दुनिया आतंकवाद से कैसे लड़े?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

पेरिस हमले ने दुनिया के देशों को यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि वह आतंकवाद से कैसे लड़ें?आतंकवाद से लड़ने का सबसे आसान तरीका यह है कि उनके ठिकानों पर बम बरसाओ या जब आप आतंकियों को देखें तो उन्हें गोली से उड़ा दो। लेकिन क्या इस तरीके से आप सचमुच आतंकवाद को खत्म कर सकते हैं?इस तरीके में कोई बुराई नहीं है। यह तरीका एक तरह से अपने क्रोध को प्रकट करने का ही रुप है और यह भी ठीक है कि गोली का जवाब गोली होती है। फ्रांस यही कर रहा है। उसने दाएश (इस्लामी राज्य) की राजधानी राक्का को बमों से उड़ाने की कोशिश की है। हवाई हमले जारी हैं। इस तरह के हमले रुस पहले से कर रहा है। अब शीघ्र ही नाटो राष्ट्र भी इन हवाई हमलों में शामिल हो जाएंगे। यदि दुनिया की सारी महाशक्तियां भी एकजुट होकर हवाई हमले करने लगें तो भी सवाल यही है कि क्या वे ‘दाएश’, ‘अल−कायदा’ और ‘तालिबान’ के आतंकवाद को खत्म कर पाएंगी?

आतंकवादियों से लड़ने के पुराने सारे अनुभव यही बताते हैं कि जब तक उनके साथ जमीनी लड़ाई नहीं होती,उनका मुकाबला करना असंभव होता है। पाकिस्तानी फौज ने अपने आतंकियों को खत्म करने के लिए जमीनी अभियान शुरु किया। हजारों आतंकियों को बीन−बीन कर उसने मारा। यही अफगानिस्तान में नाटो फौजों ने किया, अफगान फौजियों की मदद से। क्या फ्रांस, रुस और अमेरिका अब सीरिया के ‘दाएश’ को खत्म करने के लिए अपने सैनिक जमीन पर उतारेंगे? क्या वे ईरान, पाकिस्तान, सउदी अरब, भारत, नेपाल और अफ्रीकी राष्ट्रों से सैनिकों को मांगेंगे? पाकिस्तान ने तो पहले से ही साफ मना कर दिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि यह लड़ाई लंबी खिंच सकती है।

आतंकियों, खासकर ‘दाएश’ को मिलनेवाले पैसे पर तुरंत रोक लगनी चाहिए। दाएश के लुटरों ने कई बैंकों,व्यापारिक प्रतिष्ठानों और सीरिया के सरकारी खजानों को लूटा है। उसने जहां−जहां अपनी हुकूमतें कायम की हैं,वहां−वहां आम जनता पर टैक्स लगा दिए हैं। इसके अलावा सीरिया के तेल के 10 क्षेत्रों में से छह पर उसका कब्जा है। उसे तेल से भी करोड़ों रु. की आमदनी है। इस्लाम के नाम पर प्रवासी मुसलमान भी दाएश के खजाने को भरते रहते हैं। सबसे शर्म की बात तो यह है कि सीरिया के शिया शासक बशर−अल−असद को हटाने के लिए अमेरिका ने ‘दाएश’ को पिछले साल ही करोड़ों डॉलर दिए हैं। इस समय ‘दाएश’ की रोजाना आमदनी 10 करोड़ रु. से भी ज्यादा है। जैसे अफगानिस्तान में अफीम, तस्करी और लूट के पैसे से तालिबान की दुकान चलती थी, वैसे ही ‘दाएश’ की दुकान भी चल रही है। ‘दाएश’ अपने आतंकियों को बाकायदा तनख्वाह देता है। उसके साथ काम करनेवाले पाक और भारतीय मुसलमानों को कम तनख्वाहें और कम सुविधाएं मिलती हैं, क्योंकि उन्हें घटिया मुसलमान समझा जाता है। ‘दाएश’ का यह हुक्का−पानी जब तक बंद नहीं होगा, उसे खत्म नहीं किया जा सकता क्योंकि बेरोजगार और अशिक्षित मुसलमान नौजवानों को इस्लाम के नाम पर अपने चंगुल में फंसाना काफी आसान होता है।

