ऋग्वेद बिना छेडछाड  रहा कैसे ?

4
341

२०१७ -वेदान्त कॉंग्रेस – प्रश्नोत्तरी (२)

डॉ. मधुसूदन

(एक) प्रवेश: अगली पीढी  का संदेह  बडा कठिन ? 

लगता है; हमें, संस्कृति टिकाने के लिए, कुशलता बरतनी होगी. शायद आधुनिक  विदेशी शिक्षा  ने युवाओं को  भरमा रखा है; जब माता-पिता व्यवसाय में व्यस्त रहे होंगे.

कुशलता  और सच्चाई  दोनों  से काम लेना होगा.  हुयी गलतियाँ स्वीकारते हुए  विश्वास  दिलाना होगा. ऐसा ना करने पर अगली पीढी  में , हमारी सनातन परम्परा  (धीरे ,धीरे) शनैः शनैः विलुप्त होने की सम्भावना  नकारी नहीं जा सकती.

दोष किस का था ; इस पर चर्चा में समय व्यय ना करें. जितना बन पाए; उससे सीखें अवश्य, पर इससे अधिक दोषारोपण से कुछ उपलब्ध नहीं होता.

कुछ युवाओं का  सौम्य  पर -उद्धत मानस भी, प्रश्न पूछने के हाव भाव से  व्यक्त होता था .

 

युवा जिस वातावरण में पलता है, वह भौतिक समृद्धि का पोषक, कुछ उद्धताई को स्पर्श करता और समृद्धि  प्राप्ति के अहंकार को उजागर करता है.  इतनी भूमिका जानकर आगे पढें.

 

आज निम्न प्रश्नों के उत्तर खोजते हैं।

 

(दो) ऋग्वेद कैसे विकृति से बच पाया?

*ॐ -ऋग्वेद में आज तक एक अक्षर भी जोड़ा वा घटाया नहीं गया *.

इस  विधानपर आज का युवा विश्वास नहीं  करता.

एक युवा का प्रश्न और उसकी भूमिका से ही स्पष्ट है:

 

(तीन) प्रश्न मालिका:

जब बाइबिल की अनेक गॉस्पेल्स मिलती हैं, तो उससे भी पुराना ऋग्वेद बिना छेडछाड रहा यह  हम  कैसे मान ले ? तब मुद्रण का शोध  ही कहाँ हुआ था? कागज़  का शोध  भी नहीं हुआ था।

ताड पत्र या भोज पत्र पर लिखा जाता था। लिपि भी पता नहीं खोजी गयी थी या नहीं?

ऐसे वेदों को बिना विकृति मान लेना क्या मूर्खता या  अंधश्रद्धा नहीं  है?

 

जब एक युवा ने  ऐसे  श्रेणी बद्ध प्रश्न पूछना प्रारंभ किए ,तो  मैं ही,  सोच में  पड गया.
ऐसे प्रश्न भी हो सकते है. पर इन प्रश्नों का मैं पहली बार  सामना कर रहा था। भारत में भी  साम्यवादियों द्वारा ऐसे प्रश्न पूछनेवाले  मिले हैं; जो मैं उपेक्षित करते आ रहा था.

 

प्रश्न:(१)भाषा शुद्धि  और उच्चारण के प्रति  पूर्वज  कितने जागरूक थे?
(कुछ काल्पनिक प्रश्नों को   विषय  निरूपण की सुविधा की दृष्टि से डाला है.)

 

उत्तर(१)
भाषा शुद्धि और उच्चारण के प्रति  हमारे पूर्वज  किस सीमा  तक जागरूक थे; यह जानने के लिए, इस बिन्दू पर भाषा विज्ञान की भूमिका नामक पुस्तक के लेखक देवेन्द्रनाथ शर्मा  जो कहते हैं; उसे  प्रत्येक  राष्ट्रीय  अस्मिता से गौरवान्वित भारतीय  को जानकर  हर्ष हुए बिना रहेगा नहीं.

