जनजाति विकास का फंडा, कितना तेज कितना मंदा

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-जावेद उस्मानी-   orissa-tribal-tour

क्या उसकी भूख और प्यास अलग है मुझसे, दरबदर मारा फिरता है जो इक रोटी के लिए!

समाज के भले नियमों की क्या ख़बर उसे, वह तो जो भी करता है बस अपनी रोज़ी के लिए!

तो उसका जीवन उसका क्यों, क्यों मेरा जीवन मेरा है? दुःख तो आखि़र दुःख है साहिब न मेरा है न तेरा है।

कोई मानव जाति, जनजाति जैसी पीड़ा के दौर से संभवतया नहीं गुजरी है। सदियां बीती, बहुत कुछ बदला, लेकिन इनका दर्द यथावत है। ब्रिटिश काल में इसकी इंतहा हो गयी। कुछ आदिवासी समूहों को कानून जन्म से अपराधी ठहराना और उनकी संस्कृति का बाजारीकरण इसकी मिसाल है। चिहिन्त जनजाति को इस्तेमाल धन जुटाने के प्रयोजन से किस तरह  किया गया। मानव सफारी और घोटुल इसके प्रतीक हैं जिसकी अमुनिषकता पर पाबंदी न्यायालयीय मोर्चाबंदी के बाद लग पायी लेकिन संपूर्ण उपचार नहीं हुआ, आज भी कुछ जनजातीय समूहों द्वारा जारी देह व्यापार सवाल खड़े कर रहा है। आजादी के बाद बहुत कुछ बदला है, किंतु इनके शोषण का दौर रुका नहीं है। सभ्य समाज इस वर्ग की व्यथा से परिचित है और जनजाति कल्याण के प्रयासों  की फेहरिस्त लंबी है किंतु आवश्यक क्रियाशीलता का अभाव  दुखद है। इन प्रयोगों  का हासिल सिर्फ इतना है कि आदिकाल में जंगल में जो आज़ादी थी, वह भी छिन चुकी है। जनजाति विकास के समानांतर शोषण की सूची है। भूखमरी, अशिक्षा, गरीबी, कर्ज, पलायन, जाति उत्पीड़न, खराब स्वास्थ्य, विलुप्त होती प्रजातियां, लड़कियों की बिक्री, जैसी अनगिनत समस्याओं से घिरा यह समुदाय, अपनी तकदीर बदलने के सपने संजोए सरकार और समाज की ओर टकटकी लगाये हुए है।

स्वतंत्रता के उपरांत, सबसे ज्यादा गिरी हुई दशा वाले समुदायों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए विशेष प्रावधान किये गये। भारतीय संविधान में आर्थिक रूप से बेहद कमजोर और जटिल सामाजिक संरचना वाली जातियों को विशेष रूप से चिन्हित किया गया है। अनुच्छेद 241 व पांचवें अघ्याय के तहत अधिसूचित जातियों में एक अनुसूचित जनजाति है। इस प्रावधान का धर्म से कोई नाता नहीं है।  आदिवासी समुदाय के उत्थान के लिए आरक्षण, जैसे विशेष उपाय करके राजनैतिक, आर्थिक भागेदारी तय की गयी हैं।  विशेष संवैधानिक दर्जा प्राप्त अनुसूचित जनजाति की पहचान, संस्कृति, मूल्य को संरक्षित रखते हुए मुख्य धारा और आधुनिक जीवनशैली के साथ उपयुक्त सामंजस्य रखते हुए इन्हें आगे ले जाना सरकार की प्रतिबद्धता है। जनजातीय समुदाय की तरक्की के प्रयास बहुत हुए हैं, लेकिन खरबों रुपये खर्चे जाने के बाबजूद मंजि़ल काफी दूर है। इसका मुख्य कारण दुर्गम भोगौलिक स्थिति, निरक्षरता, कमज़ोर आर्थिक व राजनैतिक स्थिति, परिवर्तन के प्रति असहजता एवं जटिल सामाजिक संरचना है और प्रशासनिक स्तर पर समग्र विकास के लिए आवंटित धन के सदुपयोग और दायित्व के प्रति समर्पण की कमी है। इसलिए सकल विकास और जनजाति विकास के अंतर को आज तक पटा है। जनजाति विकास के कई महती कार्यक्रम, उदासीनता और भ्रष्टाचार के भेंट चढ़ने के कारण़ अनुच्छेद 330, 332 के अधीन पांच वर्ष के लिए दिये गये आरक्षण की अवधि संविधान संशोधन द्वारा दस-दस वर्ष के लिए बढ़ती रही है।

