पर वोट नहीं करते। दस कारणों से वोट करेंगे लेकिन चुनाव घोषणा-पत्र के आधार पर नहीं। और फिर कहा जाता है भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।

जब कोई अग्रिम आंदोलन चुनाव प्रचार के रूप में हो जाए तो बात दूसरी है। जैसे लोकनायक जयप्रकाश नारायण का आंदोलन जातियों के आधार पर नहीं था। वह तो एक घोर निराशा और उद्धिग्न अवस्था का परिचायक था। आपातकाल ने जनमत को मथ दिया था। लगभग वैसा ही जैसा आज की स्थिति में जनमत मथा जा रहा है। वोट भी एक सिरे से पापाचार से मुक्ति के लिए पड़ गए। वरना तो आज जातिवाद, वर्गवाद, बाजार में बिकाऊ वोट के आधार पर चुनाव होते हैं। ऐसे में कैसे कोई उम्मीद कर सकता है कि चुनाव घोषणा-पत्र के आधार पर वोट मिलेंगे। अलबत्ता यह चुनाव घोषणा-पत्र मछलियों को पकड़ने की तक्नोलॉजी होती है। एक तक्नोलॉजी है, आरक्षण की तक्नोलॉजी। झूठे वायदों पर आधारित आरक्षण की तक्नोलॉजी। इसमें लाखों मछलियां फंस जाती है।

दूसरी टक्नॉलॉजी और है। यह कई बार वाजिब तरीके होते भी हैं और लगते भी हैं। प्रचार-तंत्र की यह तक्नोलॉजी अखबार, टेलीविजन, रेडियो के माध्यम से चलती है और बखूबी चलती है। उससे मतदाता भ्रमग्रस्त भी होते हैं। गलत निर्णय भी लेते हैं। बहाव में बह जाते हैं। कई बार तो चुनाव घोषणा-पत्र ही छल प्रपंच के सबसे बड़े साधन हो जाते हैं। इससे लोगों का विवेक भ्रष्ट हो जाता है। चुनाव घोषणा-पत्र निरर्थक बन जाते हैं। प्रचारतंत्र में ऐसे हथकंडों का इस्तेमाल होता है कि विवेकवान से विवेकवान व्यक्ति, भ्रमग्रस्त हो जाए और चुनाव घोषणा-पत्र रद्दी के भाव बिकने लगे।

 

चुनाव घोषणा-पत्र को किसने निरर्थक बनाया? झूठे वायदों को किसने प्रचलित किया? ठीक चुनाव के समय झूठे वायदों की भरमार हो जाती है। और ठगी की भी। मुझे याद है जब बिहार के एक चुनाव में उम्मीद्वार ने बांस के खंभों पर नकली बिजली का नाटक किया था। खंभे थे, तार थे, बिजली के बल्ब थे। बल्ब दो-तीन दिन जले भी थे। फिर वही ढाक के तीन पात। खंभे उखड़ गए। बिजली के तार लगाने वालों ने ही वापस कर लिए। बिजली न आनी थी और न आई। लेकिन फर्क क्या पड़ता है? बिजली के नाम पर वोट तो आ गए। यही काफी था। मुझे ऐसी छद्म की बीसियों कहानियां याद हैं। जब खड़ंजे की सड़कों से वोट का पक्का काम चलता हो तो क्या जरूरत है चुनावी वायदों को पूरा करने का? एक जमाना था कि बड़े-बड़े भोले-भाले लोग नेताओं के उद्घाटन समारोह और शिलान्यास समारोह से प्रभावित हो जाते थे, और वोट पड़ जाते थे।