 

एक शुद्ध ग्रंथ ऋग्वेद: 

*भाषा विज्ञान की भूमिका *–नामक पुस्तक के लेखक देवेन्द्रनाथ शर्मा कहते हैं;

—————————— —————————— —–

==>*’इस प्रसंग में एक बात ध्यान देने की है कि संसार का प्राचीनतम साहित्य होने पर भी ऋग्वेद में आज तक एक अक्षर का परिवर्तन या मिश्रण नहीं हो सका है. ऋग्वेद को छोडकर संसार में दूसरा कोई ग्रंथ ऐसा नहीं जिसके सम्बंध में ऐसा कहा जा सके.’*
==>*’ऋग्वेद में आज तक एक अक्षर भी जोड़ा वा घटाया नहीं जा सका,  यह इस देश के विद्वानों के बौद्धिक चमत्कार का आश्चर्यकर प्रमाण है.’* —-देवेन्द्रनाथ शर्मा

—————————— —————————— —

प्रश्न:(२) उच्चारण शुद्ध कैसे रखा जाता था?

उत्तर(२)  शुद्धातिशुद्ध मंत्र-पाठ शब्दशः, (प्र्त्येक शब्द सहित)  सुनिश्चित  रूप में कण्ठस्थ करवाने  के लिए  सुनियोजित परम्परा थी.  यह किसी अहरे गहरे का काम नहीं हो सकता .
परम्परा का अनुसरण करनेवाले  भी बिना संदेह , उसका  कठिन परिश्रम, क्या बिना  हिचकिचाहट स्वीकार कर गए? ऐसे प्रश्न उठना संभव हैं। जब, अन्य धर्मग्रंथ बार बार बदले हैं। बाइबिल की ही  गॉस्पेल्स  आज  कई गिनाइ जाती हैं.

 

प्रश्न:(३)   कौनसी अनोखी  परम्परा चलाई गयी?  क्या  ऐसी परम्परा संसार में किसी और संस्कृति ने नहीं चलाई? 

उत्तर(३) मेरी जानकारी में ऐसी परम्परा किसी अन्य संस्कृति ने नहीं चलाई.  कम से कम संसार का इतिहास यही कहता है.

 

प्रश्न(:(४) क्या किया गया इस परम्परा के अंतर्गत?
उत्तर(४) इस परम्परा के अंतर्गत अनेक प्रकार के पाठ प्रचलित किए गए . पराकोटि का समर्पण था. इसे अंधश्रद्धा मानना  मेरे असंभव. सोचिए: जब मुद्रण (छापखाने) का प्रबंध नहीं था. ग्रंथों की छपाई   हो नहीं सकती थी. ब्राह्मी लिपि भी थी या नहीं? निश्चित पता नहीं.

पर, वेद ईश्वर प्रणीत थे. ऋषियों को मंत्र दर्शन हुआ, कहते हैं ईश्वर ने उन्हें एकपाठित्व की सामर्थ्य प्रदान की थी. एक बार सुनने पर  ही स्मृति में  उत्कीर्ण हो जाता था. जैसे किसी  स्वर्ण पात्र पर नाम खोदा जाता है; मंत्र  भी  स्मृति में उत्कीर्ण हो जाते थे. वेद इसी प्रकार  सुरक्षित रहें. आज तक विशेषतः ऋग्वेद को  अविकृत रूप में सुरक्षित रखा गया. साथ साथ हमारे उच्चारण को भी शुद्ध रूप में  संजोया गया .

 

  *बीसवी शती में  वेदों का प्रकटन *

 

इस संदर्भ में  *बीसवी शती में  वेदों का प्रकटन * नामक आलेख  इस कडी को खोलकर देखने का अनुरोध.

https://www.pravakta.com/ bisvi-century-appearance-of-th   यह बीसवीं शती का वेदों का, प्रकटन  जो छंदोदर्शन में १९१७ में ४५० ऋग्वेदिक शैली के मंत्र मात्र १५ दिन में प्रकट हुए उसका इतिहास है.

 

प्रश्न(५) किस प्रकार के पाठ थे? उदाहरण दीजिए. 