विकास कार्यक्रमों के आइने में दुर्दशा की जो तस्वीर कैद है, वह पीड़ादायक है। शिक्षा, स्वास्थ्य व आय, जीवन स्तर को चिन्हित करते हैं। इस मोर्चे पर आदिवासी कतार में सबसे पीछे है। आदिवासियों के गुणात्मक विकास के  लिए प्रथम पंचवर्षीष योजना में अलग से निधि की व्यवस्था की थी जो उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। आवंटित राशि ख़र्च तो हुई किंतु प्रगति आंकड़ों की ज़मीनी कहानी, कुछ और ही किस्सा बयां करती है, नतीजतन, हालात को मद्देनजर रखते हुए आज की ज़रुरतों के अनुसार, जनजाति विकास के नये रास्ते तलाशने के लिए, केन्द्र सरकार ने 17 अगस्त 2013 को स्थिति के आकलन के लिए, उच्च स्तरीय समिति का गठन किया है। इस समिति के अध्यक्ष प्रो. विर्गीस एक्सा और डॉ. ऊषा रंगरामनाथन, डॉ. अभयबेग, डॉ. युसूफ बांरा, डॉ. केके मिश्रा, सुनीला बसंत सदस्य है। गठित समिति, आदिवासी समुदाय की सामाजिक, आर्थिक, स्वस्थ्य, शिक्षा, परिसंपत्ति व आय के आधार पर भोगौलिक और वित्तीय स्थिति को सामने रखकर रोज़गार के नये स्त्रोत, सार्वजनिक निजि क्षेत्र में रोजगार, विकास का स्तर, बुनियादी ढांचे की कमी या लाभ, आदिवासी अत्याचार शोषण का उन्मूलन, पंचायत सशक्तीकरण, अनुसूचित क्षेत्र में विस्तार, पलायन, कजऱ्, साक्षरता, वन अधिकार और खाद्य क़ानून का लाभ आदि बिंदुओं पर नौ माह में रिपोर्ट देगी। अनुमान है कि अतीत की सही समीक्षा, भविष्य के लिए कारामद होगी, लेकिन अतीत की योजनाओं का हश्र डर पैदा करने वाला है।

जनजाति उत्पत्ति राजतंत्रीय व्यवस्था की देन है। सबसे कट के जंगल और दुर्गम क्षेत्र में बसने की वजहें इतिहास के पन्नो में अंकित है। सामंती काल में निर्वासित, अपराधी, सन्यासी, तपस्वी, पराजित योद्धा सहित समाज बहिष्कृत जनों ने जंगल का रुख किया। तत्कालीन सामाजिक दृष्टि और जाति प्रथा का योगदान भी कम नहीं है। ब्रिटिश निजाम  वनवासियों पर सबसे भारी रहा। इस काल में आदिवासियों ने जो खोया, उसकी कोई भरपायी नहीं है। वनभूमि, जल और वनोपज जनजाति जीवन का आधार है। अंग्रेजी काल के वन बंदोबस्त  कारोबारी था जिसका ध्येय व्यवसायिक दृष्टि से एकाधिकार और क्षेत्रों का लाभप्रद दोहन था। रेलवे, उद्योग और बांध के लिए जंगल की ज़मीनें ली गयीं और आदिवासियों को बिना मुआवज़े के बेदख़ल कर दिया गया, क्योंकि उनके पास मलिकाना का कोई अभिलेख नहीं था। विकास के नाम पर  निर्वाह के लिए आवश्यक, अधिकतम प्राकृतिक स्त्रोतों से वंचित वनवासी का जीवन और अधिक जटिल हो गया, बिगड़ी आर्थिक स्थिति के चलते इनका जीवन स्तर और नीचे गिर गया। आज़ादी के समय सारी ज़मीन का मालिकाना भारत सरकार को सौंप दिया गया। तत्कालीन व्यवस्था ने उसकी परख करने के बजाए ग़ुलामी के दस्तावेजों को यथास्थिति में स्वीकार कर लिया। जंगलों में बसे, सही हाथों को अधिकार देने की गंभीरता को नज़रअंदाज किये जाने से जनजाति वर्ग के हितों की उपेक्षा हुई। स्वतंत्रता के उपरांत जनजाति उत्थान की जिम्मेदारी भारत सरकार पर आ गयी, लेकिन विरासत में सदियों से शोषित इन समुदायों को लिए कुछ बेहतर कर पाना किसी चुनौती से कम नहीं था। नीति-निर्माताओं ने इनके विकास की ओर ध्यान दिया, किंतु प्रभावी ब्रिटिशकालीन क़ानून मार्ग की बाधा बने रहे।