आतंकी कामों के लिए रंगरुटों की भर्ती इसलिए भी आसान होती है कि आजकल नौजवान इंटरनेट से चिपके रहते हैं। मोबाइल फोन और इंटरनेट के जरिए गुप्त संदेश तत्काल भेजे जाते हैं। आतंक का प्रशिक्षण दिया जाता है। आतंकी कार्रवाई करते समय उन्हें आवश्यक निर्देश प्राप्त होते हैं। उन्हें हमला करने और बचने के रास्ते सुझाए जाते हैं। आतंकियों के पास ऐसे विशेषज्ञ भी हैं, जो सरकारों की गुप्त जानकारियां भी उनके कंप्यूटरों से उड़ा लेते हैं। यदि आतंक−निरोध करना है तो सभी सरकारों को सबसे पहले इंटरनेट−सुरक्षा का इंतजाम करना चाहिए।

यदि आतंकवाद−विरोधी विश्व−मोर्चा बन जाए तो उसे कोई ऐसी व्यवस्था भी करनी चाहिए, जिसके अन्तर्गत उन सब राष्ट्रों को दंडित करने का प्रावधान हो, जिनकी सरकारें आतंकवाद को प्रोत्साहित, प्रेरित या सहायता करती पाई जाएं। सरकारों को यह समयबद्ध जिम्मेदारी दी जानी चाहिए कि वे अपने आतंकवादियों को खत्म करें।

ये तो हुई तात्कालिक कार्रवाइयां लेकिन आतंकवाद को जड़−मूल से उखाड़ने के लिए राष्ट्रों को कई बुनियादी कदम भी उठाने होंगे। सबसे पहले उन्हें शिया−सुन्नी विवादों को हल करना होगा। 1300 साल से चले आ रहे इस सांप्रदायिक झगड़े ने ही पश्चिम एशिया को अशांत कर रखा है। सुन्नियों का नेता सउदी अरब और शियों का नेता ईरान! ये दोनों जब तक अपनी वर्चस्व की लड़ाई को खत्म करके सदभाव और सह−अस्तित्व का माहौल नहीं बनाएंगे, सद्दाम हुसैन और अशर−अल−असद के खिलाफ खूनी बगावतें होती रहेंगी। पहले महायुद्ध के बाद पश्चिम एशिया के देशों का सीमांकन ही कुछ ऐसा हुआ है कि कुछ राष्ट्रों में शिया शासकों की प्रजा सुन्नी हो गई और सुन्नी शासकों की शिया। इनके विवाद तभी सुलझेंगे जबकि इन देशों में सांप्रदायिकता घटे और मूल इस्लाम का अनुसरण हो। वरना होगा यह कि इस शिया−सुन्नी प्रतिस्पर्धा का फायदा रुस और अमेरिका उठाएंगे। वे तरह−तरह के आतंकवाद को बढ़ावा देंगे। जैसे रुस असद के आतंक का समर्थन करता है तो अमेरिका ‘दाएश’ के आतंक का करता रहा है। अमेरिका ने सुन्नी सद्दाम को खत्म किया और वह एराक के शियो को समर्थन दे रहा है। हर महाशक्ति अपने स्वार्थ के हिसाब से अपने मोहरे चुनती है। दोनों के मोहरे मुसलमान बनते हैं और दोनों तरफ से मुसलमान मरते हैं। इसे इस्लामी जिहाद कैसे कहा जा सकता है? कभी−कभार न्यूयार्क, पेरिस और मेडि्रड में भी हमले हो जाते हैं। इन आतंकियों का इस्लाम से क्या लेना−देना है? ये नाम इस्लाम का लेते हैं और काम महाशक्तियों या अपने तानाशाहों का करते हैं। इन गुमराह मुसलमानों को ठीक रास्ते पर लाना सबसे बड़ा काम है। यह काम इस्लाम के मौलाना, मुफ्ती, औलिया, आयतुल्लाह, आलिम−फाजिल लोग बेहतर तरीके से कर सकते हैं। इस मौके पर दुनिया के करोड़ों साधारण मुसलमानों का चुप रहना भी उचित नहीं है। यदि वे बोलेंगे तो उनके गुमराह बच्चों की जान भी बचेगी और इस्लाम की महिमा भी बढ़ेगी। महाशक्तियां एकजुट होकर आतंक के खिलाफ जरुर लड़ें लेकिन उन्हें इन मुस्लिम राष्ट्रों के अंदरुनी मामलों में कम से कम दखलंदाजी करनी चाहिए।

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