उत्तर(५) मन्त्र-पाठ, पद-पाठ, क्रम-पाठ, जटा-पाठ, घन -पाठ: इत्यादि नामों के पाठ थे.
इन पाठों का प्रचलन और साथ उच्चारण  शुद्ध और  निरंतर रखी गयी थी. सारे संसार के इतिहास में आप को ऐसा उदाहरण कहीं  भी  नहीं मिलेगा. ढूँढ के लाइए, मैं मान जाऊंगा. यह मेरे अपने  गर्व की चुनौती नहीं , संस्कृति  का गौरव बोल रहा है.

 

(पाँच)कैसे थे ये पाठ?

उत्तर: मन्त्र पाठ:
मंत्रस्थित पदों को सरल और एक साथ मिलाकर पढना  मन्त्र पाठ, कहाया  जाता था।
मन्त्र पाठ का उदाहरण:
ओषधयः  सं   वदन्ते   सोमेन   सह   राज्ञा।

यस्मै    कृणोति   ब्राह्मण्स्तं   राजन्‌    पारयामसि॥
—ऋग्वेद, १०-९७-२२

 

(छः) पद-पाठ: 

पदों को तोडकर पढना पद-पाठ  कहाया जाता था।  उदाहरण:
—————————— —————–

ओषधयः।  सं ।  वदन्ते।   सोमेन।   सह।   राज्ञा।

यस्मै ।   कृणोति।   ब्राह्मण:। तं।  राजन्‌।    पारयामसि॥
—————————— ———————-

(सात) क्रम-पाठ:

 

क्रम से दो-दो पदों  को  मिलाकर पढना क्रम-पाठ, माना जाता था.

———————–

ओषधयः  सं । सं वदन्ते । वदन्ते  सोमेन । सोमेन  सह। सह   राज्ञा। राज्ञेति राज्ञा।

यस्मै    कृणोति ।  कृणोति ब्राह्मणः ।  ब्राह्मणस्तं ।  तं  राजन्‌ ।राजन    पारयामसि। पारयामसीति पारयामसि॥
—————————— —————-

(आठ)  जटा-पाठ:
इसी प्रकार से और भी जटिल हुआ करता था जटा पाठ।प्रथम पदका द्वितीय के साथ, द्वितीय का प्रथम के  साथ और फिर प्रथम का द्वितीय के साथ पाठ जटा-पाठ कहाया जाता था.
—————————— —————————-

ओषधयः  सं, समोषधयः,  ओषधयः  सम्‌ ।

  सं वदन्ते,  वदन्ते-सम्‌, सं वदन्ते।

वदन्ते सोमेन,  सोमेन वदन्ते,  वदन्ते सोमेन।

सोमेन   सह , सह   सोमेन ,   सोमेन   सह ।

सह राज्ञा, राज्ञा सह, सह राज्ञा। राज्ञेति राज्ञा।

यस्मै कृणोति, कृणोति यस्मै, यस्मै कृणोति।

कृणोति ब्राह्मणो, ब्राह्मणः कृणोति, कृणोति ब्राह्मणः 

ब्राह्मणस्तं, तं ब्राह्मणो, ब्राह्मणस्तम्‌।

तं राजन्‌, राजंस्तं, तं राजन्‌।

राजन्‌ पारयामसि, पारयामसि राजन्‌, राजन्‌ पारयामसि॥

पारयामसीति पारयामसि॥

 

घन -पाठ

उससे  जटिल था घन-पाठ।  घनपाठ के  भी दो भाग हुआ करते थे.

(१) पूर्वार्ध –अन्त से आरम्भ की ओर.