जनजाति कुनबा

सन् 2011 गणना के अनुसार, जनजाति आबादी 10 करोड़ 42 लाख 81 हजार 34 है,  जो सकल आबादी का 8.6 प्रतिशत हिस्सा है जिसमें 9 करोड़ 36 लाख गांवों में और 1 करोड़ 4 लाख 61 हजार 872 शहरों में रहते हैं। आकलन के अनुसार, आदिवासी, देश के 15 फीसदी भू-भाग में फैले  हुए हैं। मध्यप्रदेश, उड़ीसा महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़ आन्घ्रा प्रदेश में सकल जनजाति आबादी का 83.2 फीसदी है और 15.3प्रतिशत। असम, मेघालय, नगालैंड, जम्मू-कश्मीर, त्रिपुरा, मिज़ोरम, बिहार, मणिपुर अरुणाचल, तमिलनाडु तथा शेष 2.3 फीसदी जनसंख्या उन राज्यों में है, जहां जनजाति अधिसूचित नहीं है या जिनका कोई स्थायी डेरा नहीं है। संख्यात्मक दृष्टि से सबसे ज्यादा आदिवासी मघ्यप्रदेश में रहते हैं और सबसे कम आबादी केन्द्र शासित चंडीगढ़ जैसे राज्य में है। आदिवासी आबादी 91.7 फीसदी आबादी ग्रामीण और 2.3 प्रतिशत शहरी है। एक अध्ययन के अनुसार, आदिवासी भले ही वीराने में रहते हों, लेकिन अंचल विशेष में उनकी संख्या सघन है। ऐसे 75 जि़ले हैं  जहां आदिवासियों की संख्या कुल आबादी के 50 प्रतिशत से अधिक है। 50 जि़लों में आदिवासी सूची लागू नहीं है। केन्द्र शासित राज्य, पंजाब, चन्डीगढ़, हरियाणा, दिल्ली और पुदुचेरी जनजाति के लिए अधिसूचित नहीं हैं।  593 जि़लों में 50 जि़ले आदिवासी आबादी शून्य है। 278 जि़लों  में  4.9 प्रतिशत आबादी है, 5फीसदी वाले 56, 10 से 19 फीसदी वाले जि़ले 69, 20 से 49 फीसदी आबादी वाले 65 जि़ले, 50 से 74 फीसदी वाले 35 जि़ले, 75 फीसदी आबादी वाले 40 जि़ले हैं। इसी तरह से 4,378 क़स्बों में, इसी क्रम में 1,090, 2420, 3,87, 2.64, 160, 15, 42 हैं- कुल 593615 गांव में क्रमवार 323467, 68189, 237662 , 44,240, 26788, 78507 गांव हैं। आदिवासी  बहुसंख्यक राज्य लक्षद्वीप, मिज़ोरम, नगालैंड , मेघालय, अरुणांचल, दादर नागर हवेली है। यहां 60 फीसदी आबादी जनजाति है। देश के कुल 5.94 लाख गांवों में, 153 लाख गांव में आदिवासी नहीं हैं। मोटे तौर पर हर चार के पीछे एक गांव में जनजाति सदस्य नहीं हैं। भारत की सकल आबादी का 8.6 फीसदी अनुसूचित जनजाति है, लगभग 654 आदिवासी समुदाय हैं , इनमें 75समुदाय अति पिछड़े हुए हैं। आन्ध्रा 33,  अरुणचल 16,  असम 14,  बिहार 33,  छत्तीसगढ़ 42, गोवा 8, गुजरात 32, हिमाचल 10, जम्मू कश्मीर, झारखंड32,  कर्नाटक 50, केरल 43,  मघ्यप्रदेश 46,  महाराष्ट्र 47,  मणिपुर 17, मिजोरम 7,  नागालैंड 5,  ओडि़सा 62,  राजस्थान 12,  सिक्किम 11,  तमिलनाडु36, त्रिपुरा 19,  उत्तराखंड 5,  उत्तरप्रदेश 15,  बंगाल 40,  अडंमान 6, दादर नागर हवेली 7, दमनदियू 5, जनजाति समुदाय अधिसूचित हैं। सच्चर कमेटी 2006 के अनुसार आदिवासी 7.40  बौद्ध,  ईसाई 32.80,  सिक्ख 0.90  व इस्लाम 0.05 धर्मावंलबी हैं।