यह यूं ही नहीं हुआ खोखला लोकतंत्र। सैकड़ों छद्म लगे हैं धोखेबाजी के रिकॉर्ड स्थापित करने के मामले में। तब कहीं घोषणा-पत्र निरर्थक हो गए। भारतीय लोकतंत्र के धोखे के ताने-बाने में लाखों बनावट लगी हैं तब कहीं जाकर घोषणा-पत्र की ऐसी निरर्थकता पैदा हो गई है। महिलाओं में साड़ियां बांटने का प्रलोभन देकर गांव में टिकुलियां बांट दी गईं और साड़ियों का वायदा कर दिया गया। नारा था- बिंदिया चमकेगी। आज यही बिदिंया चमक रही है। देश की उदासी, निराशा और संत्राश के रूप में। नतीजा यह है कि सारे लोक-लुभावन नारे निपट चुके। खोखले हो गए। अब तो राजनैतिक दलों को घोषणा-पत्र बनाने के मामले में वायदों के लाले पड़ रहे हैं। ईमानदार, सार्थक और सटीक नारे नहीं मिल रहे हैं। जब फर्जीवाड़ों का एक रिकॉर्ड बन चुका हो तो ऐसा होना ही था।

दुर्भाग्य की बात यह है कि कांग्रेस, जो लोकतंत्र को निरर्थक बनाने में सबसे बड़ा योगदान करती रही, आज भी वह उस रास्ते पर चल रही है। आज भी उसका विश्वास डिगा नहीं है कि येन केन प्रकारेण मतदाताओं को आज भी वह भ्रमित कर सकती है। बल्कि कांग्रेस का विश्वास दृढ़तर हुआ लगता है। अभी अगर आप समाचार-पत्र पढ़ते हों या टेलीविजन पर खबरें सुनते हों तो उससे निष्कर्ष निकलता है कि कांग्रेस की निष्ठा मतदाताओं को बेवकूफ बनाने की नीति पर ही चल रही है। जबकि विकास के मानकों पर जो सर्वेक्षण आते रहे हैं, इससे कम से कम चार-पांच ऐसे दल हैं जो कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं और जगजाहिर प्रशासन कौशल्य साबित कर रहे हैं।

जहां तक कांग्रेस का सवाल है, सुशासन का कोई मॉडल अभी तक तैयार नहीं किया है। यही कारण है कि कांग्रेस का पतन लगातार होता जा रहा है। चाहे कोई कुछ भी कर ले, अब अस्ताचलगामी उस भूतपूर्व सूर्य का कोई भविष्य नजर नहीं आता। और न ही पुराने रास्ते से लुढ़कने वाले रास्तों का भविष्य ही नजर आता है। क्योंकि पुराने तौर-तरीकों से राजनीति करने का जमाना अब खत्म हो रहा है। भले अन्ना हजारे का भविष्य कुछ निश्चित नहीं है, लेकिन इतना लगता है कि समाज युगसंधि पर खड़ा है। उसमें नए रास्तों को प्रशस्त करने की एक ललक पैदा हो गई है।

 

वैसे भी दुनिया के इतिहास में छह पीढ़ियों के घटते हुए निराशाजनक राजनीतिक वंशवाद में कोई चेतना नहीं होती है। एक खास बात यह है कि नए मतदाताओं का बोलबाला बढ़ा है और उसमें पुराने हथकंडों का महत्व हमेशा घटता जाएगा। यह जो ऊर्जा है, वेगवान है और कुछ कर के ही दम लेगी। ऊर्जा का यह विस्फोट कब प्रकट होता है, यह तो भविष्यवाणी का विषय है। लेकिन इतना तो निश्चित है कि चलेगा तो तूफान लेकर चलेगा, अभी उसने चलने की ठानी नहीं है। अलबत्ता सुगबुगी है और नजर आ रही है। जैसा कि मैंने कहा कि आज देश का मतदाता युगसंधि के कगार पर खड़ा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सांसद हैं।)

1 COMMENT

  1. न कोई चुनाव घोषणापत्र पर वोट देता है और न ही कोइ पार्टी इस पर अमल करने की ज़रूरत महसूस करती है.

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