राज्ञेति राज्ञा । सह राज्ञा। सोमेन सह। वन्दते सोमेन। सं वदन्ते। ओषधयः सं।

आरम्भ से अन्त की ओर

सं वदन्ते। वदन्ते सोमेन। सोमेन सह। सह राज्ञा। राज्ञेति राज्ञा।

 

(२) उत्तरार्ध-अन्त से आरम्भ की ओर—

पारयामसीति पारयामसि।राजन्‌ पारयामसि। तं राजन्‌।

ब्राह्मण्स्तं। कृणोति ब्राह्मणः। यस्मै कृणॊति।

 

आरम्भ से अन्त की ओर

 

कृणोति ब्राह्मणः। ब्राह्मण्स्तं। तं राजन्‌। राजन्‌ पारयामसि। पारयामसीति पारयामसि।

यस्मै    कृणोति   ब्राह्मण्स्तं   राजन्‌    पारयामसि॥

 

—ऋग्वेद,  मंडल १०- सूत्र ९७-मंत्र २२

संदर्भ: (१) श्रीपाद सातवलेकर सम्पादित पृ. ७९२-८०५)
(२) मॅक्स मूलर का व्याख्यान (हस्तलिखित विवरण)

(३)भाषाविज्ञान की भूमिका –देवेन्द्रनाथ शर्मा, दीप्ति शर्मा

 

4 COMMENTS

  1. Excellent presentation.
    May Eeshvar give you long healthy prosperous and productive life to keep the light of knowledge directing innumerable intellectuals in the righteous direction of improving insight.
    Deenbandhu Chandora

    • आ. डॉ. दीनबंधु चन्दोरा जी—कृतज्ञता सह धन्यवाद.
      जितना अध्ययन करता हूँ, चकित भी और विस्मित भी होता हूँ.
      अच्छा किया आपने समय देकर आलेख पढा और टिप्पणी भी दी.
      ऐसे ही उपकृत करते रहें.

      मधुसूदन

  2. आदरणीय मधु भाई ,
    जिज्ञासु प्रश्नकर्त्ता को ये पाठ आश्वस्त कर देगा । आपने बड़े ही परिश्रम से , शोधरूप में इस ज्ञान को उद्घाटित किया है, जो सभी के लिये संज्ञान-स्रोत के रूप में अत्यन्त उपयोगी रहेगा । प्रशंसनीय सफल प्रयास !!
    जब मैं एम.ए.( संस्कृत – वेद ग्रूप) में छात्रा थी – तब “ऋग्वेदभाष्यभूमिका ” पढ़ते हुए हमको पदपाठ, जटा पाठ, घन पाठ आदि के संबंध में पढ़ाया गया था । हमारे आचार्य आनन्द झा जी एवं पंडित गयाप्रसाद दीक्षित जी ने
    मंत्रों के ये पाठ हमें स्वयं कह कर सुनाये थे । निश्चय ही इस परिश्रमसाध्य एवं समयसाध्य विधि से ही हमारे प्राचीनतम ग्रन्थ को सुरक्षित रक्खा गया । निरन्तर गुरु-शिष्य परम्परा के दृढ़ संकल्प और कठिन साधना ने इन मंत्रों को उसी शुद्ध रूप में आगे आने वाली पीढ़ी को इस विश्वास से प्रदान किया होगा कि ये शृँखला सतत आगे तक चलती जाएगी।उनकी उस तपस्या के परिणामस्वरूप ही आज हमारे पास ये अमूल्यनिधि ज्यों की त्यों पहुँच सकी है ।
    हमारे कुछ प्राचीन ग्रन्थ शिष्य की जिज्ञासा और गुरु द्वारा उसका समाधान करते हुए प्रश्नोत्तर शैली में ही लिखे गए हैं

    बचपन में मेरी माँ जब गिनती सिखाती थीं तो पक्की तरह से याद करने के लिये सीधी-उल्टी दोनों तरह से कहने
    को कहती थीं, जिससे हर संख्या का क्रम सहजता से याद हो जाए । जैसे – १ से १० तक फिर १० से १ तक ।
    ये भी कुछ ऐसी ही विधि लगती है , जो मस्तिष्क में पूरी तरह से उसे बैठा जाती थी ।
    आज आपके इस आलेख ने उन सब स्मृतियों को पुन: उजागर कर दिया । आभारी हूँ , मधु भाई ।
    सादर , शुभाकांक्षिणी
    शकुन बहन

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here