पंचवर्षीय योजना और आदिवासी

पंचवर्षीय योजना जनजाति विकास की जीवन रेखा है। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु के पांच सिद्धांत,जनजाति विकास की अधारशिला है जिसके ऊपर आदिवासी तरक्की का ढांचा खड़ा है। इस पंच-सूत्र का मानक धन नहीं अपितु मानवीयता है। इस कार्य पर कितना व्यय हुआ, इसके बजाए हासिल मानवीय गुणवत्ता महत्वपूर्ण है। सूत्र के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को अपने बौद्धिक परंपरागत नैगर्सिक अधिकारों को विकसित करने का अधिकार है। जनजाति के वन भूमि पर हक का सम्मान, स्वायत्तता अधिसूचित क्षेत्र में कानून का संचालन उनकी सामाजिक मान्यताओं एवं सांस्कृतिक संस्था के अनुरुप होना चाहिए। स्व. नेहरु की सोच, जनजाति नीति 1950 का आधार बनी। प्रथम पंचवर्षीय योजना में मुख्य जोर संतृलित विकास पर था। अपेक्षित इलाकों में जल, सड़क, स्वास्थ्य सेवाएं जैसी प्राथमिक अधोसंरचना, आदिवासी इलाक़ों की पहचान व विकास लक्ष्य था संसाधन विकसित करने आदिवासी विकास के लिए विशेष निधि की व्यवस्था की गयी। इस योजना में जनजाति विकास का ख़ांका काफी रंगीन था। प्राकृतिक संसाधनों के विकास  के साथ शोषण को रोकने के लिए संगठित पूंजी और बाहरी हस्तक्षेप के विरुद्ध उपायों के अलावा कला का संरक्षण व जनजातीय सामाजिक संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने पर बल दिया गया था। द्वितीय योजना (1956- 1961) में  इस वर्ग के लिए अधिक अवसर के प्रावधान किये गये, बहुउद्देशिय जनजाति विकास खंड ( एसएमपीटी ) के तहत आदिवासी इलाकों को विकसित करने के लिए धन मुहैय्या कराया गया। सन् 1959 में गठित वेरियर एल्विन कमेटी ने 60 फीसदी से ज़्यादा आबादी वाले आदिवासी क्षेत्र को विकास के लिए चिन्हित किया था। तृतीय योजना (1961 – 1966) में 60 प्रतिशत से अधिक वाले क्षेत्र (टीडीपी ) के लिए खास इंतज़ाम किये गये। यूएस, ढेवर कमेटी (1961) ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि वन भूमि के बिना आदिवासियों का समुचित विकास संभव नहीं है। उनकी अनुशंसा को अमली जामा के लिए उपाय भी हुए,चतुर्थ योजना (1969-1974) में लद्यु किसान विकास एजेंसी (एसएफडीए) और सीमांत कृषक व खेतिहर मजदूर विकास एजेंसी (एमएफएएल) व सूखा क्षेत्र कार्यक्रम (टीडीए) से आदिवासियों को भी राहत मिली, क्योंकि अधिकांश जनजातियां इसके अंतर्गत आती हैं। पंचमयोजना (1974-1979) में 504 ट्राइवल ब्लॉक का गठन हुआ। आदिवासी विकास उप योजना के तहत शिक्षा व कल्याण मंत्रालय द्वारा 1972 में प्रो. एससी दूबे की अध्यक्षता में आदिवासी के लिए सामाजिक आर्थिक विकास  पहल पहले से अधिक सुसंगठित थी। सातवीं योजना (1985-90 ) प्रचलित कार्य सूत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन के रूप में जानी जाती है। 1979 में जि़ला क्लेक्टरों को आदिवासी विकास के लिए और योजनाओं के निष्पादन क्षेत्रीय ज़रूरत और अधिसूचित क्षेत्र की पंचायत की सलाह से करने का अधिकार दिया गया और जबाबदेह भी बनाया गया। अविकसित क्षेत्रों के उन्नयन के लिए शिवरामन कमेटी ने उप योजना बनाये जाने की सिफारिश की थी, इसे समाहित करते हुए उपयोजना के तहत वित्तीय मद से 75 फीसदी खर्च करने की इजाज़त दी गयी। वित्तीय प्रबंध को तीव्र बनाने के लिए टीएसपी बजट हेड कोड 796 के तहत अलग से वित्तीय प्रावधान किया गया जो सकल बजट के 10 प्रतिशत के बराबर है। एससीए (ट्राइवल सब प्लान ) और टीपीएस कोष दिये जाने का प्रावधान, आदिवासी विकास के लिए केन्द्र सरकार के 18 मंत्रालय की ओर से निधि प्रबंध का आश्वासन दिया गया। इसके साथ उप योजना के संचालन हेतु प्रशासनिक ढांचा, जिला स्तरीय योजना, कृषि सहकारिता, विपणन सहकारी समितियां, पुवर्वास, स्पेशल सेन्टल असिस्टेंट ( एससीए) आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-1997) में 1996-97 में योजना और आर्थिकी विभाग मंत्रालय को नोडल बनाया गया। 1996-97 में 16902.66 करोड़ रुपये दिये गये, पर्यावरण सुधार बेहतर सामाजिक सुविधाओं का लक्ष्य नौवीं योजना (1997-2000) उत्पादकता में सुधार, महिला सशक्तिकरण, खाद्य सुरक्षा पोषण 73वां संविधान संशोधन पंचायती राज्य में आरक्षण, औषध, उद्यान और विपणन तथा बाज़ार ग्यारहवीं योजना (2007- 2012) में  समावेशी विकास को सुनिश्चित किया गया और केबी के क्षेत्र की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए उपाय किये गये ग्रामीण बुनियादी ढांचे का निर्माण को लक्षित करके कार्य योजना बनाया गयी। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए योजना आयोग द्वारा 2010 में संचालित गतिविधि की निगाहबीनी समीक्षा व निगरानी तथा कार्यक्रमों के प्रभावी क्रियावन के लिए आयोग के सदस्य नरेन्द्र जाधव की अध्यक्षता में  टास्क फोर्स का गठन  किया गया।

बारहवीं योजना (2013-2017) वित्तीय मोर्चे पर दीर्घकालीन विकास योजनाओं के साथ ही व्यक्तिगत सशक्तता के लिए कई तरह के उपाय किये गये हैं। योजना आयोग ने गतिविधि संचालन के लिए ग्रामीण स्व सहायता समूह के सदस्यों को 81,000 रुपया और शहरी इलाके समूहों को 1,04000 रुपया कर्ज दिये जाने और सहकारी समीति में ग़रीबी सीमा रेखा से दोगुनी आमदनी वालों के लिए प्रावधान किया गया है। आदिवासी महिला सशक्तिकरण योजना (एएमएस वाय) के तहत हितग्राही को 6 प्रतिशत सूद पर 50,000 रुपया तक का कर्ज, माइक्रो क्रेडिट स्कीम के अंतर्गत सदस्य को 5 लाख का एसएचजी, 10 प्रतिशत परियोजना व्यय जमा कराने की शर्त पर 35 लाख रुपये तक का ऋण, 1999 में सामाजिक न्याय मंत्रालय ने आदिवासी को आर्थिक या भागेदारी पर काफी बल दिया सामाजिक सुरक्षा, कल्याण, सामाजिक बीमा, वित्तीय दृष्टि से योजनाओं के क्रियान्वयन और संखलन के लिए  प्रथम योजना में सामाजिक सुरक्षा, समाजिक बीमा, जनजाति कल्याण योजना, परियोजना, अनुसंधान, मूल्यांकन, सांख्यिकी, प्रशिक्षण, कल्याण सबंधी स्वैच्छिक प्रयास का संवर्धन व विकास, छात्रवृति, अनुसूचित क्षेत्र आधारभूत संरचना, असम के स्वायत्ता क्षेत्र संविधान की छठवीं अनुसूची के अध्याय 20 की सारणी भाग (क) में विर्निष्ट जनजाति क्षेत्रों के लिए राज्यपाल के द्वारा बनाये गये विनियम, जनश्री बीमा योजना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा, वित्तीय लाभ या आय का आधार, मनरेगा अधिनियम, ग्रामीण रोज़गार योजना, जवाहर रोज़गार योजना, अश्वास स्वीस (ईएएस ), फूडर फार वर्थ प्रोग्राम ( एफएफडब्ल्यू) प्रधानमंत्री ग्रामीण स्व. रोज़गार योजना (पीएमजीएसवाय), स्वर्ण जयंती ग्रामीण स्वरोज़गार योजना (एसजीएसवाय), पलायन रोकने के लिए आदिवासी बाहुल्य चार राज्यों मघ्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा में लागू इसके तहत 193 गांवों  और 160 ब्लॉक का चयन किया गया।

अनुसूचित जनजाति और अन्य क्रियान्वयन स्थिति की रपट

जनजाति विकास की जटिलताओं को नज़र में रखते हुए, कई स्तर पर प्रशासनिक प्रबंध किये गये हैं। इस दिशा में वक़्त ज़रूरत के अनुसार विभागों का गठन और दायित्वों का विभाजन होता रहा है। आदिवासी  विकास कार्यक्रमों के संचालन व देखरेख के लिए आयुक्त की नियुक्ति 1950 में की गयी। 1978 में पहले अजजा आयोग का गठन हुआ। 89वां संशोधन अनुच्छेद-338 2007 में 73 व 74 संशोधन पंचायत विस्तार अधिसूचित क्षेत्र सदन में आरक्षण अनुच्छेद 330 के तहत दिया गया है। विधानसभा में आरक्षण अनुच्छेद 332 और पंचायत में अनुच्छेद 243-डी के तहत आरक्षण का दिया गया। पांचवें अघ्याय में, पूर्वोत्तर राज्यों के  कल्याण व विकास अनुच्छेद 244 के तहत किया गया हैं। छठवां अध्याय स्वायत प्रशासन 244 (2) के तहत किया गया। कल्याण अनुदान 275(1)अनुच्छेद 15, शैक्षणिक पिछड़ेपन  15(4) पूरक के लिए विशेष प्रावधान आर्थिक व विकास योजना अनुच्छेद 46 के तहत किया गया हैं। जन जातीय मंत्रालय का गठन अक्टूबर 1999 में सबसे ज़्यादा वंचित वर्ग के लिए सामाजिक, आर्थिक विकास के समन्वित और योजनाबद्ध उदे्श्य को ध्यान में रखते हुए किया गया। परम्परागत वनवासी वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम 2006 बदलाव की दिशा में एक अति महत्वपूर्ण कदम है। अप्रैल 2013 तक 32 लाख 42 हज़ार 766 दावा, 12,98, 582  निराकृत, वितरण के लिए 16, 273 किताबें तैयार, 28, 17 हज़ार 748 दावों में 86.89 फीसदी का निपटारा। कुल 18 लाख 99 हजार .11 हेक्टेयर ज़मीन यानी 46 लाख 93 हजार 817.43 एकड़ जमीन का पट्टा जारी किया गया। राष्ट्रीय जनजाति नीति 2006 के अंतर्गत, जनजाति संस्कृति व मूल्य संरक्षा व मुख्य धारा से जोड़ने के उदे्श्य की प्रतिपूर्ति के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, आय वृद्धि  हेतु गुणवत्ता युक्त उपाय निहित हैं। संविधान  की धारा  244, 244ए, 275(1), 342, 338ए 339 ,संविधान का पांचवें अध्याय में, प्रशासन व नियंत्रण का अधिकार है जिसकी शक्तियां राज्यपाल में निहित हैं। उनकी जि़म्मेदारी है कि वे जनजाति मामले की राष्ट्रीय पुनर्वास पुनर्व्यवस्थापन नीति 2007 भूमि अधिग्रहण पुनर्वास पुनर्स्थापन 2011 को मंशा अनुसार क्रियान्वित कराये। 2011 -12 चयनीत आदिवासी व पिछड़े जिलों के लिए एकीकृत वित्तीय प्रदर्शन राज्यवार आकड़े जुटाये गये, वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित जि़लों के लिए ( एसीए) योजना चिन्हित कुल 88 जि़ला एकीकृत कार्य योजना (आईएपी) बारहवीं पंचवर्षीय योजना में 82 जिला समाहित किये गये हैं। जि़ला क्लेक्टर जि़ला दंडाधिकारी की अघ्यक्षता में पुलिस अधीक्षक, जि़ला वन अधिकारी सदस्य पर योजना क्रियान्वयन की जि़म्मेदारी दी गयी है। सामाजिक आर्थिक मानकों के अनुपात पर व्यय लचीलापन, ग्राम पंचायत  की सलाह से प्रकाश बुनियादी ढांचे के काम, सेवाओं के प्रस्ताव शिक्षा, स्कूल, चिकित्सा अस्पताल के लिए प्रस्ताव अनुसूचित क्षेत्र उग्रवाद प्रभावित क्षेत्र में आंवटन का 65 प्रतिशत खर्च करने की अनुमति दी गयी है। आदिवासी विकास के लिए विविध योजना और कार्यक्रम शासकीय और ग़ैर-सरकारी संस्थाओ  के द्वारा संचालित किये जा रहे हैं। अनुच्छेद 275 (1) के तहत राष्ट्रीय आदिवासी वित्त एवं विकास निगम, आदिवासी अनुसूचित क्षे़त्र, एससीए (स्पेशल सेन्टल असिस्टेंट) टीएसए (ट्राइव सब प्लान ) शैक्षिणिक बढ़ावा कार्यक्रम, आदिवासी सहकारी व मार्केटिंग विकास निगम,  फैडेरेशन आफ इंडिया लिमिटेड ( टीआरईएफइडी (ट्रीफैड) पर्टिकुलरटी वलदमरेबल ट्राइव ग्रुप्स (पीटीजीएस), पूर्वोत्तर राज्यों पर फोकस, जनजाति सलाहकार परिषद (टीएसी) इन्टीग्रेड ट्राइवल डेवेलपमेंट प्रोजेक्ट व एजेंसी ( आइटीडीपीएस, आइटीडीए ) मोडीफाईड एरिया डेवेलपमेंट अप्रोच ( एमएडीए) दीर्घकालीन कार्ययोजना (आरएलटीएपी) 1996 के लिए 6251.06 करोड़ आवंटन किया गया। बाद में इस कार्य योजना की अवधि  नौ साल और बढ़ाकर 2006- 2007 तक कर दी गयी।

शिक्षा

किसी भी समाज की तरक्की का मूल मंत्र शिक्षा है। संविधान के अनुच्छेद अनुच्छेद 46 में कमज़ोर तबकों के लोगों को शैक्षणिक अवसर दिये जाने की व्यवस्था करने का उल्लेख है। अनुच्छेद 15(4) के तहत राज्यों को दिशा-निर्देश है कि कमज़ोर तबक़ों के लिए सामाजिक व शैक्षिक व्यवस्था करे। जनजाति समुदाय तक शिक्षा की पहुच के लिए कई योजनाएं है। आंकड़ा पेश करने की बाज़ीगिरी से हर क्षेत्र में तरक्की दिखती है किंतु जनसंख्या वृद्धि को सामने रखकर देखने से उपलब्धि अनुपातिक रूप में ढाक के तीन पात जैसी है। इस नज़रिये से साक्षरता की कथित लंबी छलांग, छोटी दिखायी देती है। अन्य वर्गों  के राष्ट्रीय औसत से तुलना करने पर अपेक्षाकृत गिरावट नजर आती है। ज़ाहिर है कि जनजातीय वर्ग में साक्षरता मिशन उतना सफल है। सन् 1961 में साक्षरता का राष्ट्रीय औसत 24 प्रतिशत था, इसके मुक़ाबले आदिवासी साक्षरता का औसत महज 8.5 फीसदी था। सन् 2001 में राष्ट्रीय औसत बढ़कर 64. 85 प्रतिशत था जनजातीय साक्षरता दर 47.10 थी। चालीस साल में कई योजनाओं के पश्चात आशातीत वृद्धि नहीं हुई। उल्टे कमी आयी। वर्ष 1961 में अनुपातिक अंतर 15.5 प्रतिशत से बढ़कर 2001 में 17.74 हो गया। साक्षरता दर में 2.47 फीसदी कमी आयी। महिला साक्षरता के अनुपात वर्ष  1961 में 12.9: 32 था जो 2011 में 53.67: 34.76 हो गयी।  यानी महिला साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से अनुपातिक रूप में  1961 की तुलना में अंतर 9.7 से बढ़कर 18.91 हो गयी। यानी आबादी वृद्धि कि तुलना में  साक्षरता की दर दोगुनी घटी है। पूर्वोत्तर राज्यों में आदिवासियों की साक्षरता में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। शेष राज्य में आंकड़े अवश्य बढ़े हैं, लेकिन जनसंख्या के अनुपात में साक्षरता की दर में गिरावट आयी है। नामांकन में वृद्धि आंकी गयी है। प्राथमिक स्तर पर 123 फीसदी पूर्व माध्यमिक 69 उच्चतर माध्यमिक37.2  उच्च शिक्षा 4.6 फीसदी की वृद्धि  है। इसमें माध्यमिक व उच्चतर माध्यमिक स्तर की पढ़ाई बीच में छोड़ने वालों की संख्या काफी है। इस लिहाज़ से कुल मिलाकर नामांकन घटा है। शिक्षा के लिए 6 फीसदी ब्याज़ पर 5 लाख तक का कर्ज व अनेक तरह की छात्रवृत्तियां हैं, लेकिन उच्च शिक्षा में नामांकन का प्रतिशत राष्ट्रीय बहुत कम है ।

स्वास्थ्य

स्वास्थ्य सेवाएं न्यून हैं। अधिकतर लोग स्थानीय वैद्य व झाड़-फूंक पर निर्भर है। दूरदराज़ के क्षेत्र में चिकित्सक जाना  नहीं चाहते हैं। छत्तीसगढ़ के जि़ला बलरामपुर में 96 गांवों के बीच एक डॉक्टर है। बाकी प्राथमिक चिकित्सा परिचारकों और दफ्तरियों के हवाले है। मलेरिया और पीलिया जैसे साघ्य रोगों से भी बड़ी तादाद में मृत्यु होती है। केन्द्र और राज्य सरकार की ओर से स्वस्थ्य रक्षा के लिए वैसे तो कई उपाय किये गये हैं, स्मार्ट कार्ड जैसी योजनाएं हैं, लेकिन अस्पताल इतनी दूर हैं कि साधनविहीन ग़रीब आबादी का ख़र्च करके बीमारी की हालत में वहां तक पहुंचना कठिन साघ्य है और पहुंच गये तो वक़्त पर सही इलाज दुर्लभ है। इससे यह समुदाय योजनाओं के लाभ वंचित है। चलित चिकित्सा सेवाएं किताबी हैं। आकड़ों के अनुसार सभी वर्ग के लिए स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता 31.9 फीसदी है, लेकिन केवल 2.6 प्रतिशत आदिवासी तक इसकी पहुंच है। यह आंकड़ा अपने आप ही सारी कहानी कह देता है। आदिवासी मरीजों के साथ चिकित्सा के दौरान असमान्य व्यवहार को देखते हुए आदिवासी बाहुल्य राज्य अंडमान निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में सरकारी अस्पताल में आदिवासियों के लिए अलग वार्ड बनाया गया है, ताकि आदिवासी प्रताड़ित हुए बिना इलाज करा सके। कमोवेश यह परिदृश्य हर जगह है, लेकिन पोर्ट ब्लेयर जैसा प्रबंध किसी जगह नहीं है। आमतौर से रोग विशेष के लिए अलग से कक्ष होते हैं, किंतु जाति विशेष के लिए ऐसे इंतेजाम की लाचारी कथित मानवीय संवेदनशीलता का कच्चा चिट्टा है।

जनजाति की गरीबी उसकी बीमारी का सबसे बड़ा कारण है। 62 फीसदी आदिवासी कुपोषित बच्चे हैं। कम वजन वाले बच्चों का राष्ट्रीय औसत 57 फीसदी है। आन्ध्र प्रदेश के आदिवासी सर्वाधिक कुपोषण के शिकार है। आन्ध्रा इस तालिका में सबसे ऊपर है, यहां 94 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, झारखंड 93 फीसदी और गुजरात में 86 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। 5 साल से कम उम्र बच्चों में कम वजन का आंकड़ा चौंकाने वाला है। इस आयु वर्ग के दुर्बल जनजाति बच्चों की संख्या आन्ध्रा  25.7, गुजरात  23.2 मणिपुर 21.5 फीसदी  है। एनएफएचएस (दो ) के आंकड़े के अनुसार, समान्य वर्ग और जनजाति में 25 फीसदी का अनुपातिक अंतर है। एक आकलन के अनुसार, इस वर्ग के 23.3 प्रतिशत बच्चों का वज़न सामान्य से बहुत गंभीर रूप से है, 52.1 फीसदी स्कूली बच्चों का वज़न कम पाया गया है। रक्त अल्पता (एनिमिया) से 54 प्रतिशत और गण्डमाला से 13 फीसदी आबादी ग्रस्त है। औसत ऊंचाई 2 से 3 सेंटीमीटर कम है। शारीरिक विकास में कमी और रुग्णता का अनुपात जनजाति की वास्तविक स्थिति को एक हद तक साफ करता है। सरकार द्वारा कराये गये ताजा अघ्ययन के अनुसार  1  से  5 साल की उम्र वाले कम वजन के बच्चे सबसे कम 13 प्रतिशत मेघालय में और सबसे ज्यादा 70 प्रतिशत गुजरात में है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार गुजरात, कर्नाटक, आन्ध्र, मघ्यप्रदेश, ओडि़सा, महाराष्ट्र में कम वजन वाले बच्चे 60 फीसदी से ज्यादा है।  भूखमरी के विरुद्ध खाद्यान्न कार्यक्रम और सस्ता राशन जैसी योजनाओं के बाद इतना कुपोषण अपने आप में एक बड़ा सवाल है। संरक्षा पैकेज आकर्षक और मानवीय संवेदनाओं का उज्जवल पक्ष है लेकिन कुपोषण का आंकड़ा इंगित करता है कि दुर्दशा कितनी गहरी है। महिला और शिशु कुपोषण, मृत्यु दर औसत राष्ट्रीय औसत से काफी उच्च है।                 अशिक्षा के कारण स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता की बेहद कमी है। नया ज्ञान आज भी इनसे कोसों दूर है। कई सामाजिक कुरितियां भी इनके स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है, किंतु उसे पारंपरिक रूप से ये ढो रहे हैं। मिसाल के तौर पर बाल विवाह कानूनी तौर पर प्रतिबंधित हैं, लेकिन सामाजिक मान्यताओं के अधीन इसका क्रम जारी है। कम उम्र में विवाह मानसिक व शारिरिक रोगों को बढ़ावा देने का कारक है। इसी तरह से अधिक मदिरा का सेवन, शत्रु से ज्यादा सेहत के लिए घातक है लेकिन सामाजिक मान्यताओं के चलते वे इसको त्यागने को तैयार नहीं है। सरकार की ओर से निर्धारित मात्रा में शराब बनाने की छूट और सामाजिक कार्यक्रमों तथा पर्व में इस्तेमाल की छूट एक दुखद कड़ी से कम नहीं है।

दुर्गम  क्षेत्रों में छोटी-मोटी बीमारी भी अकाल मृत्यु का कारण बनती है। संक्रामक रोगों से बचाव के साधन ना के बराबर है। स्थानीय स्तर पर मौत की खबरों और सरकार द्वारा प्रकाशित आंकड़ों में भारी विरोधाभाष है। सरकारी कर्मचारी सही जानकारी देने में इसलिए डरते हैं कि इसकी रोकथाम की जिम्मेदारी उन पर है उन्हें लगता है कि वे सच बतायेगे तो उन्हें ही दंडित किया जायेगा।

आवास, पेयजल, प्रसाधन, प्रकाश

भारत में कुल मकानों की संख्या 26 करोड़ 66 लाख 92 हजार 667 है। आदिवासी के 23 लाख 9 हजार 105 घर है जिसमें 40.6 फीसदी घरों को अच्छी दशा का माना गया है। 22. 6 फीसदी शौचालय युक्त है। 17.3 प्रतिशत घरों में स्नानागार है और 6.1 फीसदी मकानों में पानी निकासी के लिए नाली है। केवल  53.7 फीसदी आवासों में रसोई घर है जिसमें तेल और एलपीजीचीएनजी  बिजली से खाना पकाने जैसी सुविधा 12 प्रतिशत है, बाकी 84 प्रतिशत लकड़ी,  कचड़ा,  डंडल, कोलतार पर निर्भर है। कुल 45.6 प्रतिशत लोगों के पास खुद का मकान हैं। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार 44 प्रतिशत आदिवासी घुमक्कड़ हैं। ज़ाहिर है कि ऐसे लोगों का कोई स्थायी ठिकाना नहीं है।

अन्य जरुरी सुविधाओं के मामले में भी यह वर्ग काफी पीछे है। केवल 1.6 प्रतिशत आदिवासी सुसज्जित मकान में रहते हैं। 21.9 फीसदी घरों में टेलीविजन, 36 प्रतिशत लोगों के पास सायकिल, 31. 1 फीसदी मोबाइल धारक है, केवल 9 फीसदी लोगों के पास दो पहिया वाहन और 1.6 फीसदी लोगों के पास चार पहिया वाहन है जो राष्ट्रीय औसत का सबसे न्यूनतम स्तर है।

पेयजल

अन्य वर्गों की तुलना में आदिवासियों को स्वच्छ जल की आपूर्ति कम है, जहां आवासीय पेय जल उपलब्धता का राष्ट्रीय औसत 46.6 है। वहीं आदिवासियों के 19.7 फीसदी को यह सुविधा है। 37.6 फीसदी आदिवासियों को अवास से काफी दूर जाकर पानी लाना पड़ता है।

प्रकाश

आदिवासी अंचलों में बिजली की कमी है। एक आकलन के अनुसार कल 31.4 प्रतिशत घरों में बिजली है,  67.2 फीसदी आदिवासी प्रकाश के लिए किरोसीन पर निर्भर है